भारत लोकतन्त्र क्यों है ?

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते

जय गणेश
श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


निर्माण के बिना निर्वाण व्यर्थ


कौटिल्यके उपदेशोंका ठीक आदर एवं पालन न करने और आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीतिकी उपेक्षाके परिणामस्वरूप मार्गभ्रष्ट हिन्दू ही विदेशी आक्रामकोंके सहायक बने। इतना ही नहीं, इसी कारण बहुत दिनोंसे हमारे देशमें इतनी अदीर्घदर्शिता बढ़ गयी कि वह निर्वाण या विध्वंस ही सोचना जानने लगा, निर्माण या रचनाकी बात सोचता ही नहीं था। पृथ्वीराजकी किन्हीं बातों से उद्विग्न होकर लोगोंने सोचा कि उसे मिटाना है, भले ही मुगल आयें। किन्तु जब मुगल एवं मुसलिम कुकृत्योंसे लोग उद्विग्न हुए तो सोचा कि इस शासनको खत्म करना है, फिर जो आये सो आयेफलस्वरूप अंग्रेजोंके पाँव जमानेमें मदद कर मुस्लिम-शासन समाप्त किया गया।”

श्रीकरपात्रीजी
अंग्रेजोंसे ऊब जाने पर उनको खत्म करनेका प्रयत्न हुआ और यह सोचा गया कि अंग्रेज हटने चाहिए, उनके स्थानमें जो आये सो आये। इस प्रयत्नके फलस्वरूप कांग्रेसको बलवान्‌ बनाकर सफल बनाया गया। कांग्रेसने देशके टुकड़े किये — हिन्दुस्तान-पाकिस्तानका बँटवारा स्वीकार किया; भूमि-सम्पत्ति छीनी; धर्म-कर्म तथा शास्त्रोंको ठुकराया; मनमाना कानून बनाया; गोहत्याको बढ़ावा दिया। अब आज जनताकी इच्छा है कि कांग्रेस हटनी चाहिए, इसके स्थान पर अन्य चाहे जो भी आये।”

“किन्तु हम निर्माण नहीं सोचते, इस अन्ध-परम्परासे कभी भी शान्ति न होगी। निर्माणके बिना निर्वाण सर्वथा व्यर्थ ही होता है। जबतक हम अपनी शास्त्रीय परम्पराओंके अनुसार अपने निर्माणकी रूपरेखाओं पर विचार नहीं करेंगे, तबतक सभी दलों एवं संघटनोंकी प्रतिक्रियास्वरूप प्रवृत्तियाँ शान्ति एवं समृद्धि-स्थापनामें सफल न हो सकेंगी। धर्म-संघ, रामराज्य-परिषद्‌का प्रयास इसी निर्माणकी ओर है।”


– अनन्तश्रीविभूषित सर्वभूतहृदय अभिनवशङ्कर वेदभाष्यकार ‘धर्मसम्राट्‘ स्वामी श्रीकरपात्रीजीमहाराज द्वारा लिखित पुस्तक “विचार-पीयूष” पृष्ठ संख्या ४३४ – ४३५
लोकतन्त्र एक ऐसी शासन-प्रणाली है जिसमें प्रजा को लगता है कि वो अपने प्रतिनिधि चुनकर स्वयं शासन चला रहे परन्तु सत्ता की असली बागडोर चंद अमीर लोगों, अधिकारियों और व्यापारियों के हाथ में होती है।
भारत की आज़ादी के समय अंग्रेजों को भारत की सत्ता फिर से क्षत्रिय राजाओं को जाने का डर था, इसलिए उन्होंने भारत को लोकतन्त्र बनाने का षड्यंत्र रचा और सत्ता अपने करीबी नेताओं को दी।
अंग्रेजों को यह आशा भी थी कि यह नेता सत्ता को सम्भाल नहीं पाएँगे और कुछ समय बाद दोबारा उन्ही को सत्ता वापिस मिल जाएगी।
मित्रैः सह साझां कुर्वन्तु