क्षत्रियोंका धर्म क्या है ?

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


राजधर्म की स्थापना ही हर क्षत्रिय का स्वधर्म है।



प्रतिज्ञा


जयं जानीम धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च।
विजयार्थं हि सङ्ग्रामे न त्यक्षयाम: परस्परम्।
जयन्तॊ वध्यमाना वा प्राप्नुयाम च सद्गतिम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १००. ३२, ४०, ४१)

“हम लक्ष्यसिद्धिरूप जयको ही धर्म तथा सम्पूर्ण सुखोंका मूल समझें। हम जयार्थसाधनरूप सङ्ग्राममें विजय प्राप्त करनेके लिए प्राण रहते एक – दूसरेका साथ नहीं छोड़ेंगेया तो विजय प्राप्त करेंगे या युद्धमें मारे जाकर सद्गति लाभ करेंगे।।”
प्रतिज्ञा
मैं सर्वहितकी भावनासे हिन्दुओंके अस्तित्व और आदर्शकी रक्षा, देशकी सुरक्षा तथा अखण्डताके लिए सदा कटिबद्ध रहूँगा। सती, धर्मशील, गोवंश, वेद तथा वैदिकवाङ्गमय, शिक्षणसंस्थान, गङ्गा – यमुना – ब्रह्मपुत्र – महानदी – गोदावरी – कृष्णा – काबेरी – नर्मदा – सेतु – सिन्धु – सागर आदि तीर्थ, मठ – मन्दिर – आश्रम, वन – पर्वत – भूमि आदि सनातन प्रशस्त मानबिन्दुओंकी रक्षाके लिए सदा कटिबद्ध रहूँगा। स्वयं सुबुद्ध, सत्यसहिष्णु तथा स्वावलम्बी रहते हुए अन्योंको सुबुद्ध, सत्यसहिष्णु तथा स्वावलम्बी बनानेमें सदा संलग्न रहूँगा।

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “पूर्वाम्नाय-श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठ-परिचव-प्रकल्प” पृष्ठ संख्या ४३-४५

क्षत्रिय कौन ?


शौर्यं वीर्यं धृतिस्तेजस्त्याग आत्मजय: क्षमा।
ब्रह्मण्यता प्रसादश्च रक्षा च क्षत्रलक्षणम्।।

(श्रीमद्भागवत ७.११. २२)

युद्धमें उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजाकी रक्षा करना — ये क्षत्रियके लक्षण हैं।।”

न हि शौर्यात् परं किंचित् त्रिषु लोकेषु विद्यते।
शूर: सर्वं पालयति सर्वं शूरे प्रतिष्ठितम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९९. १८)

तीनों लोकोंमें शूरवीरतासे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। शूरवीर क्षत्रिय सबका पालन करता है और सारा जगत् उसीके आधारपर टिका हुआ है।।”
क्षत्रिय कौन है?

क्षत्रियका अर्थ


क्षत्रियका अर्थ होता है जहाँ जहाँ क्षति (हानि) हो उससे व्यक्ति और समाजकी रक्षा करें। व्यक्ति और समाजको क्षतिग्रस्त ना होने दें, विशेषकर ब्राह्मणोंकी रक्षा क्षत्रियोंका मुख्य दायित्व होता है। परम्पराका रक्त, विशेषकर सदाचार, संयम सम्पन्न वेदज्ञ ब्राह्मणोंको क्षतिग्रस्त न होने दे — उसीका नाम क्षत्रिय होता है। अराजक तत्त्वोंका दमन करना, सज्जन अराजकताकी धारामें बहनेके लिए विवश न हों – इसके लिए प्रयत्नशील रहना क्षत्रियोंका धर्म है।”

मनुस्मृति आदि शास्त्रोंके अनुसार “क्षात्रधर्म” का नाम ही “राजधर्म” या “राजनीति” है। धर्मकी सीमाके बाहर कोई राजनीति नहीं है क्योंकि नीति और धर्म, ये दोनों शब्द पर्यायवाचक-एकार्थक हैं। “राजपदक्षत्रियके अर्थमें प्रयुक्त है। “क्षात्रधर्म” का नाम ही “राजधर्म” होता है, उसीका नाम “दण्डनीति” होता है, उसीका नाम “अर्थनीति” भी होता है।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा एक प्रश्नके उत्तरमें “वक्तव्य” दिनांक: १५ अप्रैल, २०१८

रणभूमिमें क्षत्रिय


पुरुषाणां समानानां दृश्यते महदन्तरम्।
संग्रामेऽनीकवेलायामुत्क्रुष्टेऽभिपतन्त्युत।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १८)

“सभी पुरुष देखनेमें समान होते हैं; परंतु युद्धस्थलमें जब सैनिकोंके परस्पर भिड़नेका समय आता है और चारों ओरसे वीरोंकी पुकार होने लगती है, उस समय उनमें महान्‌ अन्तर दृष्टिगोचर होता है। एक श्रेणीके वीर तो निर्भय होकर शत्रुओंपर टूट पड़ते हैं और दूसरी श्रेणीके लोग प्राण बचानेकी चिन्तामें पड़ जाते हैं।।”
क्षत्रिय कौन है?
अभीतॊ विकिरन् शत्रून् प्रतिगृह्य शरांस्तथा।
न तस्मात्त्रिदशाः श्रेयॊ भुवि पश्यन्ति किंचन।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. ११)

तस्य शस्त्राणि यावन्ति त्वचं भिन्दन्ति संयुगे।
तावतः सॊऽश्रुते लॊकान् सर्वकामदुहॊऽक्षयान्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १२)

“जो निर्भय हो शत्रुओंपर बाणोंकी वर्षा करता और स्वयं भी बाणोंका आघात सहता है, उस क्षत्रियके लिये उस कर्मसे बढ़कर देवतालोग इस भूतलपर दूसरा कोई कल्याणकारी कार्य नहीं देखते हैं।। युद्धस्थलमें उस वीर योद्धाकी त्वचाको जितने शस्त्र विदीर्ण करते हैं, उतने ही सर्वकामनापूरक अक्षय लोक उसे प्राप्त होते हैं।।”

यदस्य रुधिरं गात्रादाहवे सम्प्रवर्तते।
सह तेनैव रक्तेन सर्वपापैः प्रमुच्यते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १३)

यानि दुःखानि सहते क्षत्रियो युधि तापित:।
तेन तेन तपॊ भूय इति धर्मविदॊ विदुः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १४)

समरभूमिमें उसके शरीरसे जो रक्त बहता है, उस रक्तके साथ ही वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।। युद्धमें बाणोंसे पीड़ित हुआ क्षत्रिय जो-जो दुःख सहता है, उस-उस कष्टके द्वारा उसके तपकी ही उत्तरोत्तर वृद्धि होती है; ऐसी धर्मज्ञ पुरुषोंकी मान्यता है।।”

क्षत्रियोंके तीन गुण


क्षत्रियोंमें कौनसे तीन गुण होने चाहिए ? शूरता हो, सुशीलता हो, ओजस्विता हो। बड़ेका अनुगमन करनेपर कौनसा गुण प्राप्त होता है? ओजस्विताक्षत्रियमें तीन गुण होने चाहिए — शूरता हों, सुशीलता ना हो तो आतंकवादी हो जाएगा। सुशीलता हो, शूरता ना हो तो बौद्ध (बुद्धका अनुयायी) हो जाएगा, बौद्धों वाली सुशीलता हो जाएगी। ओजस्विताबड़ोंकी सेवा करनेसे तीसरा गुण कौनसा आता है ? क्षत्रिय जो होगा, उसमें तीन गुण होना चाहिए — शूरता, सुशीलता, ओजस्वितातीनों गुणोंसे सम्पन्न हो तो क्षत्रिय।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा एक प्रश्नके उत्तरमें “वक्तव्य” दिनांक: ४ सितम्बर, २०१९

क्षत्रिय स्वधर्म कैसे पालन करें ?


अराजक तत्त्वोंका दमन करना, सज्जन अराजकताकी धारामें बहनेके लिएविवश न हों – इसके लिए प्रयत्नशील रहना क्षत्रियोंका धर्म है। आजकल परम्पराप्राप्त क्षात्रधर्म लुप्तप्रायः है क्योंकि सेक्युलर शासनतन्त्रमें वंशपरम्पराका उच्छेद राजनीतिज्ञोंका व्यसन हो गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र — सब दिशाहीन कर दिए गए हैं और वर्णसंकरताको भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। ऐसी स्थितिमें भगवत्कृपा से कोई क्षत्रिय क्षत्रियोचित संस्कार और शीलसे सम्पन्न हो तब — पहले तो उन्हें विचार करना चाहिए कि अस्त्र-शस्त्र उठानेका का समय है नहीं, समस्या क्या है, उसके समाधानका स्वरूप क्या हो सकता है। मूल समस्या क्या है — व्यासपीठको पनपने मत दो, शासनतन्त्रके समकक्ष या उसके ऊपर कोई भी धार्मिक, आध्यात्मिक तन्त्र न रहे; राजनेताओंमें यह दुरभिसन्धि है।”
क्षत्रिय
“साथ ही साथ यह भी विचार करनेकी आवश्यकता है कि क्षत्रिय क्षात्रधर्मका पालन कैसे कर सकते हैं। ब्राह्मणोंका विकल्प निकाला गया स्वतन्त्र भारतमें शिक्षकोंको, शिक्षण संस्थानोंको — उसीसे शिक्षा जगत् को खतरा है, दिशाहीनता प्राप्त है, विकृति है। क्षत्रियोंका विकल्प निकाला गया पुलिस और सेनाको — उसीसे रक्षा विभागको खतरा है। वैश्योंका विकल्प निकाला गया स्वतन्त्र भारतमें उद्योगपतियोंको — उसीसे अर्थव्यवस्थाको क्षति प्राप्त है। शूद्रोंका विकल्प निकाला गया स्वयंसेवकोंको — वे स्वयंसेवक ही सेवाके मार्गमें, श्रमके मार्गमें अवरोधक सिद्ध हो गए। दार्शनिक धरातलपर, व्यावहारिक धरातलपर, वैज्ञानिक धरातलपर कोई भी राजनीतिक दल सफल नहीं है। राजनीतिकी परिभाषा भी इन राजनीतिक दलोंको विदित नहीं है, जब राजनीतिकी परिभाषाका ही ज्ञान नहीं है तब वे राजनीतिको व्यावहारिक धरातल पर उतार कैसे सकते हैं। सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, सम्पन्न, सेवा परायण, स्वस्थ, सर्वहितप्रद व्यक्ति और समाजकी संरचना वेदादिशास्त्रसम्मत राजनीतिकी विकासकी परिभाषा है।”

पूरा देश इस समय अन्धेरेमें चल रहा है, लेकिन हम लोग जागरूक हैं, अपने दायित्वका निर्वाह कर रहे हैं। अलगसे खिचड़ी न पकाकर, खूब निरीक्षण-परीक्षण करनेपर सहभागिताका परिचय देना चाहिए। भारतमें एक व्यामोह यह है — एक लाख व्यक्तिमें कोई एक व्यक्ति राष्ट्रके प्रति, समाजके प्रति संवेदनशील होता है। अंतर्निहित उसकी भावना होती है, उसीके अनुगत होकर सब काम करे। नेतृत्वका व्यामोह बहुत भयंकर है, जो कुछ चेतना-सम्पन्न व्यक्ति है वह अपने ही नेतृत्वमें सबको चलानेका प्रयास करता है। भारत और नेपालमें जो जानदार व्यक्ति हैं उनमें बहुनायकवादकी सामाजिक स्तर पर विभीषिका है।”

क्षत्रिय
“सोच-समझकर परिस्थितिका आकलन करके भव्य भारतकी संरचनाके लिए शासनतन्त्रका स्वरूप क्या हो? लोकतन्त्र या प्रजातन्त्रके नाम पर उन्माद है और राजतन्त्रकी स्थापनाके प्रति लोगोंके हृदयमें असम्भावना है। यद्यपि १९४७ से अब तक — एक सौ वर्षसे कम अवधि है, फिरभी लोगोंको होता है अब तो राजतन्त्रकी स्थापना कैसे हो सकती है। चार ब्राह्मण, आठ क्षत्रिय, इक्कीस वैश्य, तीन शूद्र और एक सूत — मन्त्रीमण्डलमें सदस्य होते थे, महाभारत शान्तिपर्व के अनुसारराजा कोई तानाशाह नहीं होते थे, समाजके हर वर्गका प्रतिनिधित्व करते थे। चार ब्राह्मण (शिक्षाविद्), आठ क्षत्रिय, इक्कीस वैश्य (अपना घर भरनेके लिए नहीं, आर्थिक दृष्टिसे समाजको उन्नत करने के लिए), तीन शूद्र और एक सूत (सूतका अर्थ होता है सांस्कृतिक मन्त्रीका निर्वाह करने वाला) — तो इस समय क्षत्रियोंको लगता हों कि कहीं स्वस्थ ढंगसे काम हो रहा है तो इसमें सहभागिताका परिचय दे सकते हैं।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा एक प्रश्नके उत्तरमें “वक्तव्य” दिनांक: २० अप्रैल, २०२१

क्षत्रिय मृत्यु


अधर्मः क्षत्रियस्यैष यच्छय्यामरणं भवेत्।
विसृजन् श्लेष्ममूत्राणि कृपणं परिदेवयन्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २३)

अविक्षतेन देहेन प्रलयं यॊऽधिगच्छति।
क्षत्रियॊ नास्य तत् कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २४)

न गृहे मरणं तात क्षत्रियाणां प्रशस्यते।
शौटीराणामशौटीर्यमधर्मं कृपणं च तत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २५)

खाटपर सोकर मरना क्षत्रियके लिये अधर्म है। जो क्षत्रिय कफ और मल-मूत्र छोड़ता तथा दु:खी होकर विलाप करता हुआ बिना घायल हुए शरीरसे मृत्युको प्राप्त हो जाता है, उसके इस कर्मकी प्राचीन धर्मको जानने-वाले विद्वान्‌ पुरुष प्रशंसा नहीं करते हैं।। क्योंकि तात! वीर क्षत्रियोंका घरमें मरण हो, यह उनके लिये प्रशंसाकी बात नहीं है। वीरोंके लिये यह कायरता और दीनता अधर्मकी बात है।।”
क्षत्रिय मृत्यु
रणेषु कदनं कृत्वा ज्ञातिभिः परिवारितः।
तीक्ष्णैः शस्त्रैःरभिक्लिष्टः क्षत्रियॊ मृत्युमर्हति।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २८)

शूरॊ हि काममन्युभ्यामाविष्टॊ युध्यते भृशम्।
हन्यमानानि गात्राणि परैर्नैवावबुध्यते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २९)

स संख्ये निधनं प्राप्य प्रशस्तं लॊकपूजितम्।
स्वधर्मं विपुलं प्राप्य शक्रस्येति सलॊकताम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. ३०)

क्षत्रियको तो चाहिये कि अपने सजातीय बन्धुओंसे घिरकर समरांगणमें महान्‌ संहार मचाता हुआ तीखे शस्त्रोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर प्राणोंका परित्याग करे–वह ऐसी ही मृत्युके योग्य है।। शूरवीर क्षत्रिय विजयकी कामना और शत्रुके प्रति रोषसे युक्त हो बड़े वेगसे युद्ध करता है। शत्रुओंद्वारा क्षत-विक्षत किये जानेवाले अपने अंगोंकी उसे सुध-बुध नहीं रहती है।। वह युद्धमें लोकपूजित सर्वश्रेष्ठ मृत्यु एवं महान्‌ धर्मको पाकर इन्द्रलोकमें चला जाता है।।”

क्षत्रिओंको ही शासन करने का अधिकार है


अंग्रेजोंकी कूटनीति थी — अगर क्षत्रिय यहाँ पर शासन सम्भालते रहे तो हमारी दाल नहीं गलेगी, भारतको रौंदनेमें हम समर्थ नहीं होंगे। इसलिए हमारे राजनेताओंको, सत्तालोलुप और अदूरदर्शी राजनेताओंको प्रेरित कर उन्होंने क्षत्रियोंको दिशाहीन करनेका प्रयत्न किया। आज वो सफल माने जाते हैं, लेकिन मैं शंकराचार्यके पदसे बहुत ही सोच-समझकर, धैर्यपूर्वक, विवेकपूर्वक, ओजस्वितापूर्वक, दूरदर्शितापूर्वक यह घोषणा करना चाहता हूँ — सच्चिदानन्द स्वरूप सनातन धर्मके सर्वेश्वरने केवल क्षत्रियों को ही रक्षाका दायित्व दिया है और शासन करनेका अधिकार प्रदान किया है।”

“इसलिए धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त सर्वहितप्रद सनातन शासनतन्त्रकी स्थापनाके लिए प्रथम चरणमें पूर्व – पश्चिम – उत्तर – दक्षिण – मध्यकी दृष्टिसे भारतके पाँच क्षत्रिय, नेपालके पाँच क्षत्रिय, भूटानके पाँच क्षत्रिय, बांग्लादेशके पाँच क्षत्रिय, पाकिस्तानके पाँच क्षत्रिय — कुल मिलाकर पच्चीस क्षत्रिय हमसे सम्पर्क स्थापित करें, संयोजन समितिके सदस्य बने और धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त सर्वहितप्रद सनातन शासनतन्त्र भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और पाकिस्तानमें फिर प्रतिष्ठित हो और पूरा विश्व उसको आदर्श माने — इसका मार्ग प्रशस्त करें।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा एक प्रश्नके उत्तरमें “वक्तव्य” दिनांक: १३ नवम्बर, २०१७