सप्तविध नीतिप्रयोग
प्राज्ञाञ्शूरान् महोत्साहान् कर्मसु स्थिरपौरुषान्।
मानयन्तः सदा युक्ता विवर्धन्ते गणा नृप।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १०७. २०)
“राजन्! सङ्घके सदस्य सदा बुद्धिमान्, शूर, महान् उत्साही और कार्यसिद्धिके लिए स्थिर प्रयत्नशील महानुभावोंका सदा सम्मान करते हुए राज्यके उत्कर्षके लिये उद्योगशील बने रहते हैं। अत एव उत्कर्ष प्राप्त करते रहते हैं।।”
द्रव्यवन्तश्च शूराश्च शस्त्रज्ञाः शास्त्रपारगाः।
कृच्छ्रास्वापत्सु सम्मूढान् गणा: संतारयन्ति ते।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १०७. २१)
“नरेश्वर ! सङ्घके सब सदस्य (गणराज्यके नागरिक) धनवान्, शूरवीर, अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता, शास्त्रोंके पारंगत विद्वान् और सब कार्योंमें दृढ़ पौरुषका परिचय देनेवाले महानुभावोंका सदा सम्मान करते हुए राज्यकी उन्नतिके लिये उद्योगशील बने रहते हैं। वे कठिन विपत्तिमें पड़कर मोहित हुए लोगोंका उद्धार करते रहते हैं; अत एव वे शीघ्र उत्कर्षको प्राप्त होते हैं।।”
“परस्पर सद्भावपूर्ण सम्वादके द्वारा प्राप्त सैद्धान्तिक निष्पत्तिके क्रियान्वयनमें तत्परता तथा शस्त्र और शास्त्रबलसम्पन्नता सफलताकी स्वस्थविधा है। अतः सङ्घबद्ध रहना ही गणके सदस्योंका महान् आश्रय है। — ‘तस्मात् सङ्घातमेवाहुर्गणानां शरणं महत्।।’ (महाभारतशान्तिपर्व १०७. ३२)”
साम भेदस्तथा दानं दण्डश्च मनुजेश्वर।
उपेक्षा च तथा माया इन्द्रजालं च पार्थिव।।
प्रयोगा: कथिता: सप्त तन्मे निगदित: शृणु।
(मत्स्यपुराण २२२.२ – २.१/२)
“मनुजेश्वर ! साम (स्तुति), भेद, दान, दण्ड, उपेक्षा, माया तथा इन्द्रजाल — ये सात प्रयोग बतलाये गये हैं। राजन् ! उन्हें मैं बतला रहा हूँ, सुनिये।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २०० – २०१
साम भेदस्तथा दानं
महाकुलीना ऋजवो धर्मनित्या जितेन्द्रिया:।
सामसाध्या न चातथ्यं तेषु साम प्रयोजयेत्।।
(मत्स्यपुराण २२२. ५)
“सत्कुलमें समुत्पन्न, सरल, धर्मशील, संयमी, विनम्र, यशस्वी, मनस्वी, सत्पुरुष उनमें सन्निहित गुणोंकी यथावसर प्रशंसारूप तथ्यात्मक सामसे प्रसन्न होते हैं। अतः ऐसे सत्पुरुषोंके प्रति तथ्यात्मक सामका उपयोग अवश्य करना चाहिये, न कि अतथ्यात्मक सामका।।”
अभिप्राय यह है कि उनके सम्मुख उनके कुल, शील, स्वभाव, उपकार, स्नेहादिका कृतज्ञतापूर्वक वर्णनकर, उन्हें अपने अनुकूल करना चाहिये। दुर्जन सामनीतिके प्रयोक्ताको भयभीत समझते हैं। अतः लोकसङ्ग्रहके उद्देश्यसे ही उनके प्रति सामका प्रयोग करना चाहिये, न कि कार्यसिद्धिकी भावनासे। “न सामदण्डोपनिषत् प्रशस्यते न मार्दवं शत्रुषु यात्रिकं सदा” (महाभारतशान्तिपर्व १०३. ४०) — शत्रुके प्रति सामनीतिका प्रयोग अच्छा नहीं माना जाता, बल्कि गुप्तरीतिसे दण्डनीतिका प्रयोग ही श्रेष्ठ समझा जाता है। शत्रुके प्रति न तो कोमलता, न उनपर आक्रमण करना ही सदा उचित माना जाता है।
शत्रुराज्यकी खेतीको नष्ट करना, चोरी, हत्यादिको प्रश्रय देना तथा जलाशयादिको विषाक्त बनाना भी मानवोचित शीलकी सीमामें यशविघातक होनेके कारण अच्छा नहीं माना जाता। राजा विश्वस्त मनुष्योंके द्वारा शत्रुके नगर और राज्यमें नाना प्रकारके छल तथा परस्पर वैरभावका सञ्चार करे और छद्मवेषमें अपने गुप्तचर नियुक्त करे; परन्तु अपने यशकी रक्षाके लिये वहाँ अपनी ओरसे चोरी या गुप्त हत्या आदि कोई पापकर्म न होने दे —
मायाविभेदानुपसर्जनानि तथैव पापं न यशःप्रयोगात्।
आप्तैर्मनुष्यैरूपचारयेत पुरेषु राष्ट्रेषु च सम्प्रयुक्तान्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १०३. ४१)
जो परस्पर शत्रुता रखनेवाले, क्रुद्ध, भयभीत और अपमानित हों, उनके प्रति भेदनीतिका प्रयोग करना चाहिये; क्योंकि वे भेदद्वारा साध्य माने गये हैं। जो जिससे विश्वास, सम्बन्ध, उपकार आदि हेतुओंसे अभिन्न बने रहते हों; उन्हें अपने प्रति आस्थान्वित करके उनमें छल, घात तथा कुटिलताके द्वारा क्रमशः सन्देह और भ्रम उत्पन्न करने या करानेके अनन्तर उन्हें अपने वशमें कर ले।
संहता हि विना भेदं शक्रेणापि सुदु:सहा।
भेदमेव प्रशंसन्ति तसमान्नयविशारदा:।।
(मत्स्यपुराण २२३. ४)
“सङ्घशक्तिके कारण संहत व्यक्तियोंपर बिना भेदके इन्द्रतुल्य पराक्रमी होनेपर भी विजय पाना असम्भव है। अतः नीतिविशारद महानुभाव भेदनीतिकी ही ऐसे स्थलोंपर प्रशंसा करते हैं।।”
अपने अन्तरङ्ग व्यक्तियोंके कोप तथा असन्तोषको दान, मान, सद्भावपूर्ण सम्वादादि उपायोंसे यथाशीघ्र अवश्य दूर करे। अभेद्य सङ्घशक्तिके अमोघ प्रभावसे तथा सदाचार, संयम एवम् देवोपासनाके योगसे शक्तिशाली शत्रुपर भी विजय सम्भव है।
दानसे देव, मनुष्य सब वशमें हो जाते हैं। दान सर्वश्रेष्ठ वशीकरण मन्त्र, तन्त्र और यन्त्र है। —
सर्वेषामप्युपायानां दानं श्रेष्ठतमं मतम्।
सुदत्तेनेह भवति दानेनोभयलोकजित्।।
(मत्स्यपुराण २२४. १)
“सब उपायोंमें दान सर्वश्रेष्ठ उपाय है। विधिवत् किये गये दानसे लोक तथा परलोक — दोनोंपर विजय सम्भव है।।”
यद्यप्यलुब्धगम्भीरा: पुरुषा: सागरोपमा:।
न गृह्णन्ति तथाप्येते जायन्ते पक्षपातिन:।।
(मत्स्यपुराण २२४. ५)
“यद्यपि जो निर्लोभ, गम्भीर, सागरसदृश तथा दान न लेनेवाले परिग्रहशून्य हैं, तथापि वे भी दानशीलके पक्षधर हो जाते हैं।।”
लब्धानामपि वित्तानां बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमो।
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २६. ३१)
“प्राप्त हुए धनका उपयोग करनेमें दो प्रकारकी भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यानमें रखना चाहिये। पहली भूल है अपात्रको धन देना और दूसरी भूल है सुपात्रको धन न देना।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २०१ – २०३
दण्डनीति:
न शक्या ये वशे कर्तुमुपायत्रितयेन तु।
दण्डेन तान् वशीकुर्याद् दण्डो हि वशकृन्नृणाम्।।
(मत्स्यपुराण २२५. १)
“साम, भेद तथा दानरूप त्रिविध उपायोंसे वशमें न होनेवालेको दण्डसे वशमें करना चाहिये।।”
राजमूलो महाप्राज्ञ धर्मॊ लॊकस्यलक्ष्यते।
प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ६८. ८)
“वसुमनासे बृहस्पतिजीने कहा — महाप्राज्ञ लोकमें जो धर्म देखा जाता है, उसका मूल कारण राजा ही है। राजाके भयसे ही प्रजा एक – दूसरेको खाती नहीं।।”
अदण्डयान् दण्डयन् राजा दण्डयांश्चैवाप्यदण्डयन्।
इह राज्यात्परिभ्रष्टो नरकं च प्रपद्यते।।
(मत्स्यपुराण २२५. ६)
“दण्डनीयको दण्ड न देनेसे और अदण्डनीयको दण्ड देनेसे राजा जीवनकालमें राज्यच्युत होता है और मरनेके बाद नरक प्राप्त करता है।।”
न यॊनिदोषॊ वर्तेत न कृषिर्न वणिक्पथः।
मज्जेद् धर्मस्त्रयी न स्याद् यदि राजा न पालयेत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ६८. २१)
“यदि राजा पालन न करे तो व्यभिचारसे किसीको घृणा न हो, खेती नष्ट हो जाय, व्यापार चौपट हो जाय, धर्म डूब जाय और वेदोंका कहीं पता न चले।।”
न वृषाः सम्प्रवर्तेरन् न मथ्येरंश्च गर्गराः।
घॊषाः प्रणाशं गच्छेयुर्यदि राजा न पालयेत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ६८. २३)
“यदि राजा पशुओंका पालन न करे तो साँड गायोंमें गर्भाधान न करे, दूध – दहीसे भरे हुए घड़े या मटके कभी महे न जाँय और गोशाले नष्ट हो जाँय।।”
स्त्रियश्चापुरुषा मार्गं सर्वालङ्कारभूषिताः।
निर्भयाः प्रतिपद्यन्ते यदि रक्षति भूमिपः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ६८. ३२)
“यदि पृथ्वीका पालन करनेवाला राजा अपने राज्यकी रक्षा करता है तो समस्त आभूषणोंसे विभूषित सुन्दरी स्त्रियाँ किसी पुरुषको साथ लिये बिना भी निर्भय होकर मार्गसे आती – जाती हैं।।”
वार्तामूलॊ ह्ययं लॊकस्त्रय्या वै धार्यते सदा।
तत् सर्वं वर्तते सम्यग् यदा रक्षति भूमिपः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ६८. ३५)
“खेती आदि समुचित जीविकाकी व्यवस्था ही इस जगत् में जीवनका मूल है तथा वृष्टि आदिकी हेतुभूता त्रयी विद्यासे ही सदा जगत् का धारण – पोषण होता है। जब राजा प्रजाकी रक्षा करता है, तब यह सब समुचित रीतिसे सम्पादित होता है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २०४ – २०५
उपेक्षां इन्द्रजालं भ्रमश्च
दण्डो हि बलवान् यत्र तत्र साम प्रयुज्जते।
प्रदानं सामपूर्वं च भेदमूलं प्रशस्यते।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ९४ दा०)
“जिस स्थानपर शत्रुपक्षकी सेना अधिक प्रबल हो, वहाँ पहले सामनीतिका ही प्रयोग करना उचित है। यदि उससे काम न चले तो धन या उपहार देनेकी नीतिको अपनाना चाहिये। इस दाननीतिके मूलमें भी यदि भेदनीतिका समावेश हो, अर्थात् शत्रुओंमें फूट डालनेकी चेष्टा की जा रही हो तो उसे उत्तम माना गया है।।”
भेददण्डानुबन्ध: स्यात्त समाश्रयेत्।
न चायं मम शक्नोति किञ्चित्कर्तुमुपद्रवम्।।
(अग्निपुराण २३४. ६)
न चाहमस्य शक्नोमि तत्रोपेक्षां समाश्रयेत्।
अवज्ञोपहतस्तत्र राज्ञा कार्य्यो रिपुर्भवेत्।।
(अग्निपुराण २३४. ७)
“जब ऐसा जान पड़े कि अमुक व्यक्ति शत्रु होनेपर भी मेरी कोई हानि नहीं कर सकता और मैं भी इस समय इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता, तब सन्धि या विग्रहसे उपराम होकर उपेक्षाका आलम्बन लेना चाहिए।।”
मायोपायं प्रवक्ष्यामि उत्पातैरनृतैश्चरन्।
शत्रोरुद्धेजनं शत्रो: शिविरस्थस्य पक्षिण:।।
(अग्निपुराण २३४. ८)
स्थूलस्य तस्य पुच्छस्थां कृत्वोल्कां विपुलां द्विज।
विसृजेच्च ततश्चैवमुल्कापातं प्रदर्शयेत्।।
(अग्निपुराण २३४. ९)
एवमन्ये दर्शनीया उत्पाता बहवोऽपि च।
उद्वेजनं तथा कुर्य्यात्कुहकैर्विविधैर्द्विषाम्।।
(अग्निपुराण २३४. १०)
“हे द्विज ! मायानामक नीतिके उपायका कथन करूँगा। विविध मिथ्या उत्पातोंसे शत्रुको उद्विग्न करना माया (कपट) है। हृष्ट – पुष्ट पक्षीके पुच्छभागमें बृहत् (विस्तृत) उल्का (जलता हुआ लूक) बाँध कर शत्रुके शिबिरकी ओर उड़ा कर शत्रुको विस्मित तथा भयभीत कर दे। इसी प्रकार मायावी मदारियोंके माध्यमसे और अन्य विविध उत्पातोंसे, मिथ्याचारोंसे तथा दुष्प्रचारोंसे एवम् मनोवैज्ञानिक प्रयोगोंसे शत्रुके मनोबलको कपटपूर्ण ढङ्गसे क्षीण तथा विलुप्त करे, यह माया है।।”
इन्द्रजालं प्रवक्ष्यामि चेन्द्रं कालेन दर्शयेत्।।
चतुरङ्गं बला राजा सहायार्थं दिवौकसाम्।
बलं तु दर्शयेत्प्राप्तं रक्तवृष्टिं चरेद्रिपौ।
छिन्नानि रिपुशीर्षाणि प्रासादाग्रेषु दर्शयेत्।।
(अग्निपुराण २३४. १४ – १५. १/२)
“इन्द्रजालनामक नीतिप्रभेदका वर्णन करता हूँ। प्रयोक्ता उचित स्थलपर उचित समयमें इसे प्रकट करे। शत्रुओंको विश्वास दिलावे कि देवताओंकी चतुरङ्गिणी सेना उसकी ओरसे युद्ध करनेके लिये उद्यत है। शत्रुसेनापर रक्तवृष्टिकर शत्रुको प्रकम्पित करे। मायाद्वारा यह प्रयत्न करे कि महलके ऊपर शत्रुओंके कटे हुए सिर दिखायी दें। पृथु आदिके प्रति इन्द्रके पाखण्डपूर्ण व्यवहारकी अनुकृतिसे शत्रुके मनोबलको क्षीण तथा विलुप्त करना इन्द्रजाल है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २०९ – २१०
नीतिशास्त्रविशारद राजन्
नयश्च विनयश्चौभौ यस्मिन् सत्यं च सुस्थितम्।
विक्रमश्च यथा दृष्ट: स राजा देशकालवित्।।
(वाल्मीकीय रामायण — किष्किन्धाकाण्ड १८. ८)
“जिसमें नय (नीति), विनय, सत्य और पराक्रमादि सब राजोचित गुण यथावत् सन्निहित देखे जायँ, वह राजा देश तथा कालका मर्मज्ञ मान्य है।।”
सर्वोपजीवकं लोकस्थितिकृन्नीतिशास्त्रकम्।
धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यत:।।
(शुक्रनीति १. ५)
अतः सदा नीतिशास्त्रमभ्यसेद्यत्नतो नृप:।
यद्विज्ञानान्नृपाद्याश्च शत्रुजिल्लोकरञ्जकाः।।
(शुक्रनीति १. ६)
“सर्व उपकारक तथा लोकस्थितिमें हेतु नीतिशास्त्र ही है। कारण यह है कि विचारकुशल मनीषियोंने इसे धर्म, अर्थ, कामका मूल तथा मोक्षप्रद माना है।।”
“अत एव राजा यत्नपूर्वक सदा नीतिशास्त्रका अध्ययन और अनुशीलन करे। नीतिशास्त्रविशारद राजादि शत्रुओंपर विजय प्राप्त करते हैं और लोकरञ्जक सिद्ध होते हैं।।”
नृपस्य परमो धर्म: प्रजानां परिपालनम्।
दुष्टनिग्रहं नित्यं न नीत्याऽतो विना ह्युभे।।
(शुक्रनीति १. १४)
“दुष्टदमन और प्रजापालन — दोनों ही राजाके नित्य धर्म हैं और ये दोनों नीतिशास्त्रके ज्ञानके बिना सम्भव नहीं।।”
यत्र नीतिबले चोभे तत्र श्रीस्सर्वतोमुखी।।
(शुक्रनीति १. १७)
“जो नीति तथा शक्ति दोनोंसे सम्पन्न है, उसे सब ओरसे सब प्रकारकी श्री स्वतः सुलभ होती है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६७-१६८