“सूर्यविहीन त्रिभुवनकी अन्धकारमयी स्थितिके तुल्य विश्वकी दयनीय स्थितिका एकमात्र कारण सनातन सामाजिक व्यवस्थाका विलोप है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “क्रान्तिबिन्दु” पृष्ठ संख्या ९
वर्णव्यवस्थाकी उत्पत्ति कैसे हुई ?
“वर्णव्यवस्थाका आधार क्या है ? पुरुष सूक्त वेदोंमें है, उसमें विराट् पुरुषका हिरण्यगर्भका वर्णन है, ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् आदि वचन हैं। वर्णव्यवस्था अनादि कालसे है और जीवोंके भोग्यके लिए सृष्टि अनन्तकाल तक चलती रहेगी। जो जीव मुक्त होते जाएँगे, उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। महासर्गके प्रारम्भमें भगवान जब हिरण्यगर्भ और विराट् (पुरुष) का रूप धारण करते हैं, उन्हींसे – उन्हीके अङ्ग-प्रत्यङ्गसे ही वर्णकी, आश्रमकी, छंदोंकी, वेदोंकी भी अभिव्यक्ति होती है।”
“श्रीमद्भागवत और महाभारत (हिन्दी अनुवाद सहित) गीताप्रेससे प्रकाशित हैं। पूरा महाभारत पढ़नेका समय नहीं हो सकता है; “शान्तिपर्व” और “अनुशासनपर्व” — दो पर्वमें विस्तारपूर्वक विराट् पुरुषके शरीरसे किसकी अभिव्यक्ति हुई। श्रीमद्भागवतके दूसरे और तीसरे स्कंधमें आपके प्रश्नका विस्तारपूर्वक उत्तर दिया गया है। वर्णाश्रमव्यवस्था वैदिक है, वेदोंकी अभिव्यक्ति और वर्ण-आश्रमकी अभिव्यक्ति भगवानसे ही हुई है — ये सब अनादि हैं। वेद भी अनादि, वर्णव्यवस्था भी अनादि और वर्णोचितकर्म भी अनादि ही हैं।”
— श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती महाराजके वक्तव्यसे दिनांक: २८ अप्रैल २०१९
सर्वेषां तुल्यदेहानां सर्वेषां सदृशात्मनाम्
पञ्चभूतशरीराणां सर्वेषां सदृशात्मनाम्।।
(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. ११)
लोकधर्मे च धर्मे च विशेषकरणं कृतम्।
यथैकत्वं पुनर्यान्ति प्राणिनस्तत्र विस्तर:।।
(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १२)
“अब मैं चारों वर्णोंका विशेषरूपसे लक्षण बता रहा हूँ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — इन चारों वर्णोंके शरीर पञ्च महाभूतोंसे ही बने हुए हैं और सब शरीरोंमें सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा भी एकरूप ही है (एक जैसी ही है)। फिर भी उनके लौकिक धर्म और विशेष धर्ममें विभिन्नता रखी गयी है (लौकिक और वर्णाश्रमादि विशेष धर्मोंका विभाग)। इसका उद्देश्य यही है कि सब लोग अपने-अपने धर्मका पालन करते हुए पुनः एकत्वको प्राप्त हों (समस्त भेदभूमियोंका सदुपयोग और निर्भेद आत्मस्थितिकी स्फूर्ति)। इस तथ्यका प्रकाश सनातन शास्त्रोंमें विस्तारसे किया गया है।।”

अध्रुवो हि कथं लोकः स्मृतो धर्म: कथं ध्रुव:।
यत्र कालो ध्रुवस्तात तत्र धर्म: सनातन:।।
(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १३८)
“तात ! यदि कहो कि धर्म तो नित्य माना गया है, तब उससे अनित्य स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति कैसे होती है ? अभिप्राय यह है कि अनित्य स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त करानेवाला धर्म नित्य कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि जब धर्मका संकल्प नित्य होता है अर्थात् अनित्य कामनाओंका त्याग करके निष्कामभावसे धर्मका अनुष्ठान किया जाता है, उस समय किये हुए धर्मसे सनातन लोक (नित्य परमात्मा)-की प्राप्ति होती है — ध्रुव ब्रह्मात्मतत्त्वकी समुपलब्धिकी भावनासे निष्कामभावसे अनुष्ठित स्वधर्माचरणके फलस्वरूप जब उत्तरायण मार्गसे आवृत्तिरहित उत्क्रमण होता है या इस लोकमें ही ब्रह्मविद्यारूप मोक्षधर्मके अनुष्ठानके फलस्वरूप विस्मृत कण्ठाभरणवत् नित्यात्मतत्त्वका अधिगम होता है, तब धर्मका फल सनातन (अव्यय) होता है।”
“अभिप्राय यह है कि जब प्रवृत्तिका पर्यवसान निवृत्तिमें और निवृत्तिका पर्यवसान निवृतिरूपा मुक्तिमें होता है, तब धर्मका फल नित्य होता है। जीव जब नित्यके वरणका सङ्ल्पकर तदर्थ धर्मानुष्ठानमें प्रवृत्त होता है, तब नित्यात्मतत्त्वरूपसे अवस्थान ही धर्मानुष्ठानका फल होता है।।”

सर्वेषां तुल्यदेहानां सर्वेषां सदृशात्मनाम्।
कालो धर्मेण संयुक्त: शेष एव स्वयं गुरु:।।
(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १४)
“सब मनुष्योंके शरीर एक-से होते हैं (पाञ्चभौतिक) तथा सबकी आत्मा भी समान ही है — आत्माकी सच्चिदानन्दरूपताकी दृष्टिसे भी सबमें समानता है; किंतु धर्मयुक्त संकल्प ही यहाँ शेष रहता है, दूसरा नहीं — विभेदक वर्णाश्रमधर्मसे संयुक्त कलनात्मक गुरुरूप काल सर्व भेदोंका सदुपयोग कराकर कर्त्ताको निर्भेद स्वप्रकाश आत्मस्वरूपसे स्वयं ही शेष रखता है। अभिप्राय यह है कि कलनात्मिका शक्तिसे अवच्छिन्न चित् – संज्ञक काल है। वह अभेदमें सकल भेदोंका सर्जनकर सकल भेदोंके सदुपयोगकी भावनासे विभेदक और विशोधक वर्णाश्रमधर्मका विधायक है। वह वर्णाश्रमधर्मके योगसे पञ्च भूतोंके तारतम्यसङ्घात शरीरोंकी पाञ्चभौतिकताका तथा पञ्चभूतोंकी त्रिगुणमयताका और त्रिगुणकी प्रकृतिरूपताका और मायाशक्तिरूपा प्रकृतिकी महेश्वररूपताका और कर्त्ता जीवकी सच्चिदानन्दस्वरूप महेश्वररूपताका विज्ञापक शेषसंज्ञक गुरु है — काल स्वयं ही गुरु है अर्थात् धर्मबलसे स्वयं ही उदित होता है।।”

एवं सति न दोषोऽस्ति भूतानां धर्मसेवने।
तिर्यग्योनावपि सतां लोक एव मतो गुरु:।।
(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १५)
“ऐसी स्थितिमें समस्त प्राणियोंके लिए पृथक् – पृथक् धर्मसेवनमें कोई दोष नहीं है। तिर्यग्योनिमें पड़े हुए पशु – पक्षियोंके लिए भी प्राणियोंके अभुक्त धर्मके योगसे एकको अनेक करनेवाला और निवृत्तिधर्मके योगसे अनेकको एक करनेवाला आलोकात्मक यह काल ही गुरु (कर्तव्याकर्तव्यका निर्देशक) है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १०६-१०७
स्वभावविहितो धर्मो
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।।
(मनुस्मृति ९. ३३५)
“बाह्याभ्यन्तर शुद्ध, अपनेसे श्रेष्ठ वर्णवालोंकी सेवा, मधुर भाषण करनेवाला, निरहङ्कार, सदा ब्राह्मणादिके सम्पर्कमें रहनेवाला शूद्र उत्कृष्ट जातिको प्राप्त होता है।।”
पूर्व गुण और कर्मानुसार मानव जीवन, जन्मानुरूप वर्ण, वर्णानुरूप आश्रम और वर्णाश्रमानुरूप कर्मकी व्यवस्था स्वीकार करते ही पूर्वजन्म और पुनर्जन्ममें आस्था अपेक्षित है। पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्ममें आस्था देहात्मवादसे ऊपर उठाकर स्वर्ग और मोक्षका मार्ग प्रशस्त करती है। शूद्रादि भी वर्णानुरूप काम करते हुए और उच्च वर्णका सङ्ग लाभ करते हुए एवम् ब्राह्मणोचित शम – दमादि शील धारण करते हुए उत्कर्ष प्राप्त करते हैं। अभिप्राय यह है कि स्वभावानुरूप कर्मालम्बनसे मनुष्य कालक्रमसे स्वभावज कर्मका अतिक्रमणकर निर्गुण, निष्क्रिय ब्रह्मपद प्राप्त करता है। ब्राह्मणोचित शील और स्वभावसे सबका हित सुनिश्चित है, ब्राह्मणोचित शीलका परित्याग ब्राह्मणोंके भी अपकर्षमें हेतु है। —
प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे।
वेददृग्भि: स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. ३१)
“राजन् ! वेददर्शी ऋषि – मुनियोंने युग – युगमें प्रायः मनुष्योंके स्वभावके अनुसार धर्मकी व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी है।।”

वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमान: स्वकर्मकृत्।
हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. ३२)
“जो स्वाभाविक वृत्तिका आश्रय लेकर अपने स्वधर्मका पालन करता है, वह धीरे – धीरे उन स्वाभाविक कर्मोंसे भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है।।”

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युति:।
मुखबाहूरूपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्।।
(मनुस्मृति १. ८७)
“उस महातेजस्वी ब्रह्माने इस सम्पूर्ण सृष्टिकी रक्षाके लिये ब्राह्मणों – क्षत्रियों – वैश्यों और शूद्रोंके पृथक् – पृथक् कर्मोंकी सृष्टि की।।”

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।
(मनुस्मृति १. ८८)
“उन्होंने अध्यापन कराना, अध्ययन करना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना ब्राह्मणोंके लिये सुनिश्चित किया।।”

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासत:।।
(मनुस्मृति १. ८९)
“उन्होंने प्रजाकी रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना और विषयोंमें अनासक्त रहना — इन कर्मोंको मुख्यरूपसे क्षत्रियोंके लिये बनाया।।”

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।।
(मनुस्मृति १. ९०)
“पशुओंकी रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना, व्याज लेना और खेती करना — इन कर्मोंको वैश्योंके लिये बनाया।।”

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।।
(मनुस्मृति १. ९१)
“श्रीब्रह्माजीने अनिन्दक रहते हुए ब्राह्मणादि तीनों वर्णोंकी सेवा करना ही शूद्रोंके लिये प्रधान कर्म बनाया।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १०९-१११
चातुर्वर्ण्यस्य लक्षण:
चतुष्पात् कच्छपादन्यो मन्डूका जलजाश्च ये।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ३६. २२)
“काँटेसे रहित मत्स्य, कच्छप तथा चार पैरवाले सब प्राणी ; तद्वत् मेंढक और जलमें उत्पन्न तथा जलचर अन्य जीव ब्राह्मणोंके लिए अभक्ष्य हैं।।”

वृद्ध्या कृषिवणिक्त्वेन जीवसंजीवनेन च।
वेत्तुमर्हसि राजेन्द्र स्वाध्यायगणितं महत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६२. ९)
“राजेन्द्र! वैश्यकी व्याज लेनेवाली वृत्ति, खेती और वाणिज्यके समान तथा क्षत्रियके प्रजापालनरूप कर्मके समान ब्राह्मणोंके लिये वेदाभ्यासरूपी कर्म ही महान् है — ऐसा तुम्हें समझना चाहिये।।”
शमो दमस्तप: शौचं सन्तोष: क्षान्तिरार्जवम्।
ज्ञानं दयाच्युतात्मत्वं सत्यं च ब्रह्मलक्षणम्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. २१)
“शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायणता और सत्य — ये ब्राह्मणके लक्षण हैं।।”

शौर्यं वीर्यं धृतिस्तेजस्त्याग आत्मजय: क्षमा।
ब्रह्मण्यता प्रसादश्च रक्षा च क्षत्रलक्षणम्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. २२)
“युद्धमें उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजाकी रक्षा करना — ये क्षत्रियके लक्षण हैं।।”

देवगुर्वच्युते भक्तिस्त्रिवर्गपरिपोषणम्।
आस्तिक्यमुद्यमो नित्यं नैपुणं वैश्यलक्षणम्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. २३)
“देवता, गुरु और भगवान् के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम — इन तीनों पुरुषार्थोंकी रक्षा करना, आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता — ये वैश्यके लक्षण हैं।।”

शुद्रस्य सन्नति: शौचं सेवा स्वामिन्यमायया।
अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्यं गोविप्ररक्षणम्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. २४)
“विनम्रता, पवित्रता, स्वामीकी निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रोंसे रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ — ब्राह्मणोंकी रक्षा करना — ये शूद्रके लक्षण हैं।।”
श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ् निबद्धं स्वेषु कर्मषु।
धर्ममूलं निषेवेत सदाचारमतन्द्रित:।।
(मनुस्मृति ४. १५५)
“श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें सम्यक् प्रकारसे कहे हुए अध्ययनादि स्वकर्ममें अङ्गरूपसे सम्बद्ध धर्मके हेतुभूत सदाचारका सर्वदा निरालस होकर आचरण करे।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ११०-११२
शिक्षा, रक्षा, अर्थ और सेवाको सन्तुलित रखनेका शाश्वतसिद्धान्त
“समाजमें शिक्षा, रक्षा, अर्थ और सेवाको सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित रखनेके लिए हर
व्यक्ति और वर्गकी जीविकाको सुरक्षित रखनेवाली सनातन वर्णव्यवस्था है। पूर्वकर्मानुरूप
वर्तमान जन्म, जन्मनियन्त्रित वर्ण, वर्णनियन्त्रित आश्रम और वर्णाश्रम नियन्त्रित कर्मव्यवस्था
सनातनधर्मकी अपूर्वता है। स्वाधिकारानुरूप कर्मसम्पादनसे सिद्धि, सुख और परांगतिकी
निष्पन्नता वर्णाश्रमव्यवस्थाका फल है। वर्णाश्रम वह दार्शनिक और वैज्ञानिक व्यवस्था है,
जहाँ हर व्यक्तिको सम्मान, सुविधा, और सुखद जीवन सुलभ है। समस्त भेदोंके मूलमें
प्रतिष्ठित निर्भेदात्मतत्त्वके अधिगम और भेदोपयोगमें दक्षता वर्णाश्रमव्यवस्थाकी अनुपम अपूर्वता है।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीति और अध्यात्म” पृष्ठ संख्या ७९-८०
विद्या, बल, धन और सेवाबलमें परस्पर समन्वय
“ब्राह्मणोंमें विद्या (सरस्वती)की, क्षत्रियोंमें सैन्य बल (शक्ति)की, वैश्योंमें धन (सम्पत्ति) और शूद्रोंमें सेवाकी प्रतिष्ठा होती है। विद्यासे नियन्त्रित और समन्वित बल, विद्या और बलसे नियन्त्रित और समन्वित धन तथा विद्या, बल और धनसे नियन्त्रित एवम् समन्वित सेवासे सर्वहित सुनिश्चित है।”
“जब विद्यापर बलका वर्चस्व होता है अर्थात् शिक्षातन्त्रमें प्रतिष्ठित विद्यापर शासनतन्त्रमें प्रतिष्ठित शक्तिका आधिपत्य होता है, तब समाजमें विप्लवका वातावरण छा जाता है। जब विद्या और बलपर व्यापारतन्त्रमें प्रतिष्ठित धन-सम्पत्तिका वर्चस्व होता है, तब समाजमें अति विप्लव होने लगता है। जब विद्या, बल, और धनपर श्रमिकवर्गमें सन्निहित सेवाका वर्चस्व (शासन) होता है, तब विश्व विनाशकी विभीषिकासे सन्तप्त होने लगता है।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीति और अध्यात्म” पृष्ठ संख्या ३६
जीविका जन्मसे आरक्षित
“सनातन धर्ममें सबकी जीविका जन्मसे आरक्षित है। आरक्षणकी वर्तमान परियोजना उभयपक्षकी प्रतिभा और प्रगतिका अवरोधक है। आरक्षणमें अधिकृत तथा सम्भावित व्यक्तियोंकी अपेक्षा स्थानकी अल्पताके कारण वर्तमान आरक्षणका प्रकल्प प्रायोगिक भी नहीं है। अनधिकृत व्यक्ति तथा वर्गमें प्रतिशोधकी भावना व्याप्त है। अत एव आरक्षणकी क्रियान्वित विधा राष्ट्रकी परतन्त्रता तथा विपन्नताका प्रबल प्रकल्प है।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “सूक्तिसुधा” पृष्ठ संख्या ३७
वर्णव्यवस्थाके व्यत्यासके फलस्वरूप सम्भावित विप्लव
“सनातन वर्णव्यवस्थामें जन्मसे सबकी जीविका सुरक्षित है तथा वंशपरम्परागत जीविकोपार्जनकी दक्षतासे सम्पन्न जन्म भी जीविकोपार्जनमें उपयोगी है।”
“नीति तथा अध्यात्मसमन्वित परम्पराप्राप्त शिक्षातन्त्रके अधीन शासनतन्त्र, शासनतन्त्र के अधीन वाणिज्यतन्त्र और सेवातन्त्र सर्वसुखप्रद है। जबकि श्रमिक – सेवकतन्त्रके अधीन वाणिज्यतन्त्र, वाणिज्यतन्त्रके अधीन शासनतन्त्र तथा शासनतन्त्रके अधीन शिक्षातन्त्रके कारण विप्लवपूर्ण वातावरण और विश्वयुद्धकी विभीषिका सुनिश्चित है। अतः वर्णव्यवस्थाके व्यत्यास (उलटफेर) के फलस्वरूप समप्राप्त तथा सम्भावित विप्लवको निरस्त करनेकी आवश्यकता है।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १३७-१३८