सत्पुरुषोंसे एक निवेदन
कुछ लोग कहते हैं कि उपासना या ज्ञान तो मनकी चीज है। सब कुछ गड़बड़ होनेपर भी महात्मा या विद्वान् को इन टंटोंसे दूर रहकर भजन ही करना चाहिये। ठीक है, परन्तु शास्त्र एवम् धर्म-स्थान नष्ट हो जानेपर विद्वानों या महात्माओंका शण्डामर्कके तुल्य सरकारीकरण हो जानेपर भजन करनेका, धार्मिक होनेका मन भी कैसे बन सकेगा ? आखिर धार्मिक, आध्यात्मिक भावनाओंसे ओतप्रोत मन भी तो शास्त्रों एवम् सत्पुरुषोंकी कृपासे ही बनता है, बिना शास्त्रादिके वैसा मन भी नहीं बन सकता है।
यदि प्रह्लादने भी यही सोचा होता कि चलो पितासे विवाद कौन करे ? मनमें ही रामनाम जपते रहेंगे, ऊपरसे पिताकी ही बात मान लें तो आज कोई राम-नाम लेनेवाला रह सकता था ? परन्तु जब सच्चाईके साथ प्रह्लादने अपने जीवनको संकटमें डालकर भी सिद्धान्तकी रक्षा की, तभी संसारमें सिद्धान्तकी स्थिरता रह सकती है।
इस तरह विद्वान् एवम् महात्मा राजतन्त्र शासनमें भी राजनीतिमें हस्तक्षेप करते थे, फिर अब तो जनतन्त्र-शासन है। इस सिद्धान्तके अनुसार तो शासनकी सर्वोच्च सत्ता जनतामें ही निहित होती है। अतः वास्तविक राजा जनता ही होती है, अतः राजनीतिक दक्षता सम्पादन करना प्रत्येक व्यक्तिका परम कर्तव्य है, फिर तो जनताके धन एवम् धर्मकी रक्षाका उत्तरदायित्व जनतापर ही होता है। इसलिए जनताके प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य होता है कि वह उदारता, गम्भीरता और दक्षताके साथ राष्ट्र एवम् धर्मका हिताहित देखकर कर्तव्यका निर्धारण एवम् पालन करे।
जहाँ न राजतन्त्र हो, न जनतन्त्र हो; किन्तु अधिनायकतन्त्र डिक्टेटरशिप हो, वहाँपर तो विशिष्ट दक्ष राजनीतिज्ञ विद्वानों एवम् महात्माओंके सिवा दूसरा कोई कुछ कर ही नहीं सकता है। जनताका संग्रह, उसे प्रोत्साहन देना एवम् क्रान्तिके लिये उसे तैयार करना भी राजनीतिज्ञोंके ही वश की बात है। ऐसे समयमें धर्म एवम् धर्मशास्त्रोंकी रक्षाके लिये विद्वानोंको सामने आना पड़ता है। इसी अभिप्रायसे कहा गया है—
स्थापयध्वमिमं मार्गं प्रयत्नेनापि हे द्विजा:।
स्थापिते वैदिके मार्गे सकलं सुस्थिरं भवेत्।।
(सूतसंहिता — ज्ञानयोगखण्ड (२) २०. ५४)
विद्वानोंको वैदिक-धर्मकी स्थापनाके लिये सुदृढ़ प्रयत्न करना चाहिये। वैदिक-धर्मके स्थिर होने पर सब कुछ स्थिर हो जायगा। यहीं यह भी कहा गया है कि ‘जो समर्थ होनेपर भी सर्वप्रकारसे धर्मरक्षार्थ प्रयत्नशील नहीं होता, वह पापका भागी होता है।’ माता-पिताके, गुरुजनोंके या जनसमूहके धन-धर्म एवम् प्राणोंका विनाश हो रहा हो, कोई समर्थ पुरुष बैठे-बैठे तमाशा देखे, कुछ प्रयत्न न करे, यह प्रत्यक्ष ही पाप है—
यश्च स्थापयितुं शक्तौ नैव कुर्याद् विमोहितः।
तस्य हन्ता न पापीयानिति वेदान्तनिर्णयः।।
(सूतसंहिता — ज्ञानयोगखण्ड (२) २०. ५५)
किन्तु जो समर्थ न होनेपर भी यथाशक्ति धर्मशास्त्र-मर्यादाकी रक्षाके लिये प्रयत्न करता है, वह उसी पुण्यके प्रभावसे सब पापोंसे मुक्त होकर सम्यक् ज्ञानका भागी होता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि यम कहे जाते हैं। यह निवृत्तिमार्गानुसारियोंके लिये बड़े ही महत्त्वके हैं। शौच, सन्तोष, स्वाध्याय आदिमें कुछ गड़बड़ी क्षम्य भी हो सकती है, परन्तु यमके सेवनमें तो पूर्ण तत्परता होनी चाहिये। इसीलिये कहा गया है— ‘यमान् सेवेत सततं नियमान् मत्परः क्वचित्’ (श्रीमद्भागवत) यमोंका सेवन सर्वदा ही करना चाहिये। नियमोंमें सातत्य न होनेपर भी काम चल सकता है।
अहिंसा आदिका अभिप्राय है — मनसा-वाचा-कर्मणा प्राणिरक्षण करना, प्राणियोंको पीड़ा न पहुँचाना। यही लोकरक्षण, प्राणिरक्षण, धर्मरक्षण राजनीतिका मुख्य लक्ष्य है, यही क्षत-त्राण है। इसी कारण महात्माओं की इन कार्योंमें प्रवृत्ति होती थी। कालकवृक्षीय-जैसे अरण्यवासी, चाणक्य-जैसे बालब्रह्मचारी, समर्थ स्वामी-जैसे निवृत्तिनिष्ठ लोग भी इस काममें संलग्न हुए। फिर भले ही इस काममें सफलता मिले अथवा न मिले, समुचित प्रयत्न कभी निष्फल नहीं होता। उसका अदृष्ट फल तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है, तभी तो भगवान् कृष्णने कहा था। —
यः स्थापयितुमुद्युक्तः श्रद्धयैवाक्षमोऽपि सन्।
सर्वपापविनिर्मुक्तः सम्यग् ज्ञानमवाप्नुयात्।।
(सूतसंहिता — ज्ञानयोगखण्ड (२) २०. ५६)
धर्मकार्यं यतञ्छक्त्या नो चेत् प्राप्नोति मानवः।
प्राप्तो भवति तत् पुण्यमत्र मे नास्ति संशयः।।
(महाभारत — उद्योगपर्व ९३. ६)
इन सब बातोंसे स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान दुरवसरपर जबकि जनताके धन-धर्मपर संकट उपस्थित है, विशिष्ट विद्वानों, महात्माओं तथा धार्मिक सद्-गृहस्थोंको भी राजनीतिसे न डरकर आगे आना चाहिये और धर्म-रक्षणके लिये जो भी आवश्यक कार्य हो करना चाहिये। परिणाम निश्चयेन शुभ-मंगलमय ही होगा। शिवमिति दिक्।
— धर्मसम्राट् पूज्य स्वामीश्री करपात्रीजी महाराज
द्वारा लिखित
पुस्तक “मार्क्सवाद और रामराज्य” पृष्ठ संख्या ११४० – ११४२
जब देशकी स्थिति विषम हो, तब क्या करें ?
वर्तमान परिस्थिति उपेक्षा करने योग्य नहीं है। रावण माना कि दुष्ट था, लेकिन उसके शासन पर जब आँच आई, तो सोए हुए कुम्भकरण को भी जगाना ही पड़ा। इससे सिद्ध होता है, चाहे कोई निर्विकल्प समाधिमें अवस्थित हो, चाहे वस्तुतः अर्थ और काममें लिप्त हो, चाहे कोई निद्रा का आस्वादन ले रहा हो, चाहे कोई निभृत निकुंजका चिंतन कर रहा हो – इन सब पर भी आघात पड़ सकता है, जब राष्ट्रमें विप्लवकी परिस्थिति आती है। इसलिए केवल धन और मानके पीछे ना पड़ के, देशकी परिस्थितिको समझकर, और साधु संतोंका ब्राह्मणोंका, यहाँ आए हुए प्रत्येक व्यक्तिका पवित्र दायित्व होता है कि अपने प्रति कर्तव्यका पालन करें और राष्ट्रको उचित मार्गदर्शन प्रदान करें; नहीं तो देशकी स्थिति बहुत विषम होती जा रही है, इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
The present situation doesn’t deserve to be ignored. Even though Ravan was evil, when his rule was in danger, even deep-sleeping Kumbhakaran had to be awakened. This shows that whether someone is in Nirvikalp Samadhi, or is actually involved in earning wealth & seeking pleasure, or is contemplating on Divine Leela, or is just enjoying plain sleep – all of them can also be affected when a troublesome situation arises in the nation. Therefore, instead of running after money and respect, every person who has come here – sages, saints, Brahmins – it is their sacred duty to understand the situation and provide proper guidance to the nation; otherwise the situation of the nation will continue to deteriorate, which shouldn’t be ignored.
— श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती महाभाग, सन् 1986 का वक्तव्य
राजनीतिमें किसका अधिकार ?
कई लोग कहते हैं कि विद्वानों, महात्माओंको राजनीतिमें नहीं पड़ना चाहिये, परन्तु राजनीतिका विद्वान् होना चाहिये। वे समारोहके साथ सिद्ध करनेकी चेष्टा करते हैं कि राजनीतिका विद्वान् होना ही विद्वान् का अन्तिम कृत्य है, पर प्रत्यक्ष राजनीतिमें भाग लेना नहीं। वे समर्थ रामदास और चाणक्यकी प्रशंसा करते हुए भी उनके कर्तृत्वको दुर्लक्ष्य करते हैं। वे लोग ‘मज्जेत् त्रयी दण्डनीतौ हतायाम्’ (महाभारत, शान्तिपर्व ६३. २८) का भी यही अर्थ करते हैं कि ‘राजनीतिके जाने बिना त्रयी डूब जाती है।’ पर ‘दण्डनीति’ का ‘दण्डनीतिज्ञान’ अर्थ करना असंगत है। वे इस बातपर ध्यान नहीं देते कि ब्रह्मज्ञानसे भिन्न सभी ज्ञान परांग ही होते हैं, स्वतन्त्र नहीं। भट्टपादकुमारिलका स्पष्ट कहना है कि ‘सर्वत्रैव हि विज्ञानं संस्कारत्वेन गम्यते। पराङ्ंग चात्मविज्ञानादन्यमित्यवधार्यताम्।।’ (तन्त्रवार्तिक)
पीछे कहा गया है कि सक्रिय विद्वानोंसे ही राजाको आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता एवम् दण्डनीतिका विचार करना चाहिये — ‘तद्विद्यैस्तत्क्रियोपेतैश्चिन्तयेत्।’ (का० नील २. १)
ब्रह्मात्मविज्ञान तो स्वसत्तामात्रसे अविद्या, तत्कार्यका निवर्तक होनेसे पुरुषार्थरूप है। ऐसे कतिपय स्थलोंको छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र ही ज्ञान कर्तृत्वके बिना सफल नहीं होता। ‘जानाति इच्छति अथ करोति’ यह क्रम प्रसिद्ध है। जाननेसे इच्छा होती है, इच्छासे क्रिया होती है। ‘य: क्रियावान् स पण्डित:’ (सुभा० म०) की कहावत प्रसिद्ध ही है। प्रयोगहीन शिल्पविज्ञान एवम् शस्त्रादि-विज्ञानके तुल्य प्रयोगहीन राजनीति-विज्ञान भी व्यर्थ ही रहता है। क्रियाहीन तर्क-वितर्क एवम् ज्ञान-विज्ञान, बुद्धि-व्यवसायमात्र ही रह जाता है।
रावणके समयमें ज्ञान-विज्ञानवाले ऋषियोंकी कमी न थी। फिर ऋषियोंका वध चालू था। रक्तघटका उपहार देनेपर भी रावणको सन्तोष नहीं हुआ था। ऋषियोंकी अस्थियोंका पहाड़ लग गया था।
अस्थि समूह देखि रघुराया।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया।।
(रामचरितमानस ३. ९. ६)
निसिचर निकर सकल मुनि खाए।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए।।
(रामचरितमानस ३. ९. ८)
उस समय विश्वामित्रकी सक्रिय राजनीति ही सफल हुई। उसीके द्वारा राम मैदानमें आये और दुष्टोंका दर्प-दलन करके त्रयी-धर्मकी रक्षा एवम् साधु-सत्पुरुषोंका पोषण किया। हाँ, जहाँ राजनीतिके योग्य प्रयोक्ता एवम् प्रयोग-साधन ठीक उपलब्ध हों, वहाँ विद्वान् केवल उपदेशमात्र कर सकता है; परन्तु जहाँ प्रयोक्ता, प्रयोग-साधन नहीं, वहाँ उनका अन्वेषण एवम् निर्माण भी विद्वान् का ही काम है। राजाके अभावमें यह सब उत्तरदायित्व विद्वान् पर ही आता है। ‘चाणक्य’ ने यही सब किया था, समर्थ रामदासने भी यही किया। शुक्र, बृहस्पति आदि भी अनेक ढंगसे सक्रिय राजनीतिका प्रवर्तन करते थे। हाँ, विद्वान् राज्याधिकारके प्रलोभनमें न पड़े, यह अवश्य ठीक है। अतः ठीक राजनीति बिना त्रयी एवम् तत्प्रोक्त धर्म संकटग्रस्त हो जाता है।
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून्।
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वा: परिददे प्रजा:।।
(मनुस्मृति ९. ३२७)
प्रजापतिने सृष्टि रचकर वैश्योंको पशु दिया, ब्राह्मण एवम् राजाको सारी प्रजा दी। अतः राजाके अभावमें विद्वानोंपर सर्वाधिक भार आता है। विद्वान् आस्तिक सद्गृहस्थ एवम् साधु-सत्पुरुषोंके बिना राजनीति सर्वथा उच्छृंखल लोगोंके हाथमें चली जाती है, फिर तो गुंडागर्दीका ही शासन होने लगता है। अतः धार्मिक लोगोंके प्रवेशसे ही समस्या हल हो सकती है। यह ठीक है कि ‘सच्छिक्षा एवम् सद्विद्याके प्रचारसे सद्बुद्धि होती है, सद्बुद्धिसे सदिच्छा एवम् सदिच्छासे सत्प्रयत्न होता है और सत्प्रयत्नही सब प्रकारके सत्फलोंका स्रोत होता है।
परन्तु आज तो शिक्षा भी स्वतन्त्र विद्वानोंके हाथमें नहीं है। जिस विचारके शासक हैं, उसी विचारका समर्थन करनेवाली आजकी शिक्षा बनती जा रही है। स्वतन्त्र विद्वान्, स्वतन्त्र विद्यालय एवम् उनके छात्र भी सरकारी-शिक्षाके प्रभावसे स्पष्ट ही प्रभावित हैं। कथावाचक, मण्डलेश्वर आदि भी उसी ढंगकी कथा कहनेमें लाभका अनुभव करते हैं। घोर नास्तिक उच्छृंखल मिनिस्टरों, सरकारी पदाधिकारियोंकी भी विद्वान्, महन्त, मण्डलेश्वर प्रशंसा करते फिरते हैं। इस दृष्टिसे नास्तिकोंके हाथसे राजनीतिका उद्धार करने योग्य, धार्मिक, सुशील लोगोंके हाथमें राजनीति लानेले लिये विद्वान् का प्रयत्न अत्यावश्यक है ही। महाभारतका स्पष्ट वचन है——
क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात् प्रवृत्त: पश्चादन्ये शेषभूतश्च धर्मा:।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ६४. २१)
परमेश्वरसे सर्वप्रथम राजधर्मका ही आविर्भाव हुआ। उसके पीछे राजधर्मके अंगभूत अन्य धर्मोंका प्रादुर्भाव हुआ। अतः राजधर्म — राजनीतिके नष्ट होनेपर त्रयीधर्मके डूब जानेकी बात आती है। अराजकता या उच्छृंखल राजाके धर्महीन अधार्मिक राज्यमें कोई धर्म पनप ही नहीं सकता। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा विश्वके लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय एवम् निःश्रेयसके सम्पादनमें होनेवाले सब प्रकारके विघ्नोंको रोककर सब प्रकारकी सुविधा उपस्थित करना भारतीय राजधर्म, राजनीति या क्षात्र-धर्मका मूलमन्त्र है।
भले ही कभी राजनीति राजाओं, राजमन्त्रियों एवम् राजकीय पुरुषोंतक ही सीमित रहे, उसमें सर्वसाधारणका प्रवेश आवश्यक भी न ठहरे, तब भी विशिष्ट विद्वानोंके लिये तो कभी भी राजनीति उपेक्ष्य नहीं रही है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा विश्वको लौकिक-पारलौकिक विनाशसे बचाना, उनको अभ्युदय निःश्रेयस-प्राप्तिसे वंचित होनेसे बचाना क्षात्र या राजाका धर्म है। वही क्षात्रधर्म है, वही राजनीति है। इसीलिये राजाकी प्रशंसा है——
‘नराणां च नराधिपम्’ (श्रीमद्भगवद्गीता १०. २७) ‘नाविष्णु: पृथिवीपति:।’ (दे० भा०)
‘महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति।’ (मनुस्मृति ७. ८)
’राजा ईश्वररूप है, नरोंमें नराधिप ईश्वरीय विभूति है, विष्णुसे अतिरिक्त पृथ्वीपति नहीं हो सकता, वह कोई मनुष्यरूपमें विशेष दिव्य शक्ति है इत्यादि।’ इस प्रकारके राजधर्मका पालन श्रुताध्ययनसम्पन्न धर्मज्ञ, सत्यवादी, रागद्वेषविहीन विद्वानोंकी सहायता बिना राजा भी नहीं कर सकता। इसीलिए राजाके लिये आवश्यक है कि वह ऐसे विद्वानोंको अपना सभासद् बनाये——
श्रुताध्ययनसम्पन्ना धर्मज्ञा: सत्यवादिन:।
राज्ञा सभासद: कार्या रिपौ मित्रे च ये समा:।।
(याज्ञवल्क्यस्मृति २. २)
शासनारूढ़ शासककी भूल प्रमादको रोकनेके लिये परम निरपेक्ष विरक्त विद्वान् भी लोककल्याण-कामनासे राजनीतिमें हस्तक्षेप करते थे। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वेन-जैसे अन्यायी राजाको, जो समझाने-बुझानेसे भी न माने, शासनाधिकारसे च्युत या नष्ट भी कर देते थे एवम् उनके स्थानमें पृथु-जैसे योग्य शासकको प्रतिष्ठित करते थे। यह भी लोक-कल्याणार्थ विद्वानोंके राजनीतिमें हस्तक्षेपका उदाहरण है।’
‘इतिहास’ बतलाता है कि संसारके प्रमुख राजनीतिज्ञ शासकोंने अपनी राजनीतिकी बागडोर तप:पूत, लोक-हितैषी, राग-द्वेषविहीन ऋषियोंके ही हाथमें दे रखी थी। देवराज इन्द्रकी राजनीति देवगुरु बृहस्पतिके हाथमें थी, दैत्यराज बलिकी राजनीति महर्षि शुक्राचार्यके हाथमें थी तथा रामचन्द्रकी राजनीति वसिष्ठके हाथमें थी। धर्मराज युधिष्ठिरकी राजनीति धौम्य, व्यास, कृष्ण, विदुर आदिके हाथमें थी। चन्द्रगुप्तकी राजनीति महर्षि चाणक्यके हाथमें थी तथा शिवाकी राजनीति भी समर्थ रामदासके हाथमें थी।
वस्तुतः जैसे बिना अंकुशके हस्ती, बिना लगामके घोड़ा आदि हानिकारक होते हैं, वैसे ही अंकुश एवम् नियन्त्रणके बिना शासन भी हानिकारक होता है। राज्यश्रीसम्पन्न राजापर भी अंकुश होना ही चाहिये। इसी अर्थमें राजापर धर्मका नियन्त्रण होना चाहिये। यही बृहदारण्यक ‘क्षत्रस्य क्षत्रम्’ (१. ४. १४) के अनुसार धर्मनियन्त्रित राजधर्मका सिद्धान्त है। धर्म-कर्म, संस्कृति, धर्मसंस्थाकी रक्षा तभी हो सकती है, जब धर्म-नियन्त्रित शासक हो। अन्यथा उच्छृंखल शासक सबको ही चौपट कर देता है।
— धर्मसम्राट् पूज्य स्वामीश्री करपात्रीजी महाराज
द्वारा लिखित
पुस्तक “मार्क्सवाद और रामराज्य” पृष्ठ संख्या ११३६ – ११४०
राजनैतिक-विप्लुतस्य अनन्तरम्
राजनीतिके अयोग्यों, नास्तिकोंके हाथमें जाते ही विद्वानोंके ही मुँह बन्द हो जाते हैं। शुक्राचार्यके पुत्र शण्डामर्क-जैसे योग्य विद्वान् भी हिरण्यकशिपु-जैसोंको ही ईश्वर बतलाने लगते हैं। वे किसी अयोग्य शासकको भी ‘त्वमर्कस्त्वं सोमः’ (शिवमहिम्न०) कहने लगते हैं। शासकोंसे भयभीत विद्वान् स्पष्ट सत्य कहने में हिचकने लगते हैं। आचार्य, साधु-सन्त भी या तो चुप साध लेते हैं या सरकारी साधु-समाजमें प्रविष्ट होकर ईश्वर-गुणगानके बदले सरकारका गुणगान करने लगते हैं। गोहत्या, धर्म-हत्या, शास्त्र-हत्या जैसे जघन्य कृत्योंको होते देखकर भी वे मौन रह जाते हैं और इन सबके प्रवर्तक, प्रेरक सरकारका गुणगान करते हैं।
रावणकी मायासे बने अनेकों हनुमान् देखकर जैसे बन्दर भ्रममें पड़ गये कि इनमेंसे कौन रामके हनुमान् हैं, कौन रावणके हनुमान्, उसी तरह जनता भी भ्रममें पड़ जाती है कि कौन रामके साधु-सन्त हैं और कौन सरकारी साधु-सन्त ? शास्त्र एवम् धर्मके नियन्त्रणशून्य उच्छृंखल शासक जनताके धर्मके साथ धनका भी अपहरण कर लेते हैं। राष्ट्रियकरण, समाजीकरण आदि नामोंसे जनताकी व्यक्तिगत भूमि-सम्पत्ति आदि छीन लेते हैं। जनताके व्यक्ति शासनयन्त्रके नगण्य पुर्जे बन जाते हैं। शासन-यन्त्र तानाशाह शासकोंके हाथका खिलौना बन जाता है। उच्छृंखल शासकोंकी इच्छा ही कानून-कायदा बन जाती है। सनातन सत्य, न्याय, विवेक, शास्त्र — सब लुप्त हो जाते हैं। धनहीन होनेके कारण जनतामें ऐसे शासनके विरोधकी भी शक्ति नहीं रह जाती।
आजके सरकारी साधुसमाजका यह प्रस्ताव कि ‘साधु-समाज गोहत्याबन्दी आन्दोलनका समर्थन नहीं कर सकता; क्योंकि वह ऐसे अपराधी साधुओंद्वारा चलाया गया है, जिनसे साधु-समाजकी सत्ताको बहुत ठेस पहुँची है’ आँख खोल देनेवाला है। विश्वनाथमन्दिर-हरिजनप्रवेश, हिन्दू-विवाह, तलाक आदि प्रश्नोंपर सरकारी साधुओं एवम् सरकारी पण्डितोंका चुप रहना भी एक विचित्र बात है। आचार्य कहे जानेवाले लोगोंकी भीषण निद्रा या जान-बूझकर आँख मीचनेकी बात भी इसी ओर संकेत करती है कि राजनीतिक विप्लुत होनेके बाद सब विद्याएँ व्यर्थ हो जाती हैं।
— धर्मसम्राट् पूज्य स्वामीश्री करपात्रीजी महाराज
द्वारा लिखित
पुस्तक “मार्क्सवाद और रामराज्य” पृष्ठ संख्या ११३५ – ११३६