कालज्ञाता पार्थिवानां वरिष्ठ:
कालेनान्यस्तस्य मूलं हरेत कालज्ञाता पार्थिवानां वरिष्ठ:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १२०. ३९)

“शत्रु बाल, युवक अथवा वृद्ध ही क्यों न हो, सदा सावधान न रहनेवाले मनुष्यका नाश कर डालता है। अन्य कोई धनसम्पन्न शत्रु अनुकूल समयका सहयोग पाकर राजाकी जड़ उखाड़ सकता है। अत एव जो समयको जानता है, वही राजाओं में श्रेष्ठ है।।“
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३०
षड्गुण
सन्धिश्च विग्रहश्चैव यानमासनमेव च।
द्वैधीभाव: संश्रयश्च षड्गुणा: परिकीर्त्तिता:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व २३४. १७)
“किसी शर्तपर समकक्ष या प्रबल शत्रुसे सामञ्जस्य ‘सन्धि’ है। युद्धादिके द्वारा उसे हानि पहुँचाना ‘विग्रह’ है। विजयाभिलाषी राजा जो शत्रुके ऊपर चढ़ाई करता है, वह यात्रा या ‘यान’ है। विग्रह छेड़कर अपने ही देशमें रहना ‘आसन’ है। आधी सेनाको किलेमें छिपाकर आधी सेनाके साथ युद्धकी भावनासे यात्रा करना ‘द्वैधीभाव’ है। असमर्थताकी दशामें लाभकी सम्भावना होने पर उदासीन अथवा मध्यम राजाकी शरणागति ‘संश्रय’ है।“
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२८
बुद्धे: पश्चात् कर्म यत्तत् प्रशस्तम्
प्रत्यक्षेणानुमानेन तथौपम्यागमैरपि।
परीक्ष्यास्ते महाराज स्वे परे चैव नित्यश:।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ५६. ४१)
“महाराज ! प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम — इन चारों प्रमाणोंके द्वारा सदा अपने – परायेकी पहचान करते रहना चाहिये।।”
प्रत्यक्षनुमानं च सर्वेषां योनिरिष्यते।
प्रमाणज्ञो हि शक्नोति दण्डनीतौ विचक्षण:।।
अप्रमाणवतां नीतो दण्डो हन्यान्महीपतिम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २४. दा०)
“इनमेंसे प्रत्यक्ष और अनुमान — ये दो सबके लिये निर्णयके आधार माने गये हैं। प्रत्यक्षादि प्रमाणोंको जाननेवाला पुरुष दण्डनीतिमें कुशल हो सकता है। जो प्रमाणशून्य हैं, उनके द्वारा प्रयोगमें लाया गया दण्ड राजाका विनाश कर सकता है।।”
तर्कशास्त्रकृता बुद्धिर्धर्मशास्त्रकृता च या।
दण्डनीतिकृता चैव त्रैलोक्यमपि साधयेत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २४. दा०)
“तर्कशास्त्र, धर्मशास्त्र और दण्डनीतिसे परिष्कृत — बुद्धि तीनों लोकोंकी भी सिद्धि कर सकती है।।”
आन्वीक्षिकीत्रयीवार्तादण्डनीतिषु पारगा:।
ते तु सर्वत्र योक्तव्यास्ते च बुद्धे: परं गता:।
गुणयुक्त्तेऽपि नैकस्मिन् विश्वसेत विचक्षण:।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २४. १८)
“आन्विक्षिकी (वेदान्त), वेदत्रयी, वार्ता तथा दण्डनीतिके जो पारङ्गत विद्वान् हों, उन्हें सब कार्योंमें नियुक्त करना चाहिये; क्योंकि वे बुद्धिकी पराकाष्ठाको पहुँचे हुए होते हैं। एक व्यक्ति कितना ही गुणवान् क्यों न हों, विद्वान् पुरुषको केवल उसपर विश्वास कर उसीके भरोसे नहीं रहना चाहिये।।”
बुद्धिर्दीप्ता बलवन्तं हिनस्ति बलं बुद्ध्या पाल्यते वर्धमानम्।
शत्रुर्बुद्ध्या सीदते वर्धमानॊ बुद्धेः पश्चात् कर्म यत्तत् प्रशस्तम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १२०. ४२)
“प्रतिभाशालिनी बुद्धि बलवान् को भी पछाड़ देती है। बुद्धिके द्वारा नष्ट होते हुए बलकी भी रक्षा होती है। बढ़ता हुआ शत्रु भी बुद्धिके द्वारा परास्त होकर कष्ट उठाने लगता है। बुद्धिसे सोचकर पीछे जो कर्म किया जाता है, वह सर्वोत्तम है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२२-२२४
राज्यं पण्यं न कारयेत्
तरसा बुद्धिपूर्वं वा निग्राह्या एव शत्रव:।
पापै: सह न संदध्याद् राज्यं पण्यं न कारयेत्।।
(महाभारत-शान्तिपर्व २४. १६)
“शत्रुओंको बल
और बुद्धिसे अपने वशमें
कर ही लेना चाहिये। पापियोंके साथ
कभी मेल नहीं करना चाहिये।
अपने राज्य (राष्ट्र) को बाजारका
सौदा नहीं बनाना चाहिये।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३३