राज्ञः व्यवहारः

आर्जवं सर्वकार्येषु श्रयेथाः कुरुनन्दन।
पुनर्नयविचारेण त्रयीसंवरेण च।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ५६. २०)
“कुरुनन्दन! तुम सब कार्योंमें सरलता तथा कोमलताका आश्रय लेना; परन्तु नीतिशास्त्रकी समीक्षासे यह ज्ञान होता है कि अपने छिद्र, अपनी मन्त्रणा और अपने कार्यकौशल — इन तीनों तथ्योंको गुप्त रखनेमें सरलताका परिचय देना उचित नहीं है।।”
मृदुर्हि राजा सततं लङ्घयो भवति सर्वशः।
तीक्ष्णाच्चॊद्विजते लॊकस्तस्मादुभयमाश्रय।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ५६. २१)
“जो राजा सदा सब प्रकारसे कोमलतापूर्ण बर्ताव करने वाला होता है, उसकी आज्ञाका लोग उल्लङ्घन करते हैं, और जो केवल कठोर बर्ताव करनेवाला होता है उससे सब लोग उद्विग्न हो जाते हैं। अतः तुम यथोचित कोमलता तथा कठोरताका आश्रय लो।।”

तस्मान्नैव मृदुर्नित्यं तीक्ष्णॊ वापि भवेन्नृपः।
वासन्तार्क इव श्रीमान् न शीतॊ न च घर्मदः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ५६. ४०)
“जैसे वसन्त ऋतुका तेजस्वी सूर्य न तो अधिक ठंडक पहुँचाता है और न कड़ी धूप ही करता है, वैसे ही राजाको न अधिक कोमल होना चाहिये, न अधिक कठोर ही।।”
क्षममाणं नृपं नित्यं नीचः परिभवेज्जनः।
हस्तियन्ता गजस्यैव शिर एवारुरुक्षति।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ५६. ३९)
“नीच मनुष्य क्षमाशील राजाका सदा वैसे ही तिरस्कार करते रहते हैं, जैसे हाथीका महावत उसके सिरपर ही चढ़े रहना चाहता है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १९३ – १९४
अविश्वासॊ नरेन्द्राणां गुह्यं परममुच्यते
विश्वासयेत् परांश्चैव विश्वसेच्च न कस्यचित्।
पुत्रेष्वपि राजेन्द्र विश्वासॊ न प्रशस्यते।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८५. ३३)
“राजा दूसरोंके मनमें अपने ऊपर विश्वास उत्पन्न करे; परन्तु स्वयं किसीका भी विश्वास न करे। राजेन्द्र! अपने पुत्रोंपर भी पूरा – पूरा विश्वास करना प्रशस्त (श्रेयस्कर) नहीं है।”

एतच्छास्त्रार्थतत्त्वं तु मयाख्यातं तवानघ।
अविश्वासॊ नरेन्द्राणां गुह्यं परममुच्यते।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८५. ३४)
“हे निष्पाप ! यह नीतिशास्त्रका तत्त्व है, जिसे मैंने तुम्हें बताया। किसीपर भी पूरा विश्वास न करना नरेशोंका परम गोपनीय गुण बताया जाता है।।”
असभ्याः सभ्यसंकाशाः सभ्याश्चासभ्यदर्शना:।
दृश्यन्ते विविधा भावास्तेषु युक्तं परीक्षणम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १११. ६५)
“संसारमें बहुत-से असभ्य सभ्य – सदृश तथा सभ्य असभ्य – सदृश दृष्टिगोचर होते हैं। इस तरह अनेक भाव परिलक्षित होते हैं; अतः उनकी परीक्षा उचित है।।”

तलवद् दृश्यते व्यॊम खद्यॊतॊ हव्यवाडिव।
न चैवास्ति तलं वयॊम्नि खद्यॊते न हुताशनः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १११. ६६)
“आकाश औंधी की हुई कड़ाहीके तले (भीतरी भाग) के समान दिखायी देता है और जुगनू अग्निके सदृश दृष्टिगोचर होता है; परन्तु न तो आकाशमें तल है और न जुगनूमें अग्नि ही है।।”
तस्मात् प्रत्यक्षदृष्टॊऽपि युक्तो ह्यर्थः परीक्षितुम्।
परीक्ष्य ज्ञापयन्नर्थान्न पश्चात् परितप्यते।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १११. ६७)
“इसलिये प्रत्यक्ष दिखायी देनवाली वस्तुकी भी परीक्षा उचित है। जो परीक्षा लेकर भले – बुरेका निर्णयकर किसी कार्यके लिये आज्ञा देता है, उसे पीछे पछताना नहीं पड़ता।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १९४ – १९६
पुत्रेष्वपि राजेन्द्र विश्वासॊ न प्रशस्यते।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८५. ३३)
“राजा दूसरोंके मनमें अपने ऊपर विश्वास उत्पन्न करे; परन्तु स्वयं किसीका भी विश्वास न करे। राजेन्द्र! अपने पुत्रोंपर भी पूरा – पूरा विश्वास करना प्रशस्त (श्रेयस्कर) नहीं है।”

एतच्छास्त्रार्थतत्त्वं तु मयाख्यातं तवानघ।
अविश्वासॊ नरेन्द्राणां गुह्यं परममुच्यते।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८५. ३४)
“हे निष्पाप ! यह नीतिशास्त्रका तत्त्व है, जिसे मैंने तुम्हें बताया। किसीपर भी पूरा विश्वास न करना नरेशोंका परम गोपनीय गुण बताया जाता है।।”
असभ्याः सभ्यसंकाशाः सभ्याश्चासभ्यदर्शना:।
दृश्यन्ते विविधा भावास्तेषु युक्तं परीक्षणम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १११. ६५)
“संसारमें बहुत-से असभ्य सभ्य – सदृश तथा सभ्य असभ्य – सदृश दृष्टिगोचर होते हैं। इस तरह अनेक भाव परिलक्षित होते हैं; अतः उनकी परीक्षा उचित है।।”

तलवद् दृश्यते व्यॊम खद्यॊतॊ हव्यवाडिव।
न चैवास्ति तलं वयॊम्नि खद्यॊते न हुताशनः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १११. ६६)
“आकाश औंधी की हुई कड़ाहीके तले (भीतरी भाग) के समान दिखायी देता है और जुगनू अग्निके सदृश दृष्टिगोचर होता है; परन्तु न तो आकाशमें तल है और न जुगनूमें अग्नि ही है।।”
तस्मात् प्रत्यक्षदृष्टॊऽपि युक्तो ह्यर्थः परीक्षितुम्।
परीक्ष्य ज्ञापयन्नर्थान्न पश्चात् परितप्यते।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १११. ६७)
“इसलिये प्रत्यक्ष दिखायी देनवाली वस्तुकी भी परीक्षा उचित है। जो परीक्षा लेकर भले – बुरेका निर्णयकर किसी कार्यके लिये आज्ञा देता है, उसे पीछे पछताना नहीं पड़ता।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १९४ – १९६
दण्डवित्तमित्रराज्यशक्तिप्राप्तेः रहस्यम्।

प्राज्ञा मेधाविनॊ दान्ता दक्षाः शूरा बहुश्रुताः।
कुलीनाः सत्त्वसंपन्ना युक्ताः सर्वेषु कर्मसु।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८६. १७)
“विद्वान्, बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय, कार्यकुशल, शूर, बहुज्ञ, कुलीन तथा साहस और धैर्यसे सम्पन्न पुरुषोंको यथायोग्य समस्त कर्मोमें लगावे।।”
चरान्मन्त्रं च कॊशं च दण्डं चैव विशेषतः।
अनुतिष्ठेत् स्वयं राजा सर्वं ह्यत्र प्रतिष्ठितम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८६. २०)
“गुप्तचरोंसे मिलने, गुप्त सलाह करने, खजानेकी जाँच – पड़ताल करने तथा विशेषत: अपराधियोंको दण्ड देनेका कार्य राजा स्वयं करे; कारण यह है कि इन्हींपर सारा राज्य प्रतिष्ठित है।।”

प्राज्ञ: शूरॊ धनस्थश्च स्वामी धार्मिक एव च।
तपस्वी सत्यवादी च बुद्धिमांश्चापि रक्षति।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. ३१)
“विद्वान्, शूर, धनी, स्वामी, धार्मिक, तपस्वी, सत्यवादी तथा बुद्धिमान् मनुष्य ही प्रजाकी रक्षा करते हैं।।”
तस्मात् सर्वेषु भूतेषु प्रितिमान् भव पार्थिव।
सत्यमार्जवमक्रॊधमानृशस्यं च पालय।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. ३२)
“अतः भूपाल! तुम समस्त प्राणियोंमें प्रेम रक्खो तथा सत्य, सरलता, क्रोधहीनता तथा दयालुतादि सद्धर्मोंका पालन करो।।”

एवं दण्डं च कॊशं च मित्रं भूमिं च लप्स्यसि।
सत्यार्जवपरॊ राजन् मित्रकॊशबलान्वितः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. ३३)
“राजन्! ऐसा करनेसे तुम्हें दण्डधारणकी शक्ति, कोष, मित्र तथा राज्यकी भी प्राप्ति होगी। तुम सत्य और सरलतामें तत्पर रहकर मित्र, कोश और बलसे सम्पन्न हो जाओगे।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १९६ – १९७
राज्ञः न्यायः

आपद्येव तु याचन्ते येषां नास्ति परिग्रहः।
दातव्यं धर्मतस्तेभ्यस्त्वनुक्रॊशाद् भयान्नतु।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. २३)
“जिनके पास कुछ भी संग्रह नहीं है, वे यदि आपत्तिके समय ही याचना करें, तब उन्हें धर्म समझकर और दया करके ही देना चाहिये, किसी भय या दबावमें पड़कर नहीं।।”
मा ते राष्ट्रे याचनका भूवन्मा चापि दस्यवः।
एषां दातार एवैते नैते भूतस्य भावकाः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. २४)
“तुम्हारे राज्यमें भिखमंगे और लुटेरे न हों; क्योंकि ये प्रजाके धनको केवल छीननेवाले हैं, उनके ऐश्वर्यको बढ़ानेवाले नहीं हैं।।”

यथादेशं यथाकालं यथाबुद्धि यथाबलम्।
अनुशिष्यात् प्रजा राजा धर्मार्थी तद्धिते रतः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. २)
“धर्मकी इच्छा रखनेवाले राजाको देश और कालकी परिस्थितिका ध्यान रखते हुए अपनी बुद्धि तथा शक्तिके अनुसार प्रजाके हितसाधनमें संलग्न होकर उसे अपने अनुशासनमें रखना चाहिये।।”
मद्यमांसपरस्वानि तथा दारा धनानि च।
आहरेद् रागवशगस्तथा शास्त्रं प्रदर्शयेत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. २२)
“आसक्तिके वशीभूत हुआ मानव मांस खाता, मदिरा पीता तथा परधन और परस्त्रीका अपहरण करता है; साथ ही अन्योंको भी यही सब करनेका उपदेश देता है।।”

प्रभुर्नियमने राजा य एतान् न नियच्छति।
भुङ्क्ते स तस्य पापस्य चतुर्भागमिति श्रुतिः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. १८)
“जो राजा इन सबको नियमके अन्दर रखनेमें समर्थ होकर भी इन्हें वशमें नहीं रखता, वह इनके किये हुए पापका चौथाई भाग स्वयं भोगता है, ऐसा श्रुतिका कथन है।।”
भोक्ता तस्य तु पापस्य सुकृतस्य यथा तथा।
नियन्तव्याः सदा राज्ञा पापा ये स्युर्नराधिप।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. १९)
“नरेश्वर ! राजा जैसे प्रजाके पापका चतुर्थांश भोगता है; वैसे ही प्रजाके पुण्यका भी चतुर्थांश भोगता है। अत: राजाको चाहिये कि वह सदा पापियोंको दण्ड देकर उन्हें दबाये रक्खे।।”

प्रत्याहर्तुमशक्यं स्याद् धनं चौरैहृतं यदि।
तत् स्वकॊशात् प्रदेयं स्यादसक्तेनॊपजीवित:।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ७५. १०)
“चोरों या लुटेरोंने यदि किसीके धनका अपहरण कर लिया हो और राजा पता लगाकर उस धनको लौटा न सके तो उस असमर्थ नरेशको चाहिये कि अपने समाश्रित उसे उतना ही धन अपने राजकीय कोषसे प्रदान करे।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १९७ – १९८
राज्यस्य वृद्धिः
कृषिगॊरक्ष्यवाणिज्यं लॊकानामिह जीवनम्।
ऊर्ध्वं चैव त्रयी विद्या सा भूतान् भावयत्युत।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८९. ७)
“खेती, गोपालन और वाणिज्य —— ये इसी लोकमें लोगोंकी जीविकाके साधन हैं; परंतु वेद ऊपरके लोकोंमें भी रक्षा करते हैं। वे यज्ञोंद्वारा समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और वृद्धिमें हेतु हैं।।”

तस्यां प्रवर्तमानायां ये स्युस्तत्परिपन्थिनः।
दस्यवस्तद्वधायेह ब्रह्मा क्षत्रमथासृजत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८९. ८)
“जो उस वेद – विद्याके अध्ययन तथा अध्यापनमें अथवा वेदोक्त यज्ञ – यागादि कर्मोमें बाधा पहुँचाते हैं, वे दस्यु (डकैत) हैं। उनका वध करनेके लिये ही ब्रह्माजीने क्षत्रिय – जातिकी सृष्टि की है।।”
यः प्रियं कुरुते नित्यं गुणतॊ वसुधाधिपः।
तस्य कर्माणि सिध्यन्ति न च संत्यज्यते श्रिया।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ९३. १२)
“जो राजा अनुगत प्रजाका अपने गुणोंसे सदा प्रिय करता है, उसके सब कर्म सफल होते हैं और सम्पत्ति कभी उसका साथ नहीं छोड़ती।।”

रक्षाधिकरणं युद्धं तथा धर्मानुशासनम्।
मन्त्रचिन्ता सुखं काले पञ्चभिर्वर्धते मही।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ९३. २४)
“रक्षाके स्थान दुर्ग आदि, युद्ध, धर्मानुसार राज्यका शासन, मन्त्रणाका चिन्तन तथा समयानुसार सबको सुख प्रदान —— इन पाँचोंके द्वारा राज्यकी वृद्धि होती है।।”
धृतिर्दाक्ष्यं संयमो बुद्धिरात्मा धैर्यं शौर्यं देशकालाप्रमाद:।
अल्पस्य वा बहुनो वा विवृद्धौ धनस्यैतान्यष्ट समिन्धनानि।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १२०. ३७)
“धृतिरूपा तप:शक्ति, दक्षता, संयम, बुद्धि, शरीर, धैर्य, शौर्य तथा देश – काल – परिस्थितिकी परख तद्वत् तदनुरूप अप्रमाद — ये आठ गुण अल्प या अधिक अर्थको बढ़ानेके मुख्य साधन हैं ; अर्थात् धनरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेके लिये ईंधन हैं।।”

कोशेन धर्म: कामश्च परलोकस्तथा ह्ययम्।
तं च धर्मेण लिप्सेत नाधर्मेण कदाचन।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १३०. ५०)
“धन-सञ्चयसे ही धर्म, काम, लोक तथा परलोककी सिद्धि सम्भव है। उस धनको धर्मसे ही प्राप्त करनेकी इच्छा करे, अधर्मसे कभी नहीं।।”
नापरीक्ष्य नयेद्दण्डं न च मन्त्रं प्रकाशयेत्।
विसृजेन्नैव लुब्धेभ्यो विश्वेसेन्नापकारिषु।।
(सुभाषितरत्नभाण्डागारम् १५०. ३३७)
“राजा बिना परीक्षण किये दण्ड न दे तथा न मन्त्रणाका अनुचित स्थलपर प्रकाश ही करे, न लोभीको धनादि ही दे और न अपकार करनेवाले पर विश्वास ही करे।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १९८ – २००
ऊर्ध्वं चैव त्रयी विद्या सा भूतान् भावयत्युत।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८९. ७)
“खेती, गोपालन और वाणिज्य —— ये इसी लोकमें लोगोंकी जीविकाके साधन हैं; परंतु वेद ऊपरके लोकोंमें भी रक्षा करते हैं। वे यज्ञोंद्वारा समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और वृद्धिमें हेतु हैं।।”

तस्यां प्रवर्तमानायां ये स्युस्तत्परिपन्थिनः।
दस्यवस्तद्वधायेह ब्रह्मा क्षत्रमथासृजत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८९. ८)
“जो उस वेद – विद्याके अध्ययन तथा अध्यापनमें अथवा वेदोक्त यज्ञ – यागादि कर्मोमें बाधा पहुँचाते हैं, वे दस्यु (डकैत) हैं। उनका वध करनेके लिये ही ब्रह्माजीने क्षत्रिय – जातिकी सृष्टि की है।।”
यः प्रियं कुरुते नित्यं गुणतॊ वसुधाधिपः।
तस्य कर्माणि सिध्यन्ति न च संत्यज्यते श्रिया।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ९३. १२)
“जो राजा अनुगत प्रजाका अपने गुणोंसे सदा प्रिय करता है, उसके सब कर्म सफल होते हैं और सम्पत्ति कभी उसका साथ नहीं छोड़ती।।”

रक्षाधिकरणं युद्धं तथा धर्मानुशासनम्।
मन्त्रचिन्ता सुखं काले पञ्चभिर्वर्धते मही।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ९३. २४)
“रक्षाके स्थान दुर्ग आदि, युद्ध, धर्मानुसार राज्यका शासन, मन्त्रणाका चिन्तन तथा समयानुसार सबको सुख प्रदान —— इन पाँचोंके द्वारा राज्यकी वृद्धि होती है।।”
धृतिर्दाक्ष्यं संयमो बुद्धिरात्मा धैर्यं शौर्यं देशकालाप्रमाद:।
अल्पस्य वा बहुनो वा विवृद्धौ धनस्यैतान्यष्ट समिन्धनानि।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १२०. ३७)
“धृतिरूपा तप:शक्ति, दक्षता, संयम, बुद्धि, शरीर, धैर्य, शौर्य तथा देश – काल – परिस्थितिकी परख तद्वत् तदनुरूप अप्रमाद — ये आठ गुण अल्प या अधिक अर्थको बढ़ानेके मुख्य साधन हैं ; अर्थात् धनरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेके लिये ईंधन हैं।।”

कोशेन धर्म: कामश्च परलोकस्तथा ह्ययम्।
तं च धर्मेण लिप्सेत नाधर्मेण कदाचन।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १३०. ५०)
“धन-सञ्चयसे ही धर्म, काम, लोक तथा परलोककी सिद्धि सम्भव है। उस धनको धर्मसे ही प्राप्त करनेकी इच्छा करे, अधर्मसे कभी नहीं।।”
नापरीक्ष्य नयेद्दण्डं न च मन्त्रं प्रकाशयेत्।
विसृजेन्नैव लुब्धेभ्यो विश्वेसेन्नापकारिषु।।
(सुभाषितरत्नभाण्डागारम् १५०. ३३७)
“राजा बिना परीक्षण किये दण्ड न दे तथा न मन्त्रणाका अनुचित स्थलपर प्रकाश ही करे, न लोभीको धनादि ही दे और न अपकार करनेवाले पर विश्वास ही करे।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १९८ – २००
न्यायकी आधारशिला

पूर्वजन्म-पुनर्जन्म न्यायकी आधारशिला हैं। इन्हें स्वीकार किए बिना न्यायोचित व्यवस्थाका निर्माण असम्भव है।