न रक्षोभ्यो भयं तेषां कुत एव तु पावकात्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७७. ३०)
“केकयराज! जो राजा गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा करते हैं और प्रजाका पालन करना अपना धर्म समझते हैं, उन्हें राक्षसोंसे भय नहीं है, फिर अग्निसे तो हो ही कैसे सकता है?”

प्रागात्ममन्त्रिणश्चैव ततो भृत्या महीभृता।
जेयाश्चानन्तरं पौरा विरूध्येत ततोऽरिभि:।।
यस्त्वेतानविजित्यैव वैरिणो विजिगीषते।
सोऽजितात्माजितामात्य: शत्रुवर्गेण बाध्यते।।
(मार्कण्डेयपुराण २४. ११, १२)
“राजा सर्वप्रथम स्वयंको संयत करे अर्थात् अपने देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणपर विजय प्राप्त करे, पुनः मन्त्रियोंको अनुकूल करे, तत्पश्चात् सेवकोंको अनुकूल करे, तदनन्तर प्रजाको वशमें करे, फिर शत्रुओंका विरोध करे।।”
“जो असंयत राजा स्वयंको, मन्त्रियोंको, सेवकोंको और प्रजावर्गको वशमें किये बिना शत्रुको जीतना चाहता है; वह मन्त्री, परिकर और प्रजाकी प्रतिकूलताके कारण इनके द्वारा जीता जाता है और शत्रुवर्गसे पराजित होता है।।”

तस्मात्कामादय: पुर्वं जेया: पुत्र महीभृता।
तज्जये हि जयो राज्ञो राजा नश्यति तैर्जित:।।
काम: क्रोधश्च लोभश्च मदो मानस्तथैव च।
हर्षश्च शत्रवो ह्येते नाशाय कुमहीभृताम्।।
(मार्कण्डेयपुराण २४. १३, १४)
“हे पुत्र! इसी कारण सर्वप्रथम कामादि शत्रुओंको जीतना चाहिये। उनपर विजय प्राप्त होनेपर मन्त्री आदिकी अनुकूलताके कारण राजाकी जय सुनिश्चित है। इनके द्वारा पराजित राजा अवश्य ही नाशको प्राप्त होता है।।”
“काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष — ये षड्-रिपु कुशासक राजाके नाशमें हेतु हैं।।”
कामके वशीभूत राजा पाण्डुका नाश हुआ। क्रोधके वशीभूत अनुह्लादको पुत्ररत्नसे वञ्चित होना पड़ा। लोभके वशीभूत राजा ऐल विनष्ट हुए। मदके वशीभूत राजा वेनका विनाश हुआ। अभिमानके वशीभूत अनायुषनन्दनका विनाश हुआ। पुरञ्जयको हर्षके वशीभूत होकर मरना पड़ा। महात्मा मरुत्तने काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष पर विजय प्राप्तकर परम उत्कर्षको प्राप्त किया।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६८ – १७०
राज्ञः कर्तव्याः
प्रशस्यते न राजा हि नारीवॊद्यमवर्जितः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. १)
लॊकरञ्जनमेवात्र राज्ञां धर्मः सनातनः।
सत्यस्य रक्षणं चैव वयवहारस्य चार्जवम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ११)
चातुर्वर्ण्यस्य धर्माश्च रक्षितव्या महीक्षिता।
धर्मसंकररक्षा हि राज्ञां धर्मः सनातनः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. १५)
“युधिष्ठिर! राजाको सदा ही उद्योगशील होना चाहिये। जो उद्योग छोड़कर स्त्रीकी भाँति बेकार बैठा रहता है, उस राजाकी प्रशंसा नहीं होती है।। अतः इस लोकमें प्रजावर्गको प्रसन्न रखना ही राजाओंका सनातन धर्म है। सत्यकी रक्षा और व्यवहारकी सरलता ही राजोचित कर्तव्य है।। राजाको चारों वर्णोंके धर्मोंकी रक्षा करनी चाहिये, प्रजाको धर्मसंकरतासे बचाना राजाओंका सनातन धर्म है।।”

कॊशस्यॊपार्जनरतिर्यमवैश्रवणॊपमः।
वेत्ता च दशवर्गस्य स्थानवृद्धिक्षयात्मनः।।
महाभारत – शान्तिपर्व ५७. १८
“राजाको उचित है कि वह सदा अपने कोषागारको भरा-पूरा रखनेका प्रयत्न करता रहे, उसे न्याय करनेमें यमराज और धन-संग्रह करनेमें कुबेरके समान होना चाहिये। वह स्थान, वृद्धि तथा क्षयके हेतुभूत दसवर्गोंका सदा ज्ञान रखे।।”
मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग (किला), खजाना और दण्ड — ये पाँच ‘प्रकृति’ कहे गये हैं। ये ही अपने और शत्रुपक्षके मिलाकर ‘दशवर्ग’ कहलाते हैं, यदि दोनोंके मन्त्री आदि समान हों तो ये स्थानके हेतु होते हैं। अर्थात् दोनों पक्षकी स्थिति कायम रहती है, अगर अपने पक्षमें इनकी अधिकता हो तो ये वृद्धिके साधक होते हैं और कमी हो तो क्षयके कारण बनते हैं।
वक्ताओंमें श्रेष्ठ क्षत्रियशिरोमणि पाण्डुनन्दन! पितृयज्ञों-द्वारा विधिपूर्वक पितरोंका, देवयज्ञोंद्वारा देवताओंका तथा वेदोंके स्वाध्यायद्वारा ऋषियोंका यत्नपूर्वक भली-भाँति पूजन करके अन्तकाल आनेपर जो क्षत्रिय दूसरे आश्रमोंको ग्रहण करनेकी इच्छा करता है, वह क्रमश: आश्रमोंको अपनाकर परम सिद्धिको प्राप्त होता है।।”
(महाभारत – शान्तिपर्व ६३. १६-२१)
कौटिल्यस्य मते राज्ञः मुख्यकार्यम्

राजा के प्रमुख कार्य: –
- वर्णाश्रमव्यवस्था का संचालन — प्रजा द्वारा वर्णाश्रमव्यवस्था का पालन सुनिश्चित करना जिससे समाज में वर्णसंकरता ना फैले।
- दण्ड एवम् न्यायव्यवस्था — दण्डनीति का पालन कर उचित दण्ड का प्रावधान।
- राज्य की सुरक्षाव्यवस्था — युद्धकी तैयारी, गुप्तचरों से मन्त्रणा और राज्य की सुरक्षा के लिए दुर्गनिर्माण।
- राजकोष का संचालन — राजकोश की वृद्धि और आय-व्यय का लेखा-जोखा।
- सामाजिक कल्याण और लोकहित सम्बन्धी कार्य — प्रजा के सुखमय जीवन के लिए लोक-कल्याण के कार्य।
- राजकीय नियुक्तियाँ — मन्त्रीमण्डल, सेनापति और प्रमुख कर्मचारियों की नियुक्तियाँ।
राजकर्तव्यस्य फलम्
साध्वाचारप्रवृत्तानां चातुराश्रम्यकारिणाम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६६. ४)
“चारों आश्रमोंके धर्मोका पालन करनेवाले सदाचारपरायण पुरुषोंको जिन फलोंकी प्राप्ति होती है, वे ही सब राग-द्वेष छोड़कर दण्डनीतिके अनुसार बर्ताव करनेवाले राजाको भी प्राप्त होते हैं।।”
वेदाध्ययननित्यत्वं क्षमाथाचार्यपूजनम्।
अथॊपाध्यायशुश्रूषा ब्रह्माश्रमपदं भवेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६६. १४)
मृत्युर्वा रक्षणं वेति यस्य राज्ञो विनिश्चय:।
प्राणद्यूते ततस्तस्य ब्रह्माश्रमपदं भवेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६६. १६)
“जो प्रतिदिन वेदोंका स्वाध्याय करता है, क्षमाभाव रखता है, आचार्यकी पूजा करता है और गुरुकी सेवामें संलग्न रहता है, उसे ब्रह्माश्रम (संन्यास) द्वारा मिलनेवाला फल प्राप्त होता है।। जो राजा युद्धमें प्राणोंकी बाजी लगाकर इस निश्चयके साथ शत्रुओंका सामना करता है कि ‘या तो मैं मर जाऊँगा या देशकी रक्षा करके ही रहूँगा’ उसे भी ब्रह्माश्रम अर्थात् संन्यास-आश्रमके पालनका ही फल प्राप्त होता है।।” जयेष्ठानुज्येष्ठपत्नीनां भ्रातॄणां पुत्रनप्तृणाम्।
निग्रहानुग्रहौ पार्थ गार्हस्थ्यमिति तत् तपः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६६. २३)
साधूनामर्चनीयानां पूजा सुविदितात्मनाम्।
पालनं पुरुषव्याघ्र गृहाश्रमपदं भवेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६६. २४)
“कुन्तीनन्दन! बड़ी-छोटी पत्नियों, भाइयों, पुत्रों और नातियोंको भी जो राजा अपराध करनेपर दण्ड और अच्छे कार्य करनेपर अनुग्रहरूप पुरस्कार देता है, यही उसके द्वारा गार्हस्थ्य-धर्मका पालन है और यही उसकी तपस्या है।। पुरुषसिंह! पूजनके योग्य सुप्रसिद्ध आत्मज्ञानी साधुओंकी पूजा तथा रक्षा गृहस्थाश्रमके पुण्यफलकी प्राप्ति करानेवाली है।।”
धर्मारामान् धर्मपरान् ये न रक्षन्ति मानवान्।
पार्थिवाः पुरुषव्याघ्र तेषां पापं हरन्ति ते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६६. ३३)
वने चरन्ति ये धर्ममाश्रमेषु च भारत।
रक्षणात् तत्छतगुणं धर्मं प्राप्नॊति पार्थिवः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६६. ४१)
“पुरुषसिंह! जो राजा धर्ममें ही रमण करनेवाले धर्मपरायण मानवोंकी रक्षा नहीं करते हैं, वे उनके पाप बटोर लेते हैं।। भरतनन्दन! वनमें और विभिन्न आश्रमोंमें रहकर जो लोग जितना धर्म करते हैं, उनकी रक्षा करनेसे राजा उनसे सौगुने धर्मका भागी होता है।।”
अष्टवर्ग
कृषिर्वणिक्पथो दुर्गं सेतु: कुञ्जरबन्धनम्।।
खन्याकरबलादानं शून्यानां च निवेशनम्।
अष्टवर्गमिमं राजा साधुवृत्तोऽनुपालयेत्।।
(अग्निपुराण २३९. ४४-४५)
“खेती, व्यापारियोंके उपयोगमें आने वाले स्थल, जलमार्ग, पर्वतादि, दुर्ग, सेतुबन्ध (नहर, बाँध आदि), हाथी आदिके पकड़नेके स्थान, सोने – चाँदी आदिकी खानें, वनमें उत्पन्न साखू — शीशम आदिकी निकासीके स्थान तथा शून्य स्थलोंको बसाना — आयके इन आठ द्वारोंको ‘अष्टवर्ग’ कहते हैं। सद्विचार तथा सदाचारसम्पन्न राजा इसकी निरन्तर रक्षा करे।।”
जलयान, स्थलयान तथा नभोमार्गसे चलनेवाले वायुयान ; जल, स्थल, तथा नभ ; अग्नि – सूर्य – चन्द्र – नक्षत्र – विद्युत् ; पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, नद – निर्झर – समुद्र, पर्वत, वनस्पति, अन्न, पशु, यन्त्र, सुवर्णादि धातु तथा प्रजा, प्रज्ञा, आत्मविद्याविशारद आचार्य, देवी – देवता, यज्ञविद्याविशारद पुरोहित, स्त्री – पुत्र, परिकर और माता तथा पिता एवम् काल और धर्मका सदुपयोग सर्व सम्पदाका स्रोत है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३५-२३६
पञ्चधा भय
पृथिवीपतिलोभाच्च प्रजानां पञ्चधा भयम्।।
अग्निपुराण २३९. ४६
“आयुक्त्तक (रक्षाधिकारी राजकर्मचारी), चोर, शत्रु, राजाके प्रिय सम्बन्धी तथा राजाके लोभसे प्रजाको पाँच प्रकारका भय प्राप्त होता है।।”
उक्त पाँचों प्रकारके भयसे प्रजाकी रक्षा करना राजाका दायित्व है। तदर्थ सद्भावपूर्ण सम्वाद तथा सतत सतर्कता एवम् पक्षपातरहित संयमपूर्ण जीवन अपेक्षित है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३६
प्रात्यहिक (दैनिक) राजकर्म
रोगनिवारक दवाका सेवन करनेके अनन्तर माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श करके आचार्यका अभिवादन कर उनका अनुग्रह लाभ करे और राजसभामें प्रवेश करे। तदनन्तर शिष्टाचारका अनुपालन कर, जनप्रतिनिधियों से मिलकर इतिहासका श्रवण करे। न्यायकार्यसम्पादनके अनन्तर गिने – चुने विद्वान् विश्वसनीय मन्त्रियोंसे मन्त्रणा करे। मन्त्रणा सर्वथा गुप्त हो, भावभङ्गिमादिके द्वारा अनुमित होने योग्य न हो। विश्वसनीय ज्यौतिषी, वैद्य तथा मन्त्रियोंके परामर्शको स्वीकार करे। वह रथ चलाने तथा शस्त्राभ्यासादिके द्वारा व्यायाम करे। भोजनके अनन्तर बायीं करवटसे कुछ देर लेटे।
शास्त्रोंका चिन्तन करे, सेना – शस्त्रागार और अन्नभण्डारका निरीक्षण करे। सायं कृत्यका सम्पादन करनेके अनन्तर गुप्तचर आदिको यथायोग्य कार्योंमें नियुक्त करे। भोजनादिसे निवृत्त होकर अन्त:पुरमें प्रवेश करे। वाद्य, सङ्गीत आदिके माध्यमसे मनोरञ्जनके अनन्तर सुरक्षित दशामें शयन करे।”

“राजा सत्सङ्ग, सङ्कीर्त्तन, शास्त्रचिन्तन, देवपूजन, आचार्यसेवा आस्थापूर्वक करे। वह देव तथा पितृकार्यका सम्पादन दक्षतापूर्वक करे। वह देहाकार तथा द्रव्याकार गरूडव्यूह, मकरव्यूह, चक्रव्यूह, श्येनव्यूह, अर्द्धचन्द्रव्यूह, वज्रव्यूह, शकटव्यूह, सर्वतोभद्रमण्डलव्यूह और सूचीव्यूह — संज्ञक नौ व्यूहकी संरचनामें दक्ष हो।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२९