राजकर
आददीत बलिं चापि प्रजाभ्य: कुरुनन्दन।
स षड्भागमपि प्राज्ञस्तासामेवाभिगुप्तये।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ६९. २५)
“कुरुनन्दन! बुद्धिमान् नरेश प्रजाजनोंसे उन्हींकी रक्षाके लिये उनकी आयका छठा भाग कर के रूपमें ग्रहण करे।।”
दशधर्मगतेभ्यो यद् वसु बह्वल्पमेव च।
तदाददीत सहसा पौराणां रक्षणाय वै।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ६९. २६)
“मत्त, उन्मत्त, दस्यु, तस्कर, प्रतारक, शठ, लम्पट, जुआरी, कृत्रिम लेखक (जालिया) और घूसखोर — ये दस प्रकारके दण्डनीय मनुष्य हैं। राजा उनसे थोड़ा या बहुत जो धन दण्डके रूपमें प्राप्त हो, उसे पुरवासियोंकी रक्षाके लिये सहसा ग्रहण कर ले।।”
उच्चावचकरा दाप्या महाराज्ञा युधिष्ठिर।।
यथा यथा न सीदेरंस्तथा कुर्यान्महीपति:।
फलं कर्म च संप्रेक्ष्य तत: सर्वं प्रकल्पयेत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८७. १५,१६)
“युधिष्ठिर! महाराजको चाहिये कि वह लोगोंके स्तरके अनुसार गुरु या लघु कर लगावे। भूपालको उतना ही कर लगाना चाहिये, जितनेसे प्रजा संकटमें न पड़ जाय। उनका कार्य और स्तर देखकर ही सब कुछ करना चाहिये।।”
अजस्त्रमुपयोक्त्तव्यं फलं गोमिषु भारत।
प्रभावयन्ति राष्ट्रं च व्यवहारं कृषिं तथा।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८७. ३८)
“भारत! व्यापारियोंको उनके परिश्रमका फल सदा देते रहना चाहिये, क्योंकि वे ही राष्ट्रके वाणिज्य, व्यवसाय तथा कृषिकी उन्नति करते हैं।।”
मधुदोहं दुहेद् राष्ट्रं भ्रमरा इव पादपम्।
वत्सापेक्षी दुहेच्चैव स्तनांश्च न वीकुट्टयेत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. ४)
“जैसे भौंरा धीरे-धीरे फूल एवं वृक्षका रस लेता है, वृक्षको काटता नहीं, जैसे मनुष्य बछड़ेको कष्ट न देकर धीरे – धीरे गायको दुहता है, उसके थनोंको कुचलता नहीं, वैसे ही राजा कोमलताके साथ ही राष्ट्ररूपी गौ तथा वृक्षका दोहन तथा रसग्रहण करे।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १९२-१९३
अष्टवर्ग
कृषिर्वणिक्पथो दुर्गं सेतु: कुञ्जरबन्धनम्।।
खन्याकरबलादानं शून्यानां च निवेशनम्।
अष्टवर्गमिमं राजा साधुवृत्तोऽनुपालयेत्।।
(अग्निपुराण २३९. ४४-४५)
“खेती, व्यापारियोंके उपयोगमें आने वाले स्थल, जलमार्ग, पर्वतादि, दुर्ग, सेतुबन्ध (नहर, बाँध आदि), हाथी आदिके पकड़नेके स्थान, सोने – चाँदी आदिकी खानें, वनमें उत्पन्न साखू — शीशम आदिकी निकासीके स्थान तथा शून्य स्थलोंको बसाना — आयके इन आठ द्वारोंको ‘अष्टवर्ग’ कहते हैं। सद्विचार तथा सदाचारसम्पन्न राजा इसकी निरन्तर रक्षा करे।।”
जलयान, स्थलयान तथा नभोमार्गसे चलनेवाले वायुयान ; जल, स्थल, तथा नभ ; अग्नि – सूर्य – चन्द्र – नक्षत्र – विद्युत् ; पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, नद – निर्झर – समुद्र, पर्वत, वनस्पति, अन्न, पशु, यन्त्र, सुवर्णादि धातु तथा प्रजा, प्रज्ञा, आत्मविद्याविशारद आचार्य, देवी – देवता, यज्ञविद्याविशारद पुरोहित, स्त्री – पुत्र, परिकर और माता तथा पिता एवम् काल और धर्मका सदुपयोग सर्व सम्पदाका स्रोत है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३५-२३६
राज्य में वैश्यों के लिए व्यवस्था
प्राकारं भृत्यभरणं वययं संग्रामतॊ भयम्।
यॊगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य गॊमिनः कारयेत् करम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८७. ३५)
“नगरकी रक्षाके लिये चहारदिवारी बनवानी है, सेवकों और सैनिकोंका भरण-पोषण करना है, अन्य आवश्यक व्यय करने हैं, युद्धके भयको टालना है तथा सबके योग-क्षेमकी चिन्ता करनी है, इन सब बातोंकी आवश्यकता दिखाकर राजा धनवान वैश्योंसे कर वसूल करे।।”
उपेक्षिता हि नश्येयुर्गॊमिनॊऽरण्यवासिनः।
तस्मात् तेषु विशेषेण मृदुपूर्वं समाचरेत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८७. ३६)
“यदि राजा वैश्योंके हानि-लाभकी परवा न करके उन्हें करभारसे विशेष कष्ट पहुँचाता है तो वे राज्य छोड़कर भाग जाते और वनमें जाकर रहने लगते हैं; अतः उनके प्रति विशेष कोमलताका बर्ताव करना चाहिये।।”
सान्त्वनं रक्षणं दानमवस्था चाप्यभीक्ष्णशः।
गॊमिनां पार्थ कर्तव्य: संविभाग: प्रियाणि च।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८७. ३७)
“कुन्तीनन्दन! वैश्योंको सान्त्वना दे, उनकी रक्षा करे, उन्हें धनकी सहायता दे, उनकी स्थितिको सुदृढ़ रखनेका बारंबार प्रयत्न करे, उन्हें आवश्यक वस्तुएँ अर्पित करे और सदा उनके प्रिय कार्य करता रहे।।”
अजस्त्रमुपयोक्त्तव्यं फलं गोमिषु भारत।
प्रभावयन्ति राष्ट्रं च व्यवहारं कृषिं तथा।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८७. ३८)
“भारत! व्यापारियोंको उनके परिश्रमका फल सदा देते रहना चाहिये, क्योंकि वे ही राष्ट्रके वाणिज्य, व्यवसाय तथा कृषिकी उन्नति करते हैं।।”
तस्माद् गॊमिषु यत्नेन प्रितिं कुर्याद् विचक्षणः।
दयावानप्रमत्तश्च करान् सम्प्रणयन् मृदून्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८७. ३९)
“अतः बुद्धिमान् राजा सदा उन वैश्योंपर यत्नपूर्वक प्रेमभाव बनाये रखे। सावधानी रखकर उनके साथ दयालुताका बर्ताव करे और उनपर हलके कर लगावे।।”
सर्वत्र क्षेमचरणं सुलभं नाम गॊमिषु।
न ह्यतः सदृशं किंचिद् वरमस्ति युधिष्ठिर।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८७. ४०)
“युधिष्ठिर! राजाको वैश्योंके लिये ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये, जिससे वे देशमें सब ओर कुशलपूर्वक विचरण कर सकें। राजाके लिये इससे बढ़कर हितकर काम दूसरा नहीं है।।”
राज्य में धनी व्यक्तियों का स्थान
धनिनः पूजयेन्नित्यं पानाच्छादनभॊजनैः।
वक्तव्याश्चानुगृह्णीध्वं प्रजाः सह मयेति वै।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. २९)
“राजाको चाहिये कि वह देशके धनी व्यक्तियोंका सदा भोजन-वस्त्र और अन्नपान आदिके द्वारा आदर-सत्कार करे और उनसे विनयपूर्वक कहे, “आपलोग मेरे सहित मेरी इन प्रजाओंपर कृपादृष्टि रखें।।”
अङ्गमेतन्महद् राज्ये धनिनॊ नाम भारत।
ककुदं सर्वभूतानां धनस्थॊ नात्र संशयः।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. ३०)
“भरतनन्दन! धनीलोग राष्ट्रके मुख्य अंग हैं। धनवान् पुरुष समस्त प्राणियोंमें प्रधान होता है, इसमें संशय नहीं है।।”
शूरवीर एवम् विद्वान व्यक्ति
प्राज्ञः शूरॊ धनस्थश्च स्वामी धार्मिक एव च।
तपस्वी सत्यवादी च बुद्धिमांश्चापि रक्षति।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. ३१)
तस्मात् सर्वेषु भूतेषु प्रितिमान् भव पार्थिव।
सत्यमार्जवमक्रॊधमानृशंस्यं च पालय।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८८. ३२)
“विद्वान्, शूरवीर, धनी, धर्मनिष्ठ, स्वामी, तपस्वी, सत्यवादी तथा बुद्धिमान् मनुष्य ही प्रजाकी रक्षा करते हैं।।
अतः भूपाल! तुम समस्त प्राणियोंसे प्रेम रखो तथा सत्य, सरलता, क्रोधहीनता और दयालुता आदि सद्धर्मोंका पालन करो।।”