राजदुर्ग – राजनगर

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


राजदुर्ग


षड्विधं दुर्गमास्थाय पुराण्यथ निवेशयेत्।
सर्वसम्पत्प्रधानं यद् बाहुल्यं चापि सम्भवेत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ४)

“जहाँ सब प्रकारकी सम्पत्ति प्रचुरमात्रामें भरी हुई हो तथा जो स्थान बहुत विस्तृत हो, वहाँ छह प्रकारके दुर्गोंका आश्रय लेकर राजाको नये नगर बसाने चाहिये।।”
राजदुर्ग
धन्वदुर्गं महीदुर्गं गिरीदुर्गं तथैव च।
मनुष्यदुर्गं अब्दुर्गं वनदुर्गं च तानि षट्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ५)

बालुकाके घेरेसे युक्त धन्वदुर्ग अर्थात् मरुदुर्ग, समतलभूमिके अन्दर बना हुआ महीदुर्ग, पर्वतमालाओंसे परिवेष्टित पर्वतशिखरपर विनिर्मित गिरिदुर्ग, सैन्यकिलासहित चातुर्वण्यरूप मनुष्यदुर्ग, चतुर्दिक् जलघेरासे युक्त जल-दुर्ग और चतुर्दिक् वनसे घिरा हुआ वनदुर्ग — उन छह दुर्गोंके नाम हैं।।”

दुर्गेषु च महाराज षट्सु ये शास्त्रनिश्चिता:।
सर्वदुर्गेषु मन्यन्ते नरदुर्गं सुदुस्तरम्।।
तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वण्ये विपश्चिता।

(महाभारत – शान्तिपर्व ५६. ३५-३५.१/२)

मरु, जल, पृथ्वी, वन, पर्वत तथा मानव — इन छः प्रकारके दुर्गोंमें मानवदुर्ग ही प्रधान है। शास्त्रज्ञ मनीषी इन सब दुर्गोंमें मानवदुर्गको ही अत्यन्त दुर्लङ्घय मानते हैं। अतः विद्वान् राजाको चारों वर्णोंपर सदा दया करनी चाहिये।।”
राजदुर्ग
प्रागुदक्प्रवणं दुर्गं समासाद्य महीपति:।
त्रिवर्गत्रयसम्पूर्णमुपादाय तमुद्वहेत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. दाक्षिणात्यपाठ)

राजाको चाहिये कि जिसमें पूर्व और उत्तरदिशाकी भूमि नीची हो तथा जो क्षय, स्थान, वृद्धि; उत्साहशक्ति, प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति तथा धर्म, अर्थ, काम — संज्ञक तीनों त्रिवर्गोंसे सम्पूर्ण हो, उस दुर्गका आश्रय लेकर राज्यकार्यका सम्पादन करे।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८९-१९०

न जितुम् शक्यते


षट् पञ्च च विनिर्जित्य दश चाष्टौ च भूपति:।
त्रिवर्गैर्दशभिर्युक्त: सुरैरपि न जीर्यते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. दाक्षिणात्यपाठ)

षड्वर्ग, पञ्चवर्ग, दस दोष और आठ दोष — इन सबको जीतकर त्रिवर्गयुक्त एवं दस वर्गके ज्ञानसे सम्पन्न राजा देवताओं द्वारा भी जीता नहीं जा सकता।।”

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य — संज्ञक छः आन्तरिक शत्रुओंके समुदायको षड्वर्ग कहते हैं।

शब्दाभिव्यञ्जक श्रोत्र, स्पर्शाभिव्यञ्जक त्वक्, रूपाभिव्यञ्जक नेत्र, रसाभिव्यञ्जक रसन और गन्धाभिव्यञ्जक घ्राण — संज्ञक पञ्च ज्ञानेन्द्रियोंको पञ्चवर्ग कहते हैं।

आखेट, जुआ, दिनमें सोना, परनिन्दा, स्त्रियोंमें समासक्त होना, मद्यपान, नृत्य, गान, वाद्य, व्यर्थ भ्रमण — ये कामजन्य दश दोष हैं।

चुगली, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, दोषदर्शन, अर्थदूषण, वाणीकी कठोरता और दण्डकी कठोरता — ये क्रोधज आठ दोष हैं।

धर्म, अर्थ और कामको अथवा उत्साहशक्ति, प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्तिको त्रिवर्ग कहते हैं।

स्वपक्ष तथा परपक्षके मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और दण्डको दशवर्ग कहते हैं।

राजदुर्ग
अद्भयोऽग्निर्ब्रह्मत: क्षत्रमश्मनोलोहमुत्थितम्।
तेषां सर्वत्रगं तेज: स्वासु योनिषु शाम्यति।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ५६. २४)

अग्नि अपने अभिव्यञ्जकसंस्थान जलसे, क्षत्रिय ब्राह्मणसे और लोहा पत्थरसे उत्पन्न हुआ है। इनका तेज अन्य सब स्थानोंपर अपना प्रभाव दिखाता है; परन्तु अपनेको उत्पन्न करनेवाले कारणसे टक्कर लेने पर स्वयं ही शान्त हो जाता है।।”

अयो हन्ति यदाश्मानमग्निना वारि हन्यते।
ब्रह्म च क्षत्रियो द्वेष्टि तदा सीदन्ति ते त्रय:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ५६. २५)

“जब लोहा पत्थरपर चोट करता है, आग जलको नष्ट करने लगती है और क्षत्रिय ब्राह्मणसे द्वेष करने लगता है; तब ये तीनों ही दुःख उठाते हैं अर्थात् दुर्बल हो जाते हैं।।”
ब्राह्मण
एवं कृत्वा महाराज नमस्या एव ते द्विजा:।
भौमं ब्रह्म द्विजश्रेष्ठा धारयन्ति समर्चिता:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ५६. २६)

महाराज! ऐसा सोचकर तुम्हें ब्राह्मणोंको सदा नमस्कार ही करना चाहिये; क्योंकि वे श्रेष्ठ ब्राह्मण पूजित होनेपर भूतलके ब्रह्मको अर्थात् वेदको धारण करते हैं।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १९०-१९२

राजनगर


यत्पुरं दुर्गसम्पन्नं धान्यायुधसमन्वितम्।
दृढप्राकारपरिखं हस्त्यश्वरथसंकुलम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ६)

विद्वांस: शिल्पिनो यत्र निचयाश्च सुसंचिता:।
धार्मिकश्च जनो यत्र दाक्ष्यमुत्तममास्थित:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ७)

ऊर्जस्विनरनागाश्वं चत्वरापणशोभितम्।
प्रसिद्धव्यवहारं च प्रशान्तमकुतोभयम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ८)

सुप्रभं सानुनादं च सुप्रशस्तनिवेशनम्।
शुराढ्यजनसम्पन्नं ब्रह्मघोषानुनादितम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ९)

समाजोत्सवसम्पन्नं सदा पूजितदैवतम्।
वश्यामात्यबलो राजा तत्पुरं स्वयमाविशेत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. १०)
राजनगर
“जिस नगरमें पाँच प्रकारके दुर्गोंमें से कोई-न-कोई दुर्ग हो, जहाँ अन्न और अस्त्र-शस्त्रोंकी अधिकता हो, जिसके चारों ओर मजबूत चहारदीवारी और गहरी एवम् चौड़ी खाई बनी हो, जहाँ हाथी, घोड़े और रथोंकी बहुतायत हो, जहाँ विद्वान् और कारीगर बसे हों, जिस नगरमें आवश्यक वस्तुओंके संग्रहसे भरे हुए कई भंडार हों, जहाँ धार्मिक तथा कार्यकुशल मनुष्योंका निवास हो, जो बलवान् मनुष्य, हाथी और घोड़ोंसे सम्पन्न हो, चौराहे तथा बाजार जिसकी शोभा बढ़ा रहे हों, जहाँका न्याय-विचार एवम् न्यायालय सुप्रसिद्ध हो, जो सब प्रकारसे शांतिपूर्ण हो, जहाँ कहींसे कोई उपद्रव न हो, जिसमें रोशनीका अच्छा प्रबन्ध हो, संगीत और वाद्योंकी ध्वनि होती रहती हो, जहाँका प्रत्येक घर सुन्दर और सुप्रशस्त हो, जिसमें बड़े-बड़े शूरवीर और धनाढ्य लोग निवास करते हों, वेदमन्त्रोंकी ध्वनि गूँजती रहती हो तथा जहाँ सदा ही सामाजिक उत्सव और देवपूजनका क्रम चलता रहता हो, ऐसे नगरके भीतर अपने वशमें रहनेवाले मन्त्रियों तथा सेनाके साथ राजाको स्वयं निवास करना चाहिये।।”
राजनगर
तत्र कोशं बलं मित्रं व्यवहारं च वर्धयेत्।
पुरे जनपदे चैव सर्वदोषान् निवर्तयेत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ११)

राजाको चाहिये कि वह उस नगरमें कोष, सेना, मित्रोंकी संख्या तथा व्यवहारको बढ़ावेनगर तथा बाहरके ग्रामोंमें सभी प्रकारके दोषोंको दूर करे।।”

भाण्डागारायुधागारं प्रयत्नेनाभिववर्धयेत्।
निचयान् वर्धयेत् सर्वांस्तथा यन्त्रायुधालयान्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. १२)

अन्नभण्डार तथा अस्त्र-शस्त्रोंके संग्रहालयको प्रयत्नपूर्वक बढ़ावे, सब प्रकारकी वस्तुओंके संग्रहालयोंकी भी वृद्धि करे, यन्त्रों तथा अस्त्र-शस्त्रोंके कारखानोंकी उन्नति करे।।”
राजनगर
आशयाश्चोदपानाश्च प्रभूतसलिलाकरा:।
निरोद्धव्या: सदा राज्ञा क्षीरिणश्च महीरूहा:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. १५)

जलाशय (तालाब, पोखरे आदि), उदपान (कुँए, बावड़ी आदि), प्रचुर जलराशिसे भरे हुए बड़े-बड़े तालाब तथा दूधवाले वृक्ष — इन सबकी राजाको सदा रक्षा करनी चाहिये।।”