प्रतिज्ञा
जयं जानीम धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च।
विजयार्थं हि सङ्ग्रामे न त्यक्षयाम: परस्परम्।
जयन्तॊ वध्यमाना वा प्राप्नुयाम च सद्गतिम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १००. ३२, ४०, ४१)
“हम लक्ष्यसिद्धिरूप जयको ही धर्म तथा सम्पूर्ण सुखोंका मूल समझें। हम जयार्थसाधनरूप सङ्ग्राममें विजय प्राप्त करनेके लिए प्राण रहते एक – दूसरेका साथ नहीं छोड़ेंगे। या तो विजय प्राप्त करेंगे या युद्धमें मारे जाकर सद्गति लाभ करेंगे।।”

मैं सर्वहितकी भावनासे हिन्दुओंके अस्तित्व और आदर्शकी रक्षा, देशकी सुरक्षा तथा अखण्डताके लिए सदा कटिबद्ध रहूँगा। सती, धर्मशील, गोवंश, वेद तथा वैदिकवाङ्गमय, शिक्षणसंस्थान, गङ्गा – यमुना – ब्रह्मपुत्र – महानदी – गोदावरी – कृष्णा – काबेरी – नर्मदा – सेतु – सिन्धु – सागर आदि तीर्थ, मठ – मन्दिर – आश्रम, वन – पर्वत – भूमि आदि सनातन प्रशस्त मानबिन्दुओंकी रक्षाके लिए सदा कटिबद्ध रहूँगा। स्वयं सुबुद्ध, सत्यसहिष्णु तथा स्वावलम्बी रहते हुए अन्योंको सुबुद्ध, सत्यसहिष्णु तथा स्वावलम्बी बनानेमें सदा संलग्न रहूँगा।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “पूर्वाम्नाय-श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठ-परिचव-प्रकल्प” पृष्ठ संख्या ४३-४५
विजयार्थं हि सङ्ग्रामे न त्यक्षयाम: परस्परम्।
जयन्तॊ वध्यमाना वा प्राप्नुयाम च सद्गतिम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १००. ३२, ४०, ४१)
“हम लक्ष्यसिद्धिरूप जयको ही धर्म तथा सम्पूर्ण सुखोंका मूल समझें। हम जयार्थसाधनरूप सङ्ग्राममें विजय प्राप्त करनेके लिए प्राण रहते एक – दूसरेका साथ नहीं छोड़ेंगे। या तो विजय प्राप्त करेंगे या युद्धमें मारे जाकर सद्गति लाभ करेंगे।।”

मैं सर्वहितकी भावनासे हिन्दुओंके अस्तित्व और आदर्शकी रक्षा, देशकी सुरक्षा तथा अखण्डताके लिए सदा कटिबद्ध रहूँगा। सती, धर्मशील, गोवंश, वेद तथा वैदिकवाङ्गमय, शिक्षणसंस्थान, गङ्गा – यमुना – ब्रह्मपुत्र – महानदी – गोदावरी – कृष्णा – काबेरी – नर्मदा – सेतु – सिन्धु – सागर आदि तीर्थ, मठ – मन्दिर – आश्रम, वन – पर्वत – भूमि आदि सनातन प्रशस्त मानबिन्दुओंकी रक्षाके लिए सदा कटिबद्ध रहूँगा। स्वयं सुबुद्ध, सत्यसहिष्णु तथा स्वावलम्बी रहते हुए अन्योंको सुबुद्ध, सत्यसहिष्णु तथा स्वावलम्बी बनानेमें सदा संलग्न रहूँगा।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “पूर्वाम्नाय-श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठ-परिचव-प्रकल्प” पृष्ठ संख्या ४३-४५