“गीतामें भगवान श्रीकृष्णका वचन है। प्रकृति प्रदत्त जितने भेद हैं, वो व्यवहारके साधक हैं या बाधक ? पहली बात है कि प्रकृति प्रदत्त भेद हैं या नहीं ? भेद नहीं हैं तो सृष्टि ही नहीं है, सृष्टिका अर्थ ही होता है भेद। प्रलयका अर्थ होता है अभेद, सृष्टिका अर्थ होता है भेद। प्रकृति प्रदत्त भेद हैं — ये तो आप मानते हैं। प्रकृति प्रदत्त कोई भी भेद ऐसा है जो व्यवहारका साधक न हो ? हर भेद व्यवहारका साधक है। पृथ्वी और पानीमें भेद है या अभेद ? भेद है। पानी और प्रकाशमें भेद है या नहीं ? प्रकाश और पवनमें भेद है या नहीं ? पवन और आकाशमें भेद है या नहीं ? ठीक। शब्द और स्पर्शमें भेद है या नहीं ? स्पर्श और रूपमें भेद है या नहीं ? रूप और रसमें भेद है या नहीं ? रस और गन्धमें भेद है या नहीं ? अच्छा, आगे चलिए। वृक्षोंमें आम, अमरूद आदिमें भेद है या नहीं ? और आमकी अनेकों जातियाँ हैं, उनमें भेद है या नहीं ? और आगे बढ़ो फिर, स्त्री और पुरुषकी आकृतिमें भेद है या नहीं। चौरासी लक्ष योनियोंकी आकृतिमें भेद है या नहीं ? हर व्यक्तिकी प्रकृतिमें भेद है या नहीं ? उँगलियोंमें भेद है या नहीं ? नाक और कान आदिमें भेद हैं या नहीं ? हर पुरुषकी स्वर लहरीमें भेद है या नहीं ? और हर स्त्रीकी स्वर लहरीमें भेद है या नहीं ? स्त्री और पुरुषकी स्वर लहरीमें भेद है या नहीं ? आँख और कानमें भेद है या नहीं ? वो भेद मिटा देंगे तो बहरा और अन्धे ही हो जाएँगे। तो प्रकृति प्रदत्त जितने भेद हैं, वो व्यवहारमें साधक हैं न कि बाधक। इतनी बात समझमें आ गई ?”
“भेदके मूलमें भेद होना चाहिए या अभेद ? तुस्सी दस्सो। भेदके मूलमें भेद होना चाहिए या अभेद ? भेदको साधने वाला तत्त्व जो है वो अभेद होना चाहिए या भेद ही। क्रियाको साधने वाली वस्तु निष्क्रिय होनी चाहिए या नहीं ? नीचे पृथ्वी है, उसमें कम हलचल है। बीचमें जल, तेज और वायु — गतिशील पदार्थ हैं। ऊपर आकाश — बिलकुल गतिशून्य है। यदि ऊपर आकाश न हो, नीचे धरती-पृथ्वी न हो तो ये तीन जो गतिशील हैं — तेज, जल और वायु — इनकी दुर्गति हो जाए, ये टिक कहाँ सकते हैं ? अच्छा, उँगलियोंमें भेद है या हथेलीमें भेद है ? पाँचको साधने वाली जो हथेली है उसमें भेद है या उँगलियोंमें भेद है ? भेदके मूलमें अभेद है। ठीक है ? घड़े हैं, वृक्ष हैं — इन सबके मूलमें पृथ्वी एक है। पृथ्वीके कार करोड़ों हैं, लेकिन पृथ्वी एक है। भेदके मूल में अभेद है, ये तो मानते हैं ?”
“अब भेदका सदुपयोग करता हुआ बंदा/व्यक्ति भेदशून्य परमात्मा तक पहुँच सके, इसके लिए भी कोई भेद चाहिए या नहीं ? उसीका नाम शास्त्रप्रदत्त शास्त्रसिद्ध भेद वर्णाश्रम है। श्राप लगा है भौतिकवादियोंको, ये जो झूठ-मूठके अभेदवादी हैं इन सबको श्राप लगा है कि प्रकृति प्रदत्त भेदका आप सदुपयोग नहीं कर सकते और निर्भेद परमात्मा तक शास्त्रसम्मत भेदको स्वीकार किए बिना पहुँच ही नहीं सकते। जितने भौतिकवादी हैं सबको श्राप लगा हुआ है। कोई बता दो कि भेदका सदुपयोग करना जानता हो, जितने भौतिकवादी हैं। हम तो पच्चीसों चुनौतियाँ देते हैं शास्त्रके आधार पर। पहली ही चुनौती यह है — शास्त्रने जो भेद किया है उसका उपयोग क्या है ? लक्ष्य क्या है ? प्रकृति प्रदत्त भेदका सदुपयोग करता हुआ जीव निर्भेद परमात्मा तक पहुँच सके। अब प्रकृति प्रदत्त भेदको तो माननेके लिए हम बाध्य हैं और शास्त्रसम्मत भेदको हम नहीं मानेंगे तो हम भेदका सदुपयोग नहीं कर सकेंगे।”
“स्त्री शरीर है एक जैसा — इसमें नानी, मामी, पत्नी, दादी — ये भेद किसने किया, बताओ ? और ये भेद नहीं करेंगे तो व्यभिचार होगा या नहीं ? व्यवहार चलेगा ? ये भाभीजी हैं, ये नानीजी हैं, ये पत्नीजी हैं, ये मामीजी हैं — ये भेद फिर कहाँसे आया ? स्त्रीकी आकृति तो एक जैसी ही होगी, माने अँग-प्रत्यँग। ये भेद जो हैं, ये साधक हैं या बाधक ? रागद्वेषमूलक हैं क्या ये ? नहीं न। ये नानीजी हैं, ये मामीजी हैं, ये भाभीजी हैं, ये माताजी हैं — ये भेद रागद्वेषमूलक नहीं हैं। इस भेदको आप स्वीकार नहीं करोगे तो बेटा भी मनुष्यकी आकृतिमें, पिता भी मनुष्यकी आकृतिमें, अब कौन किसको प्रणाम करे — कौन बाप, कौन बेटा ? इसका निर्धारण कैसे होगा ? तो व्यवहार भी नहीं सधेगा, परमार्थकी बात तो छोड़ दीजिए।”
“हाथ और सिरमें भेद है या नहीं ? वो जन्मसे भेद है या कर्मसे भेद है ? हाथ और सिरमें जो भेद है, वो जन्मसे ही भेद है या नहीं ? हाथ और कमरमें जो भेद है, वो जन्मसे भेद है या नहीं ? कमरमें और टाँगमें जो भेद है, वो जन्मसे भेद है या नहीं ? और कर्म तो बादमें होते हैं इनके। मनुष्यके बच्चेके हाथ तो जन्मसे हो गए, हाथसे जो काम करना चाहिए वो तो प्रशिक्षणके बाद धीरे धीरे होगा। पहले तो दोनों हाथको पाँव ही बना लेगा। समझ गए न। हाथके कर्म पहले होते हैं या हाथका जन्म पहले होता है ? पाँवके कर्म पहले होते हैं या पाँवका जन्म पहले होता है ? मान लो जो पशुका बच्चा है, जन्मके दस मिनट बाद वो उछलने लगा, लेकिन तो भी जन्म तो पहले हो गया न। पाँव तो पहले उसको मिल गया, कर्म तो बादमें हुआ ना, जन्म तो पहले हो गया। इसलिए आप लोग जो संस्था चलाते हैं, एक लक्ष्य था वो सब क्या है ? अपना गला घोंटनेका प्रकल्प। न आप भेदका सदुपयोग कर सकते हैं, न निर्भेद परमात्मा तक पहुँच सकते हैं। इसलिए अपने ऊपर कृपा करके ऐसी संस्थाओंसे दूर रहना चाहिए।”
“बेटी-बहनका भेद मिटा देंगे, बाप-बेटेका, गुरु-शिष्यका भेद मिटा देंगे — होगा क्या ? कोर्टमें चले जाओ, न्यायाधीश और वकीलका भेद मिटा दो, कैसे चलेगा ? व्यवहार ही नहीं चल सकता। भेदको माने बिना व्यवहार नहीं चलेगा, लेकिन भेदका सदुपयोग और निर्भेद परमात्मा तक पहुँचनेके लिए कौनसा भेद हमको मानना पड़ेगा ? शास्त्रने जो भेद दिया। एक श्लोक मैं पढ़ता हूँ महाभारत का -”
“आप लोग क्या पूर्वपक्ष प्रस्थापित करोगे, ये हमारे ऋषियोंने कर रखा है। सबके शरीर पञ्चभौतिक हैं जी और आत्माकी दृष्टिसे एकत्व है। पञ्चभौतिकताकी दृष्टिसे एकत्व है। फिर ये ब्राह्मण, ये क्षत्रिय — ये सब भेद कहाँसे आ गया ? यह पूर्वपक्ष है। यथैकत्वं पुनर्यान्ति — उसका उत्तर दिया महाभारतमें व्यासजीने — भेदका सदुपयोग करता हुआ निर्भेद परमात्मा तक व्यक्ति पहुँच सके — इसके लिए शास्त्र – मनुस्मृति आदिने जो भेदका वर्णन किया है उसको माननेके लिए हमको तत्पर रहना चाहिए, उसको नहीं मानेंगे तो श्राप प्राप्त है। न तो भेदका सदुपयोग कर सकते, न निर्भेद परमात्मा तक पहुँच सकते। जितने भौतिकवादी हैं — अमरीकाके राष्ट्रपति हों, भारतके प्रधानमन्त्री रहे हों, हों — कोई भी भेदका सदुपयोग करना जानते हैं ? भौतिकवादियोंको तो श्राप लगा, पच्चीसों श्राप हैं — इसीलिए ये तो बिलकुल प्रकृति विरुद्ध सिद्धान्त है — भेददर्शी होना चाहिए या भेदवर्ती ? पण्डिता: समदर्शिन: (श्रीमद्भगवद्गीता ५. १८) — कहा गया है या नहीं ? समदर्शी — समदर्शी है नाम तुम्हारा। अभेदवर्ती होना चाहिए या भेददर्शी ?”
“भेददर्शी होना चाहिए और भेदवर्ती होना चाहिए। अच्छा भोजनको लेलो — (बहुत गन्दी बात है) सुअर जो आहार करता है (वो भी आहार है) मनुष्य उसको छुएगा ? अच्छा वो भी गन्दी बात छोड़ दो — पुवाल खाता है, गाय आदि जो हैं घास खाते हैं, तो हम कोई घास खाएँगे ? उनका अनाज वो है, हमारा अनाज अलग है। इसका मतलब क्या हुआ ? अभेददर्शनसे मोक्ष मिलता है, व्यवहारमें तो भेद चलेगा ही। दोनों ज्ञानी हो गए — गुरु भी और चेला भी — फिर भी गुरु गुरु ही रहेंगे और चेला चेला ही रहेंगे, उसमें क्या बात है।”