महायन्त्रप्रवर्तनम्
प्रकाश और प्रशस्त पथकी सुलभताके कारण रात्रिके कार्यका दिनमें तथा दिनके कार्यका रात्रिमें सम्पादनसे आलस्य, कर्कशता, आक्रोश, अराजकता तथा रुग्णता अनिवार्य है। वाहन तथा यन्त्रोंके सन्चालनके लिए विद्युत्, डीजल, पेट्रोल आदिके अत्यधिक उपयोगसे प्रज्ञाशक्ति और प्राणशक्तिकी मन्दता, पृथिव्यादि भूत चतुष्टयकी मलिनता, दैवी प्रकोप, गोवंश, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, अलुब्ध (निर्लोभ), दानशील, गंगादि, हिमालयादि, तीर्थादि दिव्य अभिव्यक्तियों तथा सुवर्णादि, चंदनादि दिव्य वस्तुओंका विलोप सुनिश्चित है।
महायन्त्रोंके आविष्कार और प्रचुर प्रयोगसे आध्यात्मिक उत्कर्षका विलोप ही नहीं; अपितु भौतिक उत्कर्षका अवरोध और अन्त भी सुनिश्चित है। कारण यह है कि देहात्मवाद और पंचभूतोंके अनर्गल दोहनवादका नाम भौतिकवाद है। देहात्मवादसे अध्यात्मवादका विलोप सुनिश्चित है तथा पंचभूतोंके अनर्गल दोहनसे भौतिक उत्कर्षका अवरोध और अन्त भी अनिवार्य है।
उक्त हेतुओंसे महायन्त्रोंके निर्माणको श्रीमन्वादि महर्षियोंने उपपातकोंमें परिगणित किया है — ‘महायन्त्रप्रवर्तनम्’ (मनुस्मृति ११.६३)।
दालमें नमक, मिर्च तथा मशालाके तुल्य एवम् आँखोंमें अंजनके तुल्य यन्त्रोंका सीमित तथा सुखद उपयोग ही श्रेयस्कर है। अभिप्राय यह है कि अपेक्षित जलवर्षक प्रजापालक देव, सहयोगी मनुष्य, पशु तथा यन्त्रके योगसे कृषि आदिका सम्पादन सनातन सिद्धान्त है। देवादिनिरपेक्ष केवल यन्त्रसापेक्ष कृषि आदिका सम्पादन देहात्मवाद विधायक, जडताका आधायक, पर्यावरणका विघातक, रोग तथा शोकका उद्दीपक तथा स्थावर – जंगम सर्वसत्त्वविघातक है।
स्रष्टा सर्वेश्वरने पुरुषार्थ चतुष्टयकी सिद्धिरूप जिस प्रयोजनसे सृष्टिकी संरचना की है तथा जिससे सर्वहित सुनिश्चित है, उसका ज्ञान प्राप्तकर तथा ध्यान रखकर ही जीवन तथा जगत् का उपयोग तथा विनियोग कर्त्तव्य और सुमंगल है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २४४-२४५