क्रियायोग
अखिल वेद और वेदज्ञोंके आचार – विचार धर्मके मूल हैं।
सर्व प्राणियोंपर दया, क्षमा, दुःखसे सन्तप्त प्राणीकी रक्षा, सबके प्रति ईर्ष्याका अभाव, बाह्याभ्यन्तर शुद्धि, अनायास सुलभ स्वभावसिद्ध कार्यका माङ्गलिक आचार – विचारसे सम्पादन,
न्यायपूर्वक उपार्जित सम्पत्तिसे आर्त्तोंकी सेवामें कृपणताका परिचय न देना तथा पर द्रव्य और पर स्त्रीमें सदा अस्पृहा – पुराणज्ञ पुरुषोंद्वारा प्रतिपादित ये आठ प्रकारके आत्मगुण वेदज्ञ मनीषियोंमें प्रधानरूपसे सदा विद्यमान रहते हैं।
यही ज्ञानयोगका साधक क्रियायोग है।-
अष्टावात्मगुणास्तस्मिन् प्रधानत्वेन संस्थिता:।
दया सर्वेषु भूतेषु क्षान्ती रक्षाऽ ऽ तुरस्य तु।।
(मत्स्यपुराण ५२. ८)
अनसूया तथा लोके शौचमन्तर्बहिर्द्विजा:।
अनायासेषु कार्येषु मङ्गलाचारसेवनम्।।
(मत्स्यपुराण ५२. ९)
न च द्रव्येषु कार्पण्यमार्तेषूपार्जितेषु च।
तथास्पृहा परद्रव्ये परस्त्रीषु च सर्वदा।।
(मत्स्यपुराण ५२. १०)
अष्टावात्मगुणा: प्रोक्त्ता: पुराणस्य तु कोविदै:।
अयमेव क्रियायोगो ज्ञानयोगस्य साधक:।।
(मत्स्यपुराण ५२. ११)
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “राजधर्म” पृष्ठ संख्या ५२