विद्या, बल, धन और सेवाबलमें परस्पर समन्वय
“ब्राह्मणोंमें विद्या (सरस्वती)की, क्षत्रियोंमें सैन्य बल (शक्ति)की, वैश्योंमें धन (सम्पत्ति) और शूद्रोंमें सेवाकी प्रतिष्ठा होती है। विद्यासे नियन्त्रित और समन्वित बल, विद्या और बलसे नियन्त्रित और समन्वित धन तथा विद्या, बल और धनसे नियन्त्रित एवम् समन्वित सेवासे सर्वहित सुनिश्चित है।”
“जब विद्यापर बलका वर्चस्व होता है अर्थात् शिक्षातन्त्रमें प्रतिष्ठित विद्यापर शासनतन्त्रमें प्रतिष्ठित शक्तिका आधिपत्य होता है, तब समाजमें विप्लवका वातावरण छा जाता है। जब विद्या और बलपर व्यापारतन्त्रमें प्रतिष्ठित धन-सम्पत्तिका वर्चस्व होता है, तब समाजमें अति विप्लव होने लगता है। जब विद्या, बल, और धनपर श्रमिकवर्गमें सन्निहित सेवाका वर्चस्व (शासन) होता है, तब विश्व विनाशकी विभीषिकासे सन्तप्त होने लगता है।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीति और अध्यात्म” पृष्ठ संख्या ३६