प्रात्यहिक (दैनिक) राजकर्म
“मङ्गल वाद्य, गीत तथा स्तुतिकी ध्वनिका श्रवण करते हुए राजा ब्राह्ममुहूर्तमें निद्रा त्याग करे। तत्पश्चात् जिनकी राजकर्मचारीके रूपमें ख्याति न हो, उन गुप्तचरोंसे वह मन्त्रणा करे। तदनन्तर आय तथा व्ययका वह आकलन करे।
पुनः शौचक्रियाका सम्पादन, स्नान, सन्ध्या, देवविग्रहकी समर्चा, अग्निहोत्र, तर्पण, ब्राह्मणवन्दन, गोदानादि कृत्योंका आस्थापूर्वक नरेश सम्पादन करे। तदनन्तर चन्दन, आभूषणादि से सुसज्जित होकर दर्पण तथा सुवर्णयुक्त घृतमें मुख दर्शन करे।
रोगनिवारक दवाका सेवन करनेके अनन्तर माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श करके आचार्यका अभिवादन कर उनका अनुग्रह लाभ करे और राजसभामें प्रवेश करे। तदनन्तर शिष्टाचारका अनुपालन कर, जनप्रतिनिधियों से मिलकर इतिहासका श्रवण करे। न्यायकार्यसम्पादनके अनन्तर गिने – चुने विद्वान् विश्वसनीय मन्त्रियोंसे मन्त्रणा करे। मन्त्रणा सर्वथा गुप्त हो, भावभङ्गिमादिके द्वारा अनुमित होने योग्य न हो। विश्वसनीय ज्यौतिषी, वैद्य तथा मन्त्रियोंके परामर्शको स्वीकार करे। वह रथ चलाने तथा शस्त्राभ्यासादिके द्वारा व्यायाम करे। भोजनके अनन्तर बायीं करवटसे कुछ देर लेटे।
शास्त्रोंका चिन्तन करे, सेना – शस्त्रागार और अन्नभण्डारका निरीक्षण करे। सायं कृत्यका सम्पादन करनेके अनन्तर गुप्तचर आदिको यथायोग्य कार्योंमें नियुक्त करे। भोजनादिसे निवृत्त होकर अन्त:पुरमें प्रवेश करे। वाद्य, सङ्गीत आदिके माध्यमसे मनोरञ्जनके अनन्तर सुरक्षित दशामें शयन करे।”
“राजा सत्सङ्ग, सङ्कीर्त्तन, शास्त्रचिन्तन, देवपूजन, आचार्यसेवा आस्थापूर्वक करे। वह देव तथा पितृकार्यका सम्पादन दक्षतापूर्वक करे। वह देहाकार तथा द्रव्याकार गरूडव्यूह, मकरव्यूह, चक्रव्यूह, श्येनव्यूह, अर्द्धचन्द्रव्यूह, वज्रव्यूह, शकटव्यूह, सर्वतोभद्रमण्डलव्यूह और सूचीव्यूह — संज्ञक नौ व्यूहकी संरचनामें दक्ष हो।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२९
रोगनिवारक दवाका सेवन करनेके अनन्तर माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श करके आचार्यका अभिवादन कर उनका अनुग्रह लाभ करे और राजसभामें प्रवेश करे। तदनन्तर शिष्टाचारका अनुपालन कर, जनप्रतिनिधियों से मिलकर इतिहासका श्रवण करे। न्यायकार्यसम्पादनके अनन्तर गिने – चुने विद्वान् विश्वसनीय मन्त्रियोंसे मन्त्रणा करे। मन्त्रणा सर्वथा गुप्त हो, भावभङ्गिमादिके द्वारा अनुमित होने योग्य न हो। विश्वसनीय ज्यौतिषी, वैद्य तथा मन्त्रियोंके परामर्शको स्वीकार करे। वह रथ चलाने तथा शस्त्राभ्यासादिके द्वारा व्यायाम करे। भोजनके अनन्तर बायीं करवटसे कुछ देर लेटे।
शास्त्रोंका चिन्तन करे, सेना – शस्त्रागार और अन्नभण्डारका निरीक्षण करे। सायं कृत्यका सम्पादन करनेके अनन्तर गुप्तचर आदिको यथायोग्य कार्योंमें नियुक्त करे। भोजनादिसे निवृत्त होकर अन्त:पुरमें प्रवेश करे। वाद्य, सङ्गीत आदिके माध्यमसे मनोरञ्जनके अनन्तर सुरक्षित दशामें शयन करे।”

“राजा सत्सङ्ग, सङ्कीर्त्तन, शास्त्रचिन्तन, देवपूजन, आचार्यसेवा आस्थापूर्वक करे। वह देव तथा पितृकार्यका सम्पादन दक्षतापूर्वक करे। वह देहाकार तथा द्रव्याकार गरूडव्यूह, मकरव्यूह, चक्रव्यूह, श्येनव्यूह, अर्द्धचन्द्रव्यूह, वज्रव्यूह, शकटव्यूह, सर्वतोभद्रमण्डलव्यूह और सूचीव्यूह — संज्ञक नौ व्यूहकी संरचनामें दक्ष हो।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२९