राजा के आभिगामिक (मिलनसार) गुण

राजगुण राजधर्म

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


आभिगामिक राजगुणः


कुलीनता, सत्त्वसम्पन्नता (समतासम्पन्नता), युवावस्था, शीलसम्पन्नता, दाक्षिण्य (सर्वहितशीलता), शीघ्रकारिता (उचित अवसरपर उचित निर्णयकी क्षमता), अविसम्वादिता (सुसंगतभाषण), सत्य, शीलनिधि विद्यावृद्धोंकी सेवा, कृतज्ञता, दैवसम्पन्नता (प्रतिकूल प्रारब्धके शोधन अनुकूलके वर्द्धनकी क्षमता), प्रज्ञा, अक्षुद्रपरिवारता (प्रशस्तपरिजन – सम्पादनशीलता), शक्यसामन्तता (चतुर्दिक् राजाओंको प्रमुदित तथा प्रभावित रखनेकी क्षमता), दृढ़भक्तिता (देव-द्विज-गुरु-प्राज्ञोंमें अडिग आस्था), दीर्घदर्शिता (देश – काल – व्यक्तिके सम्बन्धमें पारदर्शिता), उत्साह, शुद्धचित्तता, आलस्य – अभिमान – आसक्ति – स्वार्थान्धताविरहितता तथा सिद्धि – असिद्धिमें समचित्तता, परोत्कर्षसहिष्णुता, सत्य – प्रिय – हित तथा उद्वेगविहीन मृदु तथा मित वचनशीलता, स्थिरसम्बन्धनिर्वाहकता, चतुरश्रता (सज्जनसमादरशीलता), परीक्षितपरामर्शसेवनशीलता तथा दम – दया-दाननिपुणतादि सद्गुणोंसे राजा समन्वित हो।।
गुणवान राजा
वह विराट्, हिरण्यगर्भ तथा अन्तर्यामीकी उपासनाके अमोघ प्रभावसे अन्योंकी वेदनाको हृदयंगम करने और निवारण करनेमें उद्यत रह कर अपने अन्तर्यामित्वको विकसित करनेवाला हो। राजा राष्ट्रकी मेधाशक्ति, रक्षाशक्ति, वाणिज्यशक्ति और श्रमशक्तिका उचित प्रयोक्ता हो। वह इन चारों शक्तियोंके अनर्गल दोहन तथा दुरुपयोगसे राष्ट्रको सुदूर रखनेमें समर्थ हों।

लोभ, भय, कोरी भावुकता तथा अविवेक ; तद्वत् अहंकार, आलस्य, आसक्ति और स्वार्थान्धताके वशीभूत स्वयं न हो तथा उसके परामर्शदाता भी इन दुर्गुणोंके वशीभूत न हों। वह द्यूत, मद्य, मृगयादि दुर्व्यसनोंके चपेटसे मुक्त हो। उसके आचार्य, सखा तथा सेवक विनम्र और विवेकी हों।

वह नीति तथा प्रीति, स्वार्थ और परमार्थ, स्वच्छता एवम् शुद्धि, मेधा तथा श्रम, विद्या और कला, दया और विवेक ; तद्वत् कर्म एवम् उपासनाके साहचर्यसे निज जीवन तथा राज्यके संचालनमें दक्ष हो। वह स्वयं स्त्रैण न हो तथा स्त्रीलम्पटोंके सम्पर्कसे सुदूर हो। उसकी प्रत्येक गतिविधि समष्टि हितकी भावनासे भावित हो। उसके परामर्शदाता सामनीतिका दान, दण्ड, भेद, उपेक्षा, माया तथा इन्द्रजालके रूपमें उपयोग करनेमें निपुण हों।

गुणवान राजा
इन्द्रियजयरूप विनयसम्पन्न राजा शास्त्रनिष्ठा तथा शास्त्रानुशीलनके अमोघ प्रभावसे अद्भुत प्रज्ञा प्राप्त करे। वह श्रवणकी इच्छा (श्रवण), ग्रहण (मनन), धारण (निदिध्यासन), विवेकविज्ञानसम्पन्नता, ऊह (वितर्क), अपोह (अयुक्तयुक्तिका त्याग) तथा वस्तुस्वभावनिर्धारणात्मक तत्त्वज्ञानरूप प्रज्ञाके आठ गुणोंसे युक्त हो।
‘शुश्रूषाश्रवणग्रहणधारणविज्ञानोहापोहतत्त्वाभिनिवेशा: प्रज्ञागुणा:’ (कौटिल्य— अर्थशास्त्र ६.१.९६)

विनय तथा शास्त्रविज्ञानसम्पन्न राजाका स्व और पर — मण्डलकी श्री (लक्ष्मी) प्रसन्न होकर अवश्य वरण करती है।

काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान तथा मद — संज्ञक षड्वर्गके अवशीभूत विनयशील नृप आन्वीवीक्षिकी (आत्मविद्या तथा तर्कविद्या), ऋक्यजुः – सामसंज्ञक वेदत्रयी, वार्ता (कृषि, वाणिज्य, पशुपालन) तथा दण्डनीतिका विद्वान् मनीषियोंके सान्निध्यमें चिन्तन करे। आन्वीवीक्षिकीसे आत्मज्ञान तथा वस्तुके वास्तव स्वरूपका बोध होता है। वेदत्रयीके अनुशीलनसे धर्म तथा अधर्मका ज्ञान होता है। अर्थ और अनर्थका विवेक वार्ताके परिशीलनसे सम्भव है। न्याय तथा अन्याय दण्डनीतिके परिशीलनसे सम्भव है। —


आन्विक्षिकीं त्रयीं वार्त्तां दण्डनीतिं च पार्थिव:।
तद्विद्यैस्तत्क्रियोपेतैश्चिन्तयेद्विनयान्वित:।।

(अग्निपुराण २३८. ८)

आन्विक्षिक्यार्थविज्ञानं धर्माधर्मौ त्रयी स्थितौ।
अर्थनर्थौ तु वार्त्तायां दण्डनीत्यां नयानयौ।।

(अग्निपुराण २३८. ९)

राजा छठे भागरूप न्यायोपार्जित धनको न्यायोचित ढंगसे बढ़ावे। स्वजन तथा परजनसे उसकी रक्षा करे। उसका सत्पात्रमें नियोजन (यथायोग्य वितरण) करे।

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “राजधर्म” पृष्ठ संख्या ४७-४९

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