स्वकर्मणा सिद्धिं विन्दति

सनातन वर्णाश्रमव्यवस्था हिन्दुओंकी वस्तुस्थिति

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


स्वकर्मणा सिद्धिं विन्दति


सनातनधर्ममें फलचौर्य नहीं है। ब्राह्मणादिके सदृश शूद्रादि भी अपने – अपने कर्मोंका भगवत्समर्पण बुद्धिसे अनुष्ठान कर सिद्धि, सद्गति, और मुक्ति प्राप्त करनेमें अधिकृत हैं। यह तथ्य “स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धि: लभते नर: ।” (श्रीमद्भगवद्गीता १८.४५), “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।।” (श्रीमद्भगवद्गीता १८.४६), ‘स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुण: परिकीर्तित: । विपर्ययस्तु दोष: स्यादुभयोरेष निश्चय: ।।’ (श्रीमद्भागवत ११.२१.२) इन भगवद्वचनोंके अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है कि सनातनधर्ममें फलचौर्य नहीं है। अभिप्राय यह है कि अपने अधिकारकी सीमामें सम्प्राप्त कर्मोंके सम्पादनमें संलग्न व्यक्तिका सर्वविध उत्कर्ष सुनिश्चित है।
श्री कृष्ण
मानवजीवनका दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातलपर अद्भुत महत्त्व है। इसमें कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय तथा प्राणोंके सहित अन्त:करणका सम्यक् विकास है। यह कर्मायतन, भोगायतन तथा ज्ञानायतन होनेके कारण देवदुर्लभ मान्य है। इसमें धर्मसम्पादन, वैराग्य, भक्ति और भगवत्प्रबोधकी शक्ति सन्निहित है। अव एव स्त्री तथा शूद्रादिकी भी देवदुर्लभता निसर्गसिद्ध है।

मानवोचित स्नेह तथा सनातनसंस्कृतिके सर्वथा अनुरूप जीवनप्रणालीमें कुटीर तथा लघु उद्योगके सम्पादक शूद्रादिको वैश्य उचित लाभ देकर उन सामग्रियोंका उचित मूल्यपर विक्रय करते थे। वैश्य कृषि तथा गोपालनके द्वारा भी जीविकोपार्जन करते थे। क्षत्रिय सुरक्षा तथा धर्मयुद्धके द्वारा जीविकोपार्जन करते थे। ब्राह्मण अध्यापन, दान, यज्ञादि विविध अनुष्ठान और खेत – खलिहान तथा अनाजमण्डीमें अवशिष्ट अन्नके संचयसंज्ञक शिलोञ्छवृत्ति अयाचितवृत्तिसे, यज्ञदानअतिथिसेवादेवपितरपोषणतर्पणादि दैनन्दिन कृत्यका निर्वाह करते थे। ब्रह्मचारी और सन्यासी भिक्षावृत्तिसे तथा वानप्रस्थ कन्द – मूल तथा फलके चयनसे या भिक्षावृत्तिसे जीवननिर्वाह करते थे।

उक्तरीतिसे सनातनसंस्कृतिमें सबकी जीविका जन्मसे आरक्षित थी।

विद्वेष और अदूरदर्शितापूर्ण आरक्षणपद्धतिमें उभयपक्षकी प्रतिभाकी हानि, प्रगतिकी हानि, आरक्षणमें अधिकृतकी अपेक्षा नौकरीकी कमीके कारण अप्रायोगिकता, प्रतिशोधकी भावना और राष्ट्रकी पतोन्मुखता, परतन्त्रता या विखण्डतारूप पाँच दोष सन्निहित हैं।

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २४६-२४७

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