सनातन संविधान – “Hindu Law”

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


सनातन शासनतंत्र

धर्मनियंत्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त सर्वहितप्रद सनातन शासनतंत्र हमारा लक्ष्य है।

सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, सम्पन्न, सेवापरायण, स्वस्थ, और सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाजकी संरचना राजनीतिकी मन्वादि धर्मशास्त्रसम्मत विश्वस्तरपर सर्वसम्मत सार्वभौम परिभाषा है।

अन्योंके हितका ध्यान रखते हुए हिन्दुओं के अस्तित्व और आदर्शकी रक्षा, देशकी सुरक्षा और अखंडताके लिए कटिबद्धता हमारा व्रत है।

न्यायकी आधारशिला


पुनर्जन्म
पूर्वजन्म-पुनर्जन्म न्यायकी आधारशिला हैं। इन्हें स्वीकार किए बिना न्यायोचित व्यवस्थाका निर्माण असम्भव है।

मनुस्मृतिके तिरस्कारके कारण भारतमें नैतिक विपन्नता


भारतकी नैतिक विपन्नताका कारण उस संविधान (मनुस्मृति)का तिरस्कार है, जिसमें शिक्षा – रक्षा – कृषि – गोरक्ष्य – वाणिज्य – सेवा और कुटीर तथा लघु उद्योगको हर व्यक्ति तथा वर्गको सन्तुलितरूपसे सुलभ करानेकी अचूक विधा थी। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र संज्ञक चारों वर्णों की संख्याको आश्रमप्रथासे अपेक्षाके अनुरूप संतुलित रखनेकी क्षमता थी। जिसमें ब्रह्माधिष्ठित प्रकृतिप्रदत्त समस्त भेदभूमियोंके सदुपयोग और निर्भेद और निर्दोष परमात्मामें मनोयोगकी दिव्यता थी। जिसमें प्रवृत्तिका पर्यवसान निवृत्तिमें और निवृत्तिका पर्यवसान निर्वृत्ति (मुक्ति)में सुनिश्चित था। जिसकी आधारशिला देहके नाशसे जीवका अनाश और देहके भेदसे जीवमें अभेदकी वैदिकी गाथा थी।

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सूक्तिसुधा” पृष्ठ संख्या ३७ – ३८

सनातन संविधान – ‘ हिन्दु लॉ ’


हिन्दु लॉ
सनातनपरम्पराप्राप्त ऋग्वेदादिसम्मत वैदिक संविधान मन्वादि धर्मशास्त्रोंमें सन्निहित है। परतन्त्रताके बादसे अबतक उसके विरूप क्रियान्वित संविधानके कारण भारतके लिए संवैधानिक संक्रमण, सम्मिश्रण और संघर्षका समय है। आधुनिक शिक्षाप्रणालीसे शिक्षित हिन्दुओंमें कुछ हिन्दू, सनातनपरम्पराप्राप्त आचार और विचारको प्रगतिमें परिपन्थी मानकर देहात्मवादी तथा सनातन संविधानके विरोधी हो चुके हैं। आधुनिक शिक्षातन्त्रसे शिक्षित हिन्दुओंमें अधिकांश ‘आधा तीतर और आधा बटेर’ की कहावत चरितार्थ करने वाले देवार्चन, मन्त्रजप और यज्ञादिमें आस्थान्वित होते हुए भी ‘सबमें सबका अधिकार’ इस मान्यताके पक्षधर हैं। गिने – चुने महानुभाव ही सनातन सार्वभौम सिद्धान्तके मर्मज्ञ तथा पक्षधर शेष हैं। उन्हें समाजमें रूढ़िवादी, मनुवादी, संकीर्ण मनोभाववाला तथा कट्टर कहकर उपेक्षित तथा तिरस्कृत किया जाता है।

वस्तुस्थिति यह है कि दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातलपर सर्वोत्कृष्ट सनातन संविधानके संरक्षण और तदनुकूल शासनतन्त्रकी स्थापनाके लिए सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वरका अवतार होता है तथा सनातन संविधानके अनुरूप शासनका नाम ही धर्मराज्य और रामराज्य होता है।

Constitution
जिस संविधानके अनुरूप शासनतन्त्र होता है, वही क्रियान्वित हो पाता है। धर्म तथा अध्यात्मविहीन अदूरदर्शितापूर्ण यान्त्रिक विकासतक सीमित संविधानके अनुरूप शासनतन्त्र देहात्मवादका पोषक होनेके कारण वर्णसङ्करता तथा कर्मसङ्करताका ; तद्वत् बहिर्मुखता तथा विषयलोलुपताका उद्दीपक होता है। अत एव वह मनुष्यको मात्र भोजन करने तथा सन्तान उत्पन्न करनेवाला यन्त्र बनानेतक सीमित होता है। उसके फलस्वरूप मानवोचित शीलादिसे विहीन मनुष्य अन्य मनुष्यों तथा स्थावर – जङ्गम प्राणियोंके सहित स्वयंका भी विघातक सिद्ध होता है।

इस संवैधानिक सङ्क्रमण, सम्मिश्रण और सङ्घर्षके युगमें सर्वदेश, सर्वकाल तथा सर्वपरिस्थितिमें सर्वहितप्रद सनातन संविधानके प्रति सहिष्णुता उद्दीप्त करने तथा तदनुरूप शासनतन्त्रको विकसित करनेकी आवश्यकता है। विश्वको यह बतानेकी आवश्यकता है कि सर्व शरीरोंकी पाञ्च भौतिकता तथा आत्माकी सदृशता होनेपर भी वर्णाश्रमानुरूप अधिकारभेद चिकित्सागत प्रभेदके तुल्य स्वस्थ जीवन और समाजकी संरचनामें प्रयुक्त तथा विनियुक्त होने योग्य है। अभिप्राय यह है कि सर्व शरीरोंकी पाञ्च भौतिकता तथा आत्माकी सदृशता होनेपर भी सनातन शास्त्रसम्मत वर्णाश्रमानुरूप अधिकारभेद समस्त भेदभूमियोंका सदुपयोग करते हुए निर्भेद आत्मस्थितिका एकमात्र अमोघ उपाय है —

विशेषेण च वक्ष्यामि चातुर्वर्ण्यस्य लिङ्गत:।
पञ्चभूतशरीराणां सर्वेषां सदृशात्मनाम्।।

(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. ११)

लोकधर्मे च धर्मे च विशेषकरणं कृतम्।
यथैकत्वं पुनर्यान्ति प्राणिनस्तत्र विस्तर:।।

(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १२)

“यद्यपि सबके शरीर पाञ्च भौतिक हैं और सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा सर्वप्राणियोंमें सदृश ही है ; तथापि समस्त भेदभूमियोंका सदुपयोग करता हुआ अनात्मवस्तुओंसे विविक्त और सर्वाधिष्ठानभूत अद्वय आत्मामें व्यक्ति मन समाहित कर सके, तदर्थ बल और वेगका समुचित आधान वेदादिशास्त्रसम्मत वर्णाश्रमोचित भेदको स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं है। इस तथ्यका वैदिक वाङ्गमयमें विस्तारपूर्वक वर्णन है।।”
कमल
ध्यान रहे ; तत्त्वदर्शी महर्षियों और मुनियों द्वारा दृष्ट और प्रयुक्त कृषि, अग्निहोत्रादि लौकिक तथा पारलौकिक उत्कर्षके साधनोंको परिष्कृत और क्रियान्वित करनेमें हम अवश्य ही अधिकृत हैं ; परन्तु शिक्षा, रक्षा, कृषि, भवन, वाणिज्य, सेवा, यज्ञ, दान, तप, व्रत तथा देवार्चनादिसे सम्बद्ध सनातन विज्ञानका परित्याग कर नवीन उद्भावना और प्रयोगका आलम्बन लेने पर विकासके स्थानपर विनाशका पथ ही प्रशस्त कर सकते हैं। उन प्राचीन वैदिक महर्षियोंके बताये हुए उपायोंका इस समय भी जो श्रद्धापूर्वक भलीभाँति आचरण करता है, वह सुगमतासे अभीष्ट फल प्राप्त कर लेता है। परन्तु जो अज्ञ उनका अनादर करके अपने मन:कल्पित उपायोंका आश्रय लेता है, उसके सब उपाय और प्रयत्न पुनः -पुनः निष्फल होते हैं। अत एव सनातन वैदिक आर्यपरम्पराप्राप्त कृषि, जलसंसाधन, भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव – त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय, विवाहादिका देश, काल, परिस्थितिके अनुरूप बोध और क्रियान्वयनका प्रक्रम ही सर्वहितप्रद और सुखप्रद है —

अस्मिँल्लोकेऽथवामुस्मिन्मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभि:।
द‍ृष्टा योगा: प्रयुक्ताश्च पुंसां श्रेय:प्रसिद्धये।।

(श्रीमद्भागवत ४. १८. ३)

तानातिष्ठति य: सम्यगुपायान् पूर्वदर्शितान्।
अवर: श्रद्धयोपेत उपेयान् विन्दतेऽञ्जसा।।

(श्रीमद्भागवत ४. १८. ४)

ताननाद‍ृत्य योऽविद्वानर्थानारभते स्वयम्।
तस्य व्यभिचरन्त्यर्था आरब्धाश्च पुन: पुन:।।

(श्रीमद्भागवत ४. १८. ५)

तत्त्वदर्शी मुनियोंने इस लोक और परलोकमें मनुष्योंके कल्याण करनेके लिए कृषि, अग्निहोत्रादि बहुतसे उपाय निकाले और काममें लाये हैं। उन प्राचीन ऋषियोंके बताये हुए उन उपायोंका इस समय भी जो श्रद्धापूर्वक भलीभाँति आचरण करता है, वह सुगमतापूर्वक अभीष्ट फल प्राप्त कर लेता है। परन्तु जो अज्ञानी उनका अनादर करके अपने मन:कल्पित उपायोंका आश्रय लेता है, उसके सब उपाय और प्रयत्न पुनः-पुनः निष्फल होते हैं।।”
कमल
हिन्दूराष्ट्र भारतके संविधानका आधार

महाकल्पके प्रारम्भसे विश्वहृदय भारतकी ख्यातिका रहस्य वैदिक सनातन सिद्धान्त अवश्य ही आस्था योग्य है। कालगर्भित तथा कालातीत सर्व पदार्थोंका अधिगम इसके अनुशीलनसे सम्भव है। यह दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातलपर सर्वदेशमें, सर्वकालमें, सब परिस्थितिमें भूमि, जल, तेज, वायु, आकाशसहित सर्व स्थावर – जङ्गम प्राणियोंके लिए सर्वविध सुमङ्गल है। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्योपनिषत् ३. १४. १) — ‘निस्सन्देह यह सब सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्मकी अभिव्यक्ति होनेके कारण ब्रह्म है’, ‘अमृतस्य पुत्रा:’ (श्वेताश्वतरोपनिषत् २. ५) — ‘सच्चिदानन्दस्वरूप अमृत संज्ञक सर्वेश्वरसे अभिव्यक्त पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश – सहित समस्त स्थावर – जङ्गम प्राणी अमृतपुत्र हैं’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ (महोपनिषत् ६. ७१) — ‘पृथ्वीसे उपलक्षित चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्डसहित सर्व प्राणी परमात्मासे अभिव्यक्त परमात्मपरिवारके सदस्य सगे – सम्बन्धी हैं’, ‘सर्वेषां मङ्लं भूयात्’ (गरुडपुराण २. ३५. ५१; भविष्यपुराण २. ३५. १४), — ‘सबका मङ्ल हो’, ‘स्वस्त्यस्तु विश्वस्य’ (श्रीमद्भागवत ५. १८. ९)विश्वका कल्याण हो’, ‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’ (पद्मपुराण, सृष्टि. १९. ३५५, विष्णुधर्मोत्तर. ३. २५३. ४४) — ‘दूसरोंके द्वारा किये हुए जिस वर्तावको अपने लिये नहीं चाहते, उसे दूसरोंके प्रति भी नहीं करना चाहिये’ तथा ‘सर्वभूतहिते रता:’ (श्रीमद्भगवद्गीता ५. २५, १२. ४) — ‘सब प्राणियोंके हितमें रत’ — यह सनातन सिद्धान्त है।”
हिन्दु
उक्त हेतुओंसे सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, सम्पन्न, सेवापरायण, स्वस्थ, तथा सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाजकी संरचनाके उद्देश्यसे श्रुति – स्मृति – पुराण – इतिहासादि – सम्मत सार्वभौम सिद्धान्तके अनुरूप ‘सनातन संविधान – (हिन्दु लॉ)’ की आवश्यकता तथा उपयोगिता स्वतः सिद्ध है।”

श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ५३२