हिन्दू आदर्शोंका विलोप
सनातन वैदिक – आर्य – हिन्दुओंका उदात्त सिद्धांत प्रायः ग्रन्थोतक सीमित रह गया है। कूटज्ञ मेकालेकी चलायी गयी शिक्षा और तदनुकूल जीविकापद्धतिने संयुक्त परिवारको प्रायः विखण्डित कर दिया है। संयुक्त परिवारके विखण्डित होनेके कारण सनातन कुलधर्म, जातिधर्म, वर्णधर्म, आश्रमधर्म, कुलदेवी, कुलदेवता, कुलपुरोहित, कुलवधू, कुलवर, कुलपुरुष, कुलाचार, कुलोचित जीविका तथा कुलीनताका द्रुतगतिसे विलोप हो रहा है।
सनातनसंस्कृतिमें सबको नीति तथा अध्यात्मकी शिक्षा सुलभ थी। वर्तमान परिपेक्ष्यमें नीति तथा अध्यात्मविहीन साक्षरताको प्रश्रय और प्रोत्साहन प्राप्त होनेपर भी परिश्रमके प्रति अनभिरुचि और न्यायपूर्वक जीविकोपार्जनके प्रति अनास्थाके कारण बेरोजगारी, आत्महत्यामें प्रवृत्ति, आक्रोश और चतुर्दिक् अराजकतापूर्ण वातावरण महामत्स्यन्यायको प्रोत्साहित कर रहा है।
आर्थिक विपन्नता, कामक्रोधकी किंकरता और लोभकी पराकाष्ठाने मनुष्योंको पिशाचतुल्य उन्मत्त बनाना प्रारम्भ किया है।
धन, मान, प्राण तथा परिजनमें समासक्त तथा पार्टी और पन्थोंमें विभक्त हिन्दु अपने अस्तित्व और आदर्शको एवम् भारतके महत्त्वको सुव्यवस्थित रखनेमें सर्वथा असमर्थ हैं।
सन्धि, विग्रह (युद्ध), यान (आक्रमण), आसन (आत्मरक्षा), द्वैधिभाव (कपट) और समाश्रय (मित्रोंसे सहयोग लाभकर शत्रुजय) — संज्ञक छह राजगुणरूप षड्यंत्रकारियोंद्वारा प्रयुक्त छलबलसमन्वित साम, दान, दण्ड, भेद, उपेक्षा, इन्द्रजाल, और मायाके विवश हिन्दू हतप्रभ, मूर्छित तथा मृतप्राय हो चुका है।
सत्तालोलुपता और अदूरदर्शिताके कारण दिशाहीन शासनतन्त्र तथा व्यापारतन्त्रके वशीभूत हिन्दुओंके द्वारा ही हिन्दुओंके अस्तित्व और आदर्शका अपहरण द्रुतगतिसे हो रहा है।
क्लबके माध्यमसे अश्लील मनोरंजन तथा मादक द्रव्योंकी दासता पल रही है। क्लासके माध्यमसे शील एवम् सम्पत्तिका अपहरण हो रहा है। कोर्टके माध्यमसे शील, सम्पत्ति, स्नेह एवम् समयका अपहरण हो रहा है। विदेशी षड्यंत्रकारियोंके अग्रदूत, पृष्ठपोषक और यन्त्रभूत भारत के शासक हिन्दुओंके घातक सिद्ध हो रहे हैं।
दिशाहीन न्यायतन्त्र समय, स्नेह, शील, सम्पत्तिके शोषणका संस्थान सिद्ध है। नीति तथा अध्यात्मविहीन शिक्षा तथा शिक्षण — संस्थानोंका केवल धन, मानके लिए उपयोग एवम् विनियोग धर्मद्रोह और अराजकता का स्रोत है।
नगर तथा महानगर — परियोजनाके नामपर ग्राम, वन, भूधर (पर्वत), खनिज द्रव्योंका द्रुत गतिसे विलोप जनजीवनके लिए भीषण अभिशाप है। उन्मादपूर्ण जन – जीवन, घातक अस्त्र – शस्त्रों की बहुलता, सम्वाद और संचार साधनोंकी सघनता तथा क्षात्रधर्मविहीनताके कारण प्रत्येक व्यक्ति और संस्थान अरक्षित है। हाय धन, हाय जन, हाय मान, हाय प्राण, हाय परिजनतक सीमित जीवन मानवजीवनकी अपूर्वताका विघातक है।
धर्मच्युति, परिवारनियोजन, गर्भपात, गोवध, मेधा – रक्षा – वाणिज्य और श्रमशक्तिके अनर्गल दोहन तथा दुरुपयोग, तीर्थविलोप आदि दुश्चक्रके कारण सनातन – आर्य – हिन्दुओंका अस्तित्व तथा आदर्श तीव्रगतिसे विलुप्त हो रहा है। विकासके नामपर गोवंश, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभ, दानशील, गंगादि; तद्वत वन, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम, पुरी, सनातनशिक्षापद्धति, कृषि, कुटीर तथा लघु उद्योग, खनिज पदार्थ और सेवाप्रकल्पका विलोप, अराजक तत्त्वोंका राष्ट्रीयस्तरपर वर्चस्व तथा देशकी सीमाका संकोच, धर्म, अर्थ, काम, तथा मोक्ष – संज्ञक पुरुषार्थ चतुष्टयसे विहीन व्यक्ति और समाजका निर्माण नि:सन्देह विचारशीलोंको विह्वल बनानेवाला है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २४०-२४५