सर्वेषां तुल्यदेहानां सर्वेषां सदृशात्मनाम्

सनातन धर्म सनातन वर्णाश्रमव्यवस्था

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


सर्वेषां तुल्यदेहानां सर्वेषां सदृशात्मनाम्


विशेषेण च वक्ष्यामि चातुर्वर्ण्यस्य लिङ्गत:।
पञ्चभूतशरीराणां सर्वेषां सदृशात्मनाम्।।

(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. ११)

लोकधर्मे च धर्मे च विशेषकरणं कृतम्।
यथैकत्वं पुनर्यान्ति प्राणिनस्तत्र विस्तर:।।

(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १२)

“अब मैं चारों वर्णोंका विशेषरूपसे लक्षण बता रहा हूँ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — इन चारों वर्णोंके शरीर पञ्च महाभूतोंसे ही बने हुए हैं और सब शरीरोंमें सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा भी एकरूप ही है (एक जैसी ही है)। फिर भी उनके लौकिक धर्म और विशेष धर्ममें विभिन्नता रखी गयी है (लौकिक और वर्णाश्रमादि विशेष धर्मोंका विभाग)। इसका उद्देश्य यही है कि सब लोग अपने-अपने धर्मका पालन करते हुए पुनः एकत्वको प्राप्त हों (समस्त भेदभूमियोंका सदुपयोग और निर्भेद आत्मस्थितिकी स्फूर्ति)। इस तथ्यका प्रकाश सनातन शास्त्रोंमें विस्तारसे किया गया है।।”
कमल
अध्रुवो हि कथं लोकः स्मृतो धर्म: कथं ध्रुव:।
यत्र कालो ध्रुवस्तात तत्र धर्म: सनातन:।।

(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १३८)

“तात ! यदि कहो कि धर्म तो नित्य माना गया है, तब उससे अनित्य स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति कैसे होती है ? अभिप्राय यह है कि अनित्य स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त करानेवाला धर्म नित्य कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि जब धर्मका संकल्प नित्य होता है अर्थात् अनित्य कामनाओंका त्याग करके निष्कामभावसे धर्मका अनुष्ठान किया जाता है, उस समय किये हुए धर्मसे सनातन लोक (नित्य परमात्मा)-की प्राप्ति होती है — ध्रुव ब्रह्मात्मतत्त्वकी समुपलब्धिकी भावनासे निष्कामभावसे अनुष्ठित स्वधर्माचरणके फलस्वरूप जब उत्तरायण मार्गसे आवृत्तिरहित उत्क्रमण होता है या इस लोकमें ही ब्रह्मविद्यारूप मोक्षधर्मके अनुष्ठानके फलस्वरूप विस्मृत कण्ठाभरणवत् नित्यात्मतत्त्वका अधिगम होता है, तब धर्मका फल सनातन (अव्यय) होता है।”

“अभिप्राय यह है कि जब प्रवृत्तिका पर्यवसान निवृत्तिमें और निवृत्तिका पर्यवसान निवृतिरूपा मुक्तिमें होता है, तब धर्मका फल नित्य होता है। जीव जब नित्यके वरणका सङ्ल्पकर तदर्थ धर्मानुष्ठानमें प्रवृत्त होता है, तब नित्यात्मतत्त्वरूपसे अवस्थान ही धर्मानुष्ठानका फल होता है।।”

नित्यधर्म
सर्वेषां तुल्यदेहानां सर्वेषां सदृशात्मनाम्।
कालो धर्मेण संयुक्त: शेष एव स्वयं गुरु:।।

(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १४)

सब मनुष्योंके शरीर एक-से होते हैं (पाञ्चभौतिक) तथा सबकी आत्मा भी समान ही है — आत्माकी सच्चिदानन्दरूपताकी दृष्टिसे भी सबमें समानता है; किंतु धर्मयुक्त संकल्प ही यहाँ शेष रहता है, दूसरा नहींविभेदक वर्णाश्रमधर्मसे संयुक्त कलनात्मक गुरुरूप काल सर्व भेदोंका सदुपयोग कराकर कर्त्ताको निर्भेद स्वप्रकाश आत्मस्वरूपसे स्वयं ही शेष रखता है। अभिप्राय यह है कि कलनात्मिका शक्तिसे अवच्छिन्न चित् – संज्ञक काल है। वह अभेदमें सकल भेदोंका सर्जनकर सकल भेदोंके सदुपयोगकी भावनासे विभेदक और विशोधक वर्णाश्रमधर्मका विधायक है। वह वर्णाश्रमधर्मके योगसे पञ्च भूतोंके तारतम्यसङ्घात शरीरोंकी पाञ्चभौतिकताका तथा पञ्चभूतोंकी त्रिगुणमयताका और त्रिगुणकी प्रकृतिरूपताका और मायाशक्तिरूपा प्रकृतिकी महेश्वररूपताका और कर्त्ता जीवकी सच्चिदानन्दस्वरूप महेश्वररूपताका विज्ञापक शेषसंज्ञक गुरु है — काल स्वयं ही गुरु है अर्थात् धर्मबलसे स्वयं ही उदित होता है।।”
धर्मयुक्त संकल्प
एवं सति न दोषोऽस्ति भूतानां धर्मसेवने।
तिर्यग्योनावपि सतां लोक एव मतो गुरु:।।

(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १५)

“ऐसी स्थितिमें समस्त प्राणियोंके लिए पृथक् – पृथक् धर्मसेवनमें कोई दोष नहीं है। तिर्यग्योनिमें पड़े हुए पशु – पक्षियोंके लिए भी प्राणियोंके अभुक्त धर्मके योगसे एकको अनेक करनेवाला और निवृत्तिधर्मके योगसे अनेकको एक करनेवाला आलोकात्मक यह काल ही गुरु (कर्तव्याकर्तव्यका निर्देशक) है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १०६-१०७

related Posts