स्वभावविहितो धर्मो
शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनहङ्कृत:।
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।।
(मनुस्मृति ९. ३३५)
“बाह्याभ्यन्तर शुद्ध, अपनेसे श्रेष्ठ वर्णवालोंकी सेवा, मधुर भाषण करनेवाला, निरहङ्कार, सदा ब्राह्मणादिके सम्पर्कमें रहनेवाला शूद्र उत्कृष्ट जातिको प्राप्त होता है।।”
पूर्व गुण और कर्मानुसार मानव जीवन, जन्मानुरूप वर्ण, वर्णानुरूप आश्रम और वर्णाश्रमानुरूप कर्मकी व्यवस्था स्वीकार करते ही पूर्वजन्म और पुनर्जन्ममें आस्था अपेक्षित है। पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्ममें आस्था देहात्मवादसे ऊपर उठाकर स्वर्ग और मोक्षका मार्ग प्रशस्त करती है। शूद्रादि भी वर्णानुरूप काम करते हुए और उच्च वर्णका सङ्ग लाभ करते हुए एवम् ब्राह्मणोचित शम – दमादि शील धारण करते हुए उत्कर्ष प्राप्त करते हैं। अभिप्राय यह है कि स्वभावानुरूप कर्मालम्बनसे मनुष्य कालक्रमसे स्वभावज कर्मका अतिक्रमणकर निर्गुण, निष्क्रिय ब्रह्मपद प्राप्त करता है। ब्राह्मणोचित शील और स्वभावसे सबका हित सुनिश्चित है, ब्राह्मणोचित शीलका परित्याग ब्राह्मणोंके भी अपकर्षमें हेतु है। —
प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे।
वेददृग्भि: स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. ३१)
“राजन् ! वेददर्शी ऋषि – मुनियोंने युग – युगमें प्रायः मनुष्योंके स्वभावके अनुसार धर्मकी व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी है।।”

वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमान: स्वकर्मकृत्।
हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. ३२)
“जो स्वाभाविक वृत्तिका आश्रय लेकर अपने स्वधर्मका पालन करता है, वह धीरे – धीरे उन स्वाभाविक कर्मोंसे भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है।।”

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युति:।
मुखबाहूरूपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्।।
(मनुस्मृति १. ८७)
“उस महातेजस्वी ब्रह्माने इस सम्पूर्ण सृष्टिकी रक्षाके लिये ब्राह्मणों – क्षत्रियों – वैश्यों और शूद्रोंके पृथक् – पृथक् कर्मोंकी सृष्टि की।।”

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।
(मनुस्मृति १. ८८)
“उन्होंने अध्यापन कराना, अध्ययन करना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना ब्राह्मणोंके लिये सुनिश्चित किया।।”

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासत:।।
(मनुस्मृति १. ८९)
“उन्होंने प्रजाकी रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना और विषयोंमें अनासक्त रहना — इन कर्मोंको मुख्यरूपसे क्षत्रियोंके लिये बनाया।।”

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।।
(मनुस्मृति १. ९०)
“पशुओंकी रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना, व्याज लेना और खेती करना — इन कर्मोंको वैश्योंके लिये बनाया।।”

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।।
(मनुस्मृति १. ९१)
“श्रीब्रह्माजीने अनिन्दक रहते हुए ब्राह्मणादि तीनों वर्णोंकी सेवा करना ही शूद्रोंके लिये प्रधान कर्म बनाया।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १०९-१११
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।।
(मनुस्मृति ९. ३३५)
“बाह्याभ्यन्तर शुद्ध, अपनेसे श्रेष्ठ वर्णवालोंकी सेवा, मधुर भाषण करनेवाला, निरहङ्कार, सदा ब्राह्मणादिके सम्पर्कमें रहनेवाला शूद्र उत्कृष्ट जातिको प्राप्त होता है।।”
पूर्व गुण और कर्मानुसार मानव जीवन, जन्मानुरूप वर्ण, वर्णानुरूप आश्रम और वर्णाश्रमानुरूप कर्मकी व्यवस्था स्वीकार करते ही पूर्वजन्म और पुनर्जन्ममें आस्था अपेक्षित है। पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्ममें आस्था देहात्मवादसे ऊपर उठाकर स्वर्ग और मोक्षका मार्ग प्रशस्त करती है। शूद्रादि भी वर्णानुरूप काम करते हुए और उच्च वर्णका सङ्ग लाभ करते हुए एवम् ब्राह्मणोचित शम – दमादि शील धारण करते हुए उत्कर्ष प्राप्त करते हैं। अभिप्राय यह है कि स्वभावानुरूप कर्मालम्बनसे मनुष्य कालक्रमसे स्वभावज कर्मका अतिक्रमणकर निर्गुण, निष्क्रिय ब्रह्मपद प्राप्त करता है। ब्राह्मणोचित शील और स्वभावसे सबका हित सुनिश्चित है, ब्राह्मणोचित शीलका परित्याग ब्राह्मणोंके भी अपकर्षमें हेतु है। —
प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे।
वेददृग्भि: स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. ३१)
“राजन् ! वेददर्शी ऋषि – मुनियोंने युग – युगमें प्रायः मनुष्योंके स्वभावके अनुसार धर्मकी व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी है।।”

वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमान: स्वकर्मकृत्।
हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात्।।
(श्रीमद्भागवत ७. ११. ३२)
“जो स्वाभाविक वृत्तिका आश्रय लेकर अपने स्वधर्मका पालन करता है, वह धीरे – धीरे उन स्वाभाविक कर्मोंसे भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है।।”

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युति:।
मुखबाहूरूपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्।।
(मनुस्मृति १. ८७)
“उस महातेजस्वी ब्रह्माने इस सम्पूर्ण सृष्टिकी रक्षाके लिये ब्राह्मणों – क्षत्रियों – वैश्यों और शूद्रोंके पृथक् – पृथक् कर्मोंकी सृष्टि की।।”

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।
(मनुस्मृति १. ८८)
“उन्होंने अध्यापन कराना, अध्ययन करना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना ब्राह्मणोंके लिये सुनिश्चित किया।।”

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासत:।।
(मनुस्मृति १. ८९)
“उन्होंने प्रजाकी रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना और विषयोंमें अनासक्त रहना — इन कर्मोंको मुख्यरूपसे क्षत्रियोंके लिये बनाया।।”

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।।
(मनुस्मृति १. ९०)
“पशुओंकी रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना, व्याज लेना और खेती करना — इन कर्मोंको वैश्योंके लिये बनाया।।”

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।।
(मनुस्मृति १. ९१)
“श्रीब्रह्माजीने अनिन्दक रहते हुए ब्राह्मणादि तीनों वर्णोंकी सेवा करना ही शूद्रोंके लिये प्रधान कर्म बनाया।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १०९-१११