धर्म और अर्थ नामक पुरुषार्थोंका विलोप
इस यान्त्रिक युगमें प्रगतिके नामपर धर्म और मोक्षप्रद ईश्वरको विकासका परिपन्थी माना जाता है। अत एव धर्म और मोक्ष नामक दो पुरुषार्थोंका त्याग यान्त्रिक युगका विशेष उपहार है। मद्य, द्यूत, हिंसा आदि अनर्थप्रभव आर्थिक परियोजनाओंके फलस्वरूप अर्थका पर्यवसान अनर्थमें परिलक्षित है। दरिद्रताके समस्त स्त्रोतोंको समृद्धिका स्त्रोत माननेके कारण आर्थिक विपन्नता सम्भावित तथा परिलक्षित है। अत एव यान्त्रिकयुगमें अर्थ नामक पुरुषार्थका विलोप सुनिश्चित है।
अश्लील मनोरंजन, मादक द्रव्य, कुल – शीलविहीन विवाह, देश – कालका अतिक्रमण, असंस्कृत जीवन और कुलधर्मविहीनतादि हेतुओंसे काम पुरुषार्थका विलोप सम्भावित तथा परिलक्षित है। प्रगतिके नामपर पुरुषार्थविहीन मानवजीवनकी संरचना भीषण अभिशाप और विचित्र विडम्बना है।
परमात्मा, पुण्य और पुण्यात्माको प्रगतिके नामपर परिपन्थी मानना – जीवन तथा जगत् को संतप्त करनेका भीषण अभियान है। परमात्माकी शक्ति प्रकृति, प्रकृतिके परिकर आकाश, वायु, तेज, जल तथा पृथ्वीको विकासके नामपर विकृत, दूषित तथा कुपित (क्षुब्ध) करना स्वयंके तथा सबके हितपर पानी फेरना है। पृथ्वीके जंगमरूप गोवंशको विकासके नामपर विकृत, दूषित तथा कुपित (क्षुब्ध) और विलुप्त करना पर्यावरणके लिए विघातक, सर्वपोषक यज्ञमय तथा योगमय जीवनका विलोपक है।
गंगादि नदियोंके भुव: आदि ऊर्ध्वलोक उद्गमस्थल हैं, भूमण्डल इनका प्रवाहस्थल है और अतलादि अधोलोक इनके अन्तर्धानस्थल हैं। अत एव गंगादि त्रिपथगा हैं। विकासके नामपर इन्हें विकृत, दूषित, कुपित (क्षुब्ध) और विलुप्त करनेका अभियान सर्वविनाशक भीषण अभिशाप है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३९-२४०