दण्डनीति

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


दण्डनीतिः राजधर्म इत्युच्यते


सर्वे धर्मा राजधर्मप्रधाना: सर्वे वर्णा: पाल्यमाना भवन्ति।
सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजं-स्त्यागं धर्मं चाहुरग्य्रं पुराणम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६३. २७)

“सब धर्मोंमें राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सब वर्णोंका पालन होता है। राजन् ! राजधर्ममें धन – मान – प्राण – परिजन सब प्रकार के त्याग का समावेश है। ऋषिगण त्यागको सर्वश्रेष्ठ तथा प्राचीन धर्म बताते हैं।।”
राजधर्म
मज्जेत् त्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धर्मा: प्रक्षयेयुर्विबुद्धा:।
सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हता: स्यु: क्षात्रे त्यक्ते राजधर्मे पुराणे।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६३. २८)

“यदि दण्डनीति नष्ट हो जाय तो तीनों वेद रसातलको चले जायँ और वेदोंके नष्ट होनेसे समाजमें प्रचलित सब धर्मोंका नाश हो जाय। पुरातन राजधर्म जिसे क्षात्रधर्म भी कहते हैं, यदि लुप्त हो जाय तो आश्रमोंके सम्पूर्ण धर्मोंका ही लोप हो जाय।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २०५ – २०६

दण्डस्य सम्यक् प्रयोक्ता


पूज्यन्त्ये दण्डिनो देवैर्न पूज्यन्ते त्वदण्डिन:।
न ब्रह्मणं विधातारं न पूषार्यमणावपि।।

(मत्स्यपुराण २२५. १२)

यजन्ते मानवा: केचित् प्रशान्ता: सर्वकर्मसु।
रुद्रमग्निं च शक्रं च सूर्याचन्द्रमसौ तथा।।

(मत्स्यपुराण २२५. १३)

विष्णुं देवगणांश्चान्यान् दण्डिन: पूजयन्ति च।
दण्ड: शास्ति प्रजा: सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।।

(मत्स्यपुराण २२५. १४)

साम, भेद तथा दानरूप त्रिविध उपायोंसे वशमें न होनेवालेको दण्डसे वशमें करना चाहिये। दण्डनीयको दण्ड न देनेसे और अदण्डनीयको दण्ड देनेसे राजा जीवनकालमें राजच्युत होता है, मरनेके बाद नरक प्राप्त करता है। दण्डका समुचित उपयोग तथा प्रयोग करनेवाला देवोंद्वारा भी पूजित होता है, किन्तु दण्ड न देनेवाला कहीं भी पूजित नहीं होता। ब्रह्मा, धाता – पूषा – अर्यमा (द्वादश आदित्योंमें तीन) समदर्शी, जितेन्द्रिय तथा प्रशान्त रहते हैं; अतः प्रशान्त मनुष्य ही उनकी पूजा करते हैं; जब कि दण्ड देनेवाले वसु, वायु, साध्य, मरूद्गण, यम, स्कन्द, रुद्र, अग्नि, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु तथा अन्य देवगणकी सब पूजा करते हैं। दण्ड सम्पूर्ण प्रजापर शासन करता है। दण्ड ही सबकी रक्षा करता है।।”
सूर्य भगवान
य एव देवा हन्तारस्ताँल्लॊकॊऽर्चयते भृशम्।
हन्ता रुद्रस्तथा स्कन्दः शक्रॊऽग्निर्वरुणॊ यमः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १५. १६)

हन्ता कालस्तथा वायुर्मृत्युर्वैश्रवणॊ रविः।
वसवॊ मरुतः साध्या विश्वेदेवाश्च भारत।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १५. १७)

एतान् देवान् नमस्यन्ति प्रतापप्रणता जनाः।
न ब्रह्माणं न धातारं न पूषाणं कथञ्चन।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १५. १८)

मध्यस्थान् सर्वभूतेषु दान्ताञ्शमपरायणान्।
यजन्ते मानवाः केचित् प्रशान्ताः सर्वकर्मसु।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १५. १९)

“जो देवता दूसरोंको दण्ड देनेवाले हैं, उन्हींकी संसार अधिक पूजा करता है। रुद्र, स्कन्द, इन्द्र, अग्नि, वरुण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, सूर्य, वसु, मरूद्गण, साध्य तथा विश्वेदेव —— ये सब देवता अपराधीको दण्ड देते हैं; अतः इनके प्रतापके सामने नतमस्तक होकर सब इन्हें नमस्कार करते हैं। परन्तु ब्रह्मा, धाता, पूषाकी कोई किसी तरह पूजा – अर्चा नहीं करते। कारण यह है कि सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति समभाव रखनेके कारण वे मध्यस्थ, जितेन्द्रिय तथा शान्तिपरायण हैं। जो शान्त स्वभावके मनुष्य हैं, वे ही समस्त कर्मोंमें इनकी पूजा करते हैं।।”
ब्रह्मा जी
यस्माद् दण्डो दमयति दुर्मदान् दण्डयत्यपि।
दमनाद् दण्डनाच्चैव तस्माद् दण्डं विदुर्बुधा:।।

(मत्स्यपुराण २२५. १७)

“चूँकि दण्ड दमन करता है और दुर्मदोंका दण्डन भी करता है, अत एव दमन करने तथा दण्ड देनेके कारण बुद्धिमान् उसे दण्ड जानते हैं।।”

गुरॊरप्यवलिप्तास्य कार्याकार्यमजानतः।
उत्पथंप्रतिपन्नस्य दण्डॊ भवति शासनम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १४०. ४८)

“यदि गुरु भी घमण्डमें भरकर कर्त्तव्य और अकर्त्तव्यको नहीं समझ रहा हो और बुरे मार्गपर चलता हो तो उसके लिये भी दण्ड देना उचित है। दण्ड उसे मार्गपर लाता है।।”

सम्यक् प्रणयतॊ दण्डं भूमिपस्य विशाम्पते।
युक्तस्य वा नास्त्यधर्मॊ धर्म एव हि शाश्वतः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. २३)

प्रजानाथ ! जो भलीभाँति विचार करके अपराधीको उचित दण्ड देता है और अपने कर्त्तव्यपालनके लिये सदा उद्यत रहता है; उस राजाको वध और बन्धनका पाप नहीं लगता, अपितु उसे सनातनधर्मकी ही समुलब्धि होती है।।”

कारागार

दुर्जनोंके दमन तथा सज्जनोंके संरक्षणके लिये दण्डकी आवश्यकता है। जब संयमी देह, इन्द्रिय, प्राण और अन्त:करणको संयत करनेमें दण्डका उपयोग करते हैं, तब वे अभ्युदय और निःश्रेयसकी सिद्धिमें समर्थ होते हैं। अतः दण्ड धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षरूप पुरुषार्थ चतुष्टयका साधक है। दण्ड लक्ष्मी है, सरस्वती है, वृत्ति (जीविका) है। उपेयकी सिद्धि उपायके अधीन होती है, अतः दण्डके सदुपयोग और दुरुपयोगसे सम्भव सब कुछ दण्डात्मक ही है। दण्डके सदुपयोगसे सम्भव अर्थ, सुख, धर्म, बल, सौभाग्य, गुण, अप्रमाद, उल्लास, हर्ष, शम, दम, पौरुष, अभय, मोक्ष, अहिंसा, विनय, यज्ञ, दान, तप, उद्योग, श्रद्धा, जय, शील, लज्जा आदि दण्ड – संज्ञक हैं। इसके विपरीत अनर्थ, दुःख, अधर्म, अबल, दौर्भाग्य, अवगुण, प्रमाद, आलस्य, विषाद, अशान्ति, असंयम, अकर्मण्यता, भय, बन्ध, हिंसा, उच्छृङ्खलता, सङ्ग्रह, शोषण, असंयमादि भी इनके वशीभूत जीवको दण्डित करनेके कारण दण्डात्मक ही हैं।

त्रयाणां विफलं कर्म यदा पश्येत भूमिप:।
रन्ध्रं ज्ञात्वा ततो दण्डं प्रयुञ्जीताविचारयन्।।

(महाभारत — शान्तिपर्व ९४ दा०)

राजा जब साम, दान और भेद — तीनों नीतियोंका प्रयोग निष्फल देखे, तब शत्रुकी दुर्बलताका पता लगाकर दूसरा कोई विचार मनमें न लाते हुए दण्डनीतिका ही प्रयोग करे — शत्रुके साथ युद्ध छेड़ दे।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २०६ – २०९

शत्रुप्रति राज्ञः व्यवहारः


व्यवहारकुशल राजाको इस तथ्यका ध्यान रखना चाहिए कि —

यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्य स्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्म:।
मायाचारो मायया वाधितव्य: साध्वाचार: साधुना प्रत्युपेय:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १०९. ३०)

“जो मनुष्य जिसके साथ जैसा व्यवहार करे, उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार करना चाहिये; यह धर्म (न्याय) हैमाया (कपट) — पूर्ण आचरण करनेवालेको वैसे ही आचरणके द्वारा दबाना उचित है और सदाचारीको सदाचारके द्वारा ही अपनाना उचित है।।”
न्याय
वासनायास्तथा वह्नेरृणव्याधिद्विषामपि।
स्नेहवैरविषाणां च शेषः स्वल्पोऽपि बाधते।।

(अन्नपूर्णोपनिषत् ५. १७)

वासना, अग्नि, ऋण, व्याधि, शत्रु, स्नेह, वैर तथा विषका स्वल्प शेष भी कष्टकर है।।”

ऋणशेषमाग्निशेषं शत्रुशेषं तथैव च।
पुनः पुनः प्रवर्धन्ते तस्माच्छेषं न धारयेत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १४०. ५८)

ऋण, अग्नि और शत्रुमें कुछ शेष रह जाय तो वह पुनः – पुनः बढ़ता रहता है; अतः इनमेंसे किसीको शेष नहीं छोड़ना चाहिये।।”

वर्धमानमृणं तिष्ठेत् परिभूताश्च शत्रवः।
जनयन्ति भयं तीव्रं व्याधयश्चाप्युपेक्षिताः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १४०. ५९)

“यदि बढ़ता हुआ ऋण रह जाय, तिरस्कृत शत्रु जीवित रहें और उपेक्षित रोग शेष रह जायँ तो ये सब तीव्र भय उत्पन्न करते हैं।।”
शत्रु
नासम्यक्कृतकारी स्यादप्रमत्तः सदा भवेत्।
कण्टकॊऽपि हि दुश्छिन्नॊ विकारं कुरुते चिरम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १४०. ६०)

“किसी कार्यको अच्छी तरह सम्पन्न किये बिना न छोड़े, सदा अप्रमत्त रहे। शरीरमें गड़ा हुआ काँटा भी यदि पूर्णरूपसे निकाल न दिया जाय —— उसका कुछ भाग शरीरमें ही टूटकर रह जाय तब वह दीर्घकालतक विकार उत्पन्न करता है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २१० – २१२

नित्यमुद्यत दण्डश्च रिषु


दानशीलो भवेद् राजा यज्ञशीलश्च भारत।
उपवासतप:शील: प्रजानां पालने रत:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. २)

“भरतनन्दन! राजाको सदा ही दानशील, यज्ञशील, उपवास तथा तपस्यामें तत्पर एवं प्रजापालनमें संलग्न रहना चाहिये।।”
नित्यमुद्यत दण्डश्च रिषु
सर्वाश्चैव प्रजा नित्यं राजा धर्मेण पालयेन्।
उत्थानेन प्रदानेन पूजयेच्चापि धार्मिकान्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. ३)

समस्त प्रजाओंका सदा धर्मपूर्वक पालन करनेवाले राजाको घरपर आये हुए धर्मात्मा पुरुषोंका खड़ा होकर स्वागत करना चाहिये और उत्तम वस्तुएँ देकर उनका आदर-सत्कार करना चाहिये।।”

राज्ञा हि पूजितॊ धर्मस्ततः सर्वत्र पूज्यते।
यद् यदाचरते राजा तत् प्रजानां स्म रॊचते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. ४)

राजाद्वारा जब जिस धर्मका समादर किया जाता है, उसका फिर सर्वत्र समादर होने लगता है; क्योंकि राजा जो-जो कार्य करता है, प्रजावर्गको वही करना अच्छा लगता है।।”
नित्यमुद्यत दण्डश्च रिषु
नित्यमुद्यतदण्डश्च भवेन्मृत्युरिवारिषु।
निहन्यात् सर्वतॊ दस्यून् न कामात् कस्यचित् क्षमेत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. ५)

राजाको चाहिये कि वह शत्रुओंको यमराजकी भाँति सदा दण्ड देनेके लिये सदा उद्यत रहे। वह डाकुओं और लुटेरोंको सब ओरसे पकड़कर मार डाले। स्वार्थवश किसी दुष्टके अपराधको क्षमा न करे।।”

यं हि धर्मं चरन्तीह प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः।
चतुर्थं तस्य धर्मस्य राजा भारत विन्दति।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. ६)

“भारत! राजाद्वारा सुरक्षित हुई प्रजा यहाँ जिस धर्मका आचरण करती है, उसका चौथा भाग राजाको भी मिल जाता है।।”

यदधीते यद् ददाति यज्जुहोति यदर्चति।
राजा चतुर्थभाक् तस्य प्रजा धर्मेण पालयन्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. ७)

प्रजा जो स्वाध्याय, जो दान, जो होम और जो पूजन करती है, उन पुण्य कर्मोंका एक चौथाई भाग उस प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करनेवाला नरेश प्राप्त कर लेता है।।”
एक चौथाई भाग
यद् राष्ट्रेऽकुशलं किञ्चिद् राज्ञॊऽरक्षयतः प्रजाः।
चतुर्थं तस्य पापस्य राजा भारत विन्दति।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. ८)

“भरतनन्दन! यदि राजा प्रजाकी रक्षा नहीं करता तो उसके राज्यमें प्रजा जो कुछ भी अशुभ कार्य करती है, उस पाप कर्मका एक चौथाई भाग राजाको भोगना पड़ता है।।”

अप्याहुः सर्वमेवेति भूयॊऽर्धमिति निश्चयः।
कर्मणः पृथिवीपाल नृशंसॊऽनृतवागपि।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. ९)

“पृथ्वीपते ! कुछ महानुभावोंका यह मत है कि उक्त दशामें राजाको पूरे पापका भागी होना पड़ता है और कुछ लोगोंका यह निश्चय है कि उसको आधा पाप लगता है। ऐसा राजा क्रूर और मिथ्यावादी समझा जाता है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २१९ – २२१

दण्डाधिकारी शासकस्य उत्तरदायित्वम्


राजाको इन्द्रके समान अभीष्ट वर्षक होना चाहिये। उसे सूर्यके सदृश करग्राहक होना चाहिये। उसे वायुके तुल्य प्रशस्त प्रज्ञासम्पन्न तथा गुप्तचरकी दक्षतासे सर्वत्र गतिशील सर्वज्ञकल्प होना चाहिये। राजाको यमके समान दमनशील तथा दण्डपाणि, वरुणतुल्य पाशप्रद पाशहस्त, चन्द्रतुल्य आह्लादप्रद, अग्नितुल्य प्रतापी, धरित्रीतुल्य धारक होना चाहिये। अभिप्राय यह है कि इन्द्रव्रत, सूर्यव्रत, वायुव्रत, यमव्रत, वरुणव्रत, चन्द्रव्रत, अग्निव्रत, पार्थिवव्रत होना चाहिये। —

इन्द्रस्यार्कस्य वातस्य यमस्य वरुणस्य च।
चन्द्रस्याग्ने: पृथिव्याश्च तेजोव्रतं नृपश्चरेत्।।

(मत्स्यपुराण २२६. ९)

दण्डके यथोचित उपयोग तथा प्रयोगसे लोकमें सत्यकी प्रतिष्ठा होती है। सत्यसे धर्म उत्कर्षको प्राप्त होता है। धर्मशील ब्राह्मण धर्मधारक होते हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण यज्ञसम्पादक होते हैं। यज्ञ देवपोषक, देवत्वप्रदायक तथा पर्जन्यप्रद होते हैं। पर्जन्य अन्नप्रद तथा अन्नात्मक हैं। अमृत, हव्य – कव्य, वेद, ब्रीहि – यवादि, तृण, जलादिरूप निसर्गसिद्ध पोषक – आहार – संज्ञक स्वोचित अन्नसे देव, पितर, ऋषि, मनुष्य तथा वृक्षादिका पोषण होता है।
दण्डाधिकारी
दण्डाधिकारी शासकोंका यह दायित्व है कि वह अपने अद्भुत तेजकी प्रगल्भतासे भूधररूप पर्वत, नद – निर्झर, ओषधि, रसको दूषित और विलुप्त होनेसे बचावे। वह धर्माधर्मके प्रतिपादक वेदोंको विकृत और विलुप्त होनेसे बचावे। वह वेदापहारक मधु – कैटभादि राजस, तामस – अराजक तत्त्वोंके चपेटसे वेदोंकी भगवान् सर्वेश्वर – अन्तर्यामी हयग्रीवके तुल्य रक्षा करे। वह ब्रह्मा, शिव, विश्वेदेव, ऋषि, सोम सनातन देववृन्दसे सन्निहित बुद्धि, अहम्, अन्त:करण, चित्त, मन तथा ज्ञानेन्द्रियों एवम् कर्मेन्द्रियोंमें दण्डको प्रतिष्ठित करे अर्थात् स्वयंके तथा ब्राह्मणादि प्रजावर्गके करणात्मक सूक्ष्मशरीरको संयत रखे। वह दण्डनीतिस्वरूपा देवी सरस्वतीको भगवान् विष्णु, ब्रह्मा, शिव, अङ्गिरा, इन्द्र, मरीचि, भृगु, ऋषि, लोकपाल, ब्रह्माजीके शिरोभागसे समुत्पन्न धर्माधिपति ऋत्विक् शिरोमणि क्षुप, सूर्य, श्राद्धदेव मनु और प्रजापतियोंमें सन्निहित देखे

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२१ – २२२