अष्टवर्ग
कृषिर्वणिक्पथो दुर्गं सेतु: कुञ्जरबन्धनम्।।
खन्याकरबलादानं शून्यानां च निवेशनम्।
अष्टवर्गमिमं राजा साधुवृत्तोऽनुपालयेत्।।
(अग्निपुराण २३९. ४४-४५)
“खेती, व्यापारियोंके उपयोगमें आने वाले स्थल, जलमार्ग, पर्वतादि, दुर्ग, सेतुबन्ध (नहर, बाँध आदि), हाथी आदिके पकड़नेके स्थान, सोने – चाँदी आदिकी खानें, वनमें उत्पन्न साखू — शीशम आदिकी निकासीके स्थान तथा शून्य स्थलोंको बसाना — आयके इन आठ द्वारोंको ‘अष्टवर्ग’ कहते हैं। सद्विचार तथा सदाचारसम्पन्न राजा इसकी निरन्तर रक्षा करे।।”
जलयान, स्थलयान तथा नभोमार्गसे चलनेवाले वायुयान ; जल, स्थल, तथा नभ ; अग्नि – सूर्य – चन्द्र – नक्षत्र – विद्युत् ; पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, नद – निर्झर – समुद्र, पर्वत, वनस्पति, अन्न, पशु, यन्त्र, सुवर्णादि धातु तथा प्रजा, प्रज्ञा, आत्मविद्याविशारद आचार्य, देवी – देवता, यज्ञविद्याविशारद पुरोहित, स्त्री – पुत्र, परिकर और माता तथा पिता एवम् काल और धर्मका सदुपयोग सर्व सम्पदाका स्रोत है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३५-२३६