चातुर्वर्ण्यस्य लक्षण:

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श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते

जय गणेश
श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


चातुर्वर्ण्यस्य लक्षण:


अभक्ष्या ब्राह्मणैर्मत्स्या: शल्कैर्ये वै विवर्जिता:।
चतुष्पात् कच्छपादन्यो मन्डूका जलजाश्च ये।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ३६. २२)

काँटेसे रहित मत्स्य, कच्छप तथा चार पैरवाले सब प्राणी ; तद्वत् मेंढक और जलमें उत्पन्न तथा जलचर अन्य जीव ब्राह्मणोंके लिए अभक्ष्य हैं।।”
ब्राह्मण
वृद्ध्या कृषिवणिक्त्वेन जीवसंजीवनेन च।
वेत्तुमर्हसि राजेन्द्र स्वाध्यायगणितं महत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६२. ९)

“राजेन्द्र! वैश्यकी व्याज लेनेवाली वृत्ति, खेती और वाणिज्यके समान तथा क्षत्रियके प्रजापालनरूप कर्मके समान ब्राह्मणोंके लिये वेदाभ्यासरूपी कर्म ही महान्‌ है — ऐसा तुम्हें समझना चाहिये।।”

शमो दमस्तप: शौचं सन्तोष: क्षान्तिरार्जवम्।
ज्ञानं दयाच्युतात्मत्वं सत्यं च ब्रह्मलक्षणम्।।

(श्रीमद्भागवत ७. ११. २१)

शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायणता और सत्य — ये ब्राह्मणके लक्षण हैं।।”
क्षत्रिय
शौर्यं वीर्यं धृतिस्तेजस्त्याग आत्मजय: क्षमा।
ब्रह्मण्यता प्रसादश्च रक्षा च क्षत्रलक्षणम्।।

(श्रीमद्भागवत ७. ११. २२)

युद्धमें उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजाकी रक्षा करना — ये क्षत्रियके लक्षण हैं।।”
राजमन्त्री
देवगुर्वच्युते भक्तिस्त्रिवर्गपरिपोषणम्।
आस्तिक्यमुद्यमो नित्यं नैपुणं वैश्यलक्षणम्।।

(श्रीमद्भागवत ७. ११. २३)

देवता, गुरु और भगवान् के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम — इन तीनों पुरुषार्थोंकी रक्षा करना, आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता — ये वैश्यके लक्षण हैं।।”
मन्त्री
शुद्रस्य सन्नति: शौचं सेवा स्वामिन्यमायया।
अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्यं गोविप्ररक्षणम्।।

(श्रीमद्भागवत ७. ११. २४)

विनम्रता, पवित्रता, स्वामीकी निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रोंसे रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ — ब्राह्मणोंकी रक्षा करना — ये शूद्रके लक्षण हैं।।”

श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ् निबद्धं स्वेषु कर्मषु।
धर्ममूलं निषेवेत सदाचारमतन्द्रित:।।

(मनुस्मृति ४. १५५)

श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें सम्यक् प्रकारसे कहे हुए अध्ययनादि स्वकर्ममें अङ्गरूपसे सम्बद्ध धर्मके हेतुभूत सदाचारका सर्वदा निरालस होकर आचरण करे।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ११०-११२
मित्रैः सह साझां कुर्वन्तु

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