हिन्दूधर्मः किम् ?
(हिन्दूधर्म क्या है ?)

वेदमूलक होनेसे सनातनधर्मको वैदिक धर्म कहते हैं। परम्पराप्राप्त ब्राह्मणादि श्रेष्ठ सत्पुरुषोंद्वारा सेवित होनेसे इसे आर्यधर्म कहते हैं। हीनाचरणसे सुदूर सदाचारसम्पन्न दुष्टदलन और दमनमें समर्थ शीलवानों द्वारा अनुष्ठित होनेसे इसे हिन्दूधर्म कहते हैं।
हिन्दूधर्मका अति प्राचीन नाम सनातनधर्म है। जो प्रत्येक देश, काल, परिस्थितिमें दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातलपर सत्य, शिव और सुन्दर सिद्ध हो, वह सनातन धर्म है।
दार्शनिक धरातलपर सनातनधर्म वैदिक और पौराणिक धर्म है। वैज्ञानिक धरातलपर यह आर्यधर्म है। व्यावहारिक धरातलपर यह हिन्दूधर्म है। पुराणपुरुषपरमात्मासे प्रथम प्रवृत्त विशिष्ट विद्यारूप पुराण, वेद और देववृन्द – प्रतिपादित पुरातनधर्म होनेके कारण सनातनधर्म पौराणिक धर्म है। —
“ऋचः सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिताः।।”
(अथर्ववेद ११. ७. ४)

“. ‘उद् ऊर्ध्वं अर्थात् सर्वेषां भूतभौतिकानामवसाने शिष्ट उर्वरितः परमात्मा’ (श्रीसायणाचार्य) – सर्वाधिष्ठान सर्वशेष अवशेष अशेषविशेषातीत सर्वेश्वर संज्ञक उच्छिष्टसे ऋक्, साम, छन्द (अथर्व) तथा पुराण यजुष् के साथ समुत्पन्न हुए।।”
“पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्।
नित्यं शब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम्।।”
(मत्स्यपुराण ३. ३, वायुपुराण १. ५४)
“अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृता।
मीमांसान्यायविद्याश्च प्रमाणाष्टकसंयुता:।।”
(मत्स्यपुराण ३. ३, वायुपुराण १. ५५)
“श्रीब्रह्माने सब शास्त्रोंमें शतकोटिप्रविस्तर सृष्ट्यादि विषयक विशिष्ट विज्ञानरूप नित्य पुण्यस्वरूप शब्दब्रह्मात्मक पुराणका प्रथम स्मरण किया। तदनन्तर उनके मुखोंसे वेद तथा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अनुपलब्धि, अर्थापत्ति, ऐतिह्य और स्वभाव – संज्ञक आठ प्रमाणोंके सहित मीमांसा तथा न्याय – शास्त्र विनिःसृत हुए।।”

सना भवः सनातनः
सदा रहनेवाला सनातन है — ‘सना भवः सनातनः।’ वर्तमानकल्पकी दृष्टिसे भी विक्रमसंवत् २०७२, ई. सन् २०१५ तक यह १, ९७, २९, ४९, ११५ (एक अरब, सन्तानवे करोड़, उनतीस लाख, उनचास हजार, एक सौ पन्द्रह) वर्ष प्राचीन है।
वेदान्तवेद्य ब्रह्मात्मतत्व सनातन अव्यक्त है। उसके प्रतिपादक वेद और उसमें निष्ठाके साधन यज्ञादि भी सनातन हैं। अत: सनातन आत्मा, सनातन सर्वेश्वर, सनातन वेद और वेदोक्त यज्ञादि साधनोंमें आस्थान्वित सनातनी हैं।
अग्नि, वायु और सूर्यसे अभिव्यक्त ऋक्, यजुः तथा साम – संज्ञक वेद सनातन हैं। —
“अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रय॑ ब्रह्म सनातनम्”
(मनुस्मृति १. २३)
वेद – प्रतिपाद्य यज्ञादि भी सनातन हैं। — “यज्ञं चैव सनातनम्” (मनुस्मृति १. २२)
सनातनकुलमें समुत्पन्न एवम् वेद और वेदसम्मत धर्म तथा ब्रह्ममें परम्परासे अधिकृत और आस्थान्वित महानुभाव वैदिक हैं।

शीलसम्पन्न कुलीन होनेके कारण वैदिक आर्य हैं। शास्त्रनिन्दित अकर्त्तव्यका अनाचरण करनेवाले अर्थात् सम्प्राप्त विवेकका सर्वथा समादर करते हुए ही व्यवहार करनेवाले आर्य कहे जाते हैं। — “कर्त्तव्यमाचरन् कार्यमकर्त्तव्यमनाचरन् तिष्ठति प्रकृताचारे स वा आर्य इति स्मृत:।”
सनातन शास्त्रोमें आर्य पद श्रेष्ठ द्विजादिके लिये प्रयुक्त होता है, न कि संस्कारविहीन दस्यु आदिके लिये, यह तथ्य – “न यो ररे आर्यं नाम दस्यवे” (ऋक् शा. संहिता १०. ४९. ३) के अनुशीलनसे सिद्ध है।
“यस्योदकं मधुपर्कं च गां च न मन्त्रवित् प्रतिगृहणाति गेहे।
लोभाद् भयादथ कार्पण्यतो वा तस्यानर्थं जीवितमाहुरार्या:।।”
(महाभारत – उद्योगपर्व ३८. ३)
“मन्त्रवेत्ता जिसके घर दाताके लोभ, भय या कृपणताके कारण जल, मधुपर्क और गौको स्वीकार नहीं करता, आर्य पुरुषोंने उस गृहस्थका जीवन व्यर्थ बताया है।।”
“मानं त्यक्त्वा यो नरो वृद्धसेवी विद्वान् क्लीब: पश्यति प्रीतियोगात्।
दाक्ष्येणहीनो धर्मयुक्तो नदान्तो लोकेउस्मिन् वै पूज्यते सद्भिरार्य:।।”
(महाभारत – शान्तिपर्व २९२. २३)
“जो विद्वान अभिमानका त्याग करके वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करता, विषयोपभोगमें अनासक्त होकर सबको प्रेमभावसे देखता, मनमें चतुराई न रखकर धर्ममें संलग्न रहता, दूसरेका दमन नहीं करता, वह मनुष्य इस लोकमें आर्य (श्रेष्ठ) है तथा सत्पुरुष भी उसका समादर करते हैं।।”

“सदाहमार्यात्रिभूतोऽप्युपासे न मे विधित्सोत्सहते न रोषः।
न वाप्यहं लिप्समान: परेमि न चैव किञ्चिद् विषयेण यामि।।”
(महाभारत – शान्तिपर्व २९९. १९)
“यद्यपि मैं सब प्रकारसे परिपूर्ण हूँ, मेरा कुछ जानना, पाना तथा करना शेष नहीं है, तथापि मैं आर्य ( श्रेष्ठ ) पुरुषोंकी उपासना करता रहता हूँ। मुझपर न तृष्णाका वश चलता है और न रोषका ही। मैं कुछ पानेके लोभसे धर्मका उल्लङ्घन नहीं करता और न विषयोंकी प्राप्ति के लिए ही कहीं आता – जाता हूँ।।”
उत्पत्ति, अनुग्रह, संस्कारादि हेतुओंसे श्रेष्ठता, भद्रता अर्थात् उत्कर्षको प्राप्त व्यक्ति तथा वस्तुका नाम वैदिक वाङ्मयमें आर्य है। —
“इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” (ऋक् ९. ६३. ५) — यहाँ यज्ञमें प्रयुक्त तथा यज्ञफलमें विनियुक्त सर्वसंज्ञक सोम सोमाभिमानी देवोंके अनुग्रहसे आर्यत्वसम्पन्न अर्थात् श्रेष्ठता – उत्कृष्टता प्राप्त होने योग्य हैं, इस आशयको व्यक्त किया गया है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” का अध्याय “हिन्दुनिरुक्ति” पृष्ठ संख्या २५८ – २६१
“हिन्दू” शब्दस्य उत्पत्तिः

प्रश्न उठता है कि आर्य, वैदिक और सनातनी शब्द शास्त्रसम्मत और परम्पराप्राप्त होनेपर भी क्या हिन्दु या हिन्दू – शब्द भी शास्त्रसम्मत और परम्पराप्राप्त है ? अधिकांश बुद्धिजीवियोंकी धारणा तो यही है कि हिन्दू – नाम मुसलमानोंका रक्खा हुआ है, जो कि चोर आदि हीनताका वाचक है। परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि मुहम्मद और ईसासे भी सैकड़ों वर्ष पूर्व हिन्दु और हिन्दू – शब्दका प्रयोग सौम्य, सुन्दर, सुशोभित, शीलनिधि, दमशील और दुष्टदलनमें दक्ष – अर्थोंमें प्रयुक्त और प्रचलित था। सिकन्दरने भारतमें आकर अपने मन्त्रीसे हिन्दूकुश ( हिन्दूकूट ) पर्वतके दर्शनकी इच्छा व्यक्त की थी। पारसियोंके धर्मग्रन्थ शातीरमें हिन्दूशब्दका उल्लेख है। अवेस्तामें हजारों वैदिकशब्द पाये जाते हैं। सिकन्दरसे भी सैंकड़ों वर्ष पूर्वका यह ग्रन्थ है। उसमें हिन्दू – शब्दका प्रयोग है। बलख नगरका नाम पूर्वकालमें हिन्दवार था। ‘स‘ के स्थानपर ‘ह‘ का प्रयोग प्रसिद्ध है। सप्त को हप्त, सरस्वतीको हरहवती, सरित् को हरित्, केसरीको केहरी, असुरको अहुर – कहनेकी विधा और प्रथा है।
भविष्यपुराणमें हिन्दुस्थानको सिन्धुस्थान – आर्योंका राष्ट्र कहा गया है। —
“सिन्धुस्थानमिति ज्ञेयं राष्ट्रमार्यस्य चोत्तमम्।”
कालिकापुराण और शार्ङ्गधरपद्धति के अनुसार वेदमार्गका अनुसरण करनेवाले हिन्दु मान्य हैं। —
बलिना कलिनाऽऽच्छन्ने धर्मे कवलितौ कलौ।
यवनैरवनि: क्रान्ता हिन्दवो विन्ध्यमाविशन्।।
कालेन बलिना नूनमधर्मकलिते कलौ।
यवनैर्घोरमाक्रान्ता हिन्दवो विन्ध्य माविशन्।।
(कालिकापुराण)
यवनैरवनि: क्रान्ता हिन्दवो विन्ध्यमाविशन्।
बलिना वेदमार्गोऽयं कलिना कवलीकृत:।।
(शार्ङ्गधरपद्धति)
“कालबली के कुचक्रके कारण कलिमें अधर्मसे वैदिक धर्मके आच्छन्न हो जानेपर तथा घोर आक्रान्ता यवनोंसे भारतके विविध भूभाग उत्पीडित हो जानेपर हिन्दू विन्ध्यपर्वत चले गये।।”

हिमालयका प्रथम अक्षर ‘ह्’ है। इन्दुसरोवर (कुमारी अन्तरीप) के प्रारम्भके दो अक्षर ‘इन्दु’ हैं। ह् + इन्दु = हिन्दु होता है।
बृहस्पति आगमके अनुसार हिमालयसे इन्दुसरोवरतकका देवनिर्मित भूभाग हिन्दुस्थान कहा जाता है। इसमें परम्परासे निवास करनेवाले और उनके वंशधर हिन्दु कहे जाते हैं। —
हिमालयं समारभ्य यावदिन्दुसरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।
(बृहस्पति – आगम)
“हि– शब्दोपलक्षित हिमालय समझना चाहिये। ‘न्दु’ – शब्दोपलक्षित कुमारी अन्तरीप – इन्दुसरोवर – कन्याकुमारी समझना चाहिये। हिमालयसे कुमारी अन्तरीप – पर्यन्त देवविनिर्मित भूभागको हिन्दुस्थान कहते हैं।।”
आसमुद्राच्च यत् पूर्वादासमुद्राच्च पश्चिमात्।
हिमाद्रिविन्ध्ययोर्म॑ध्यमार्यावर्तं प्रचक्षते।।
(महाभारत – आश्वमेधिकपर्व ९२. दाक्षि.)
“पूर्वमें समुद्रसे लेकर पश्चिममें समुद्रपर्यन्त तथा उत्तरमें हिमालयसे लेकर दक्षिणमें विन्ध्यपर्वतपर्यन्त आर्यावर्त कहा जाता है।।”

वृद्धस्मृतिके अनुसार हिंसासे दुःखित होनेवाला, सदाचरणतत्पर (वर्णोचित आचरण – सम्पत्र), वेद – गोवंश और देवप्रतिमासेवी हिन्दू समझने योग्य है। —
हिंसया दूयते यश्च सदाचारतत्परः।
वेदगोप्रतिमासेवी स हिन्दुमुखशब्दभाक्।।
(वृद्धस्मृति)
माधवदिग्विजयके अनुसार सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्ध और सिक्खादिमें अनुगत लक्षणके अनुसार ओङ्कारको मूलमन्त्र माननेवाला, पुनर्जन्ममें दृढ़ आस्था रखनेवाला, गोभक्त और भारतीयमूलके सत्पुरुषद्वारा प्रवर्तित पथका अनुगमन करनेवाला तथा हिंसाको निन्द्य मानने वाला हिन्दू कहने योग्य है। —
ओङ्कारमूलमन्त्राढय: पुनर्जन्मदृढाशय:।
गोभक्तो भारतगुरुर्हिन्दुहिंसनदूषक:।।

वीरसावरकरके शब्दोंमें सिन्धुनदीसे लेकर समुद्रपर्यन्त भारतभूमि जिसकी पैतृक – सम्पत्ति और पवित्र भूमि हो, वही हिन्दु है।
आसिन्धो: सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका।
पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः।।
श्रीलोकमान्यतिलकके शब्दोंमें हिन्दुधर्मका लक्षण इस प्रकार है। —
प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु नियमानामनेकता।
उपास्यानामनियमो हिन्दुधर्मस्य लक्षणम्।।
“वेदोंमें प्रामाण्यबुद्धि, नियमोंमें देश, काल, व्यक्तिभेदसे अनेकता, सर्वेश्वर तथा उनके उत्पत्ति, स्थिति, संह्रति, तिरोधान और अनुग्रह – संज्ञक पञ्चकृत्यनिर्वाहक हिरण्यगर्भात्मक सूर्य, विष्णु, शिव, शक्ति तथा गणपति एवम् इनके शास्त्रसम्मत विविध अवतारको उपास्यरूपसे प्रस्तुत करना – हिन्दुधर्मका लक्षण है।।”

उक्त रीतिसे —
“श्रुत्यादि प्रोक्तानि सर्वाणि दूषणानि हिनस्तीति हिनस्तीति हिन्दु:”
“श्रुति – स्मृति – पुराण – इतिहास – में निरूपित सर्व दूषणोंका जो हनन करे, वह हिन्दु है।”
श्रीविनोबाभावेके अनुसार —
योवर्णाश्रमनिष्ठावान् गोभक्त: श्रुतिमातृक:।
र्मूर्तिं च नावजानाति सर्वधर्मसमादर:।।
उत्प्रेक्षते पुनर्जन्म तस्मान्मोक्षणमीहते।
भूतानुकूल्यं भजते स वै हिन्दुरिति स्मृत:।।
हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरित:।।
“जो वर्णों और आश्रमोंकी व्यवस्थामें आस्था रखनेवाला, गोभक्त, श्रुतियोंका समादर करनेवाला, सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वरके विविध अवतारोंमें आस्थान्वित मूर्तिपूजक है, पुनर्जन्मको मानता और उससे मुक्त होनेका प्रयत्न करता है और जो सदा सब प्राणियोंके अनुकूल वर्ताव करता है, वही हिन्दू माना गया है। हिंसासे उसका चित्त दुःखी होता है, अत: उसे हिन्दू कहा गया है।।”

सनातनशैलीमें हिन्दुकी परिभाषा इस प्रकार है। —
“श्रुतिस्मृत्यादिशास्त्रेषु प्रामाण्यबुद्धिमवलम्ब्य श्रुत्यादिप्रोक्ते धर्मे विश्वासं –
निष्ठां च य: करोति स एव वास्तव हिन्दुपदवाच्य:”
(श्रीकरपात्रस्वामी)
“श्रुति – स्मृत्यादि शास्त्रोंमें प्रामाण्यबुद्धिका आश्रय लेकर उनमें कहे हुए धर्ममें जो विश्वास और निष्ठा करता है, वही वास्तवमें हिन्दु कहने योग्य है।।”
भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व – प्रथमखण्ड ५. ३६ में ‘सप्तसिन्धुस्तथैव च। सप्तहिन्दुर्यावनी च‘ – हिन्दु – शब्दका प्रयोग किया गया है। पश्चिमी देशोंमें एकमात्र इसी मार्गसे जानेके कारण भारत हिन्द कहा जाने लगा और भारतीय हिन्दु या हिन्दू – कहलाने लगे। स्वतन्त्रताके पूर्वतक पारस, ईरान, तुर्की, ईराक, अफगानिस्तान और अमरीकादिमें भारतको ‘हिन्द’ और भारतीयोंको ‘हिन्दू’ कहा जाता था।

अद्भुतकोषके अनुसार ‘हिन्दु’ और ‘हिन्दू’ – दोनों शब्द पुल्लिङ्ग हैं। दुष्टोंका दमन करनेवाले ‘हिन्दु’ और ‘हिन्दू’ – कहे जाते हैं। ‘सुन्दररूपसे सुशोभित और दैत्योंके दमनमें दक्ष’ – इन दोनों अर्थोंमें भी इन शब्दोंका प्रयोग होता है।
“हिन्दु – हिन्दूश्च पुंसि दुष्टानां च विधर्षणे। रूपशालीनि दैत्यारौ….।।”
हेमन्तकविकोषके अनुसार “हिन्दु्र्हि नारायणादिदेवताभक्त:” – “हिन्दु उसे कहा जाता है, जो कि परम्परासे नारायणादिदेवताका भक्त हो।।”
मेरुतन्त्र – प्रकाश २३ के अनुसार “हीनं च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये।” — “जो हीनाचरणको निन्द्य समझकर उसका परित्याग करे, वह हिन्दु कहलाता है।”
शब्दकल्पद्रुमकोष के अनुसार “हीनं दूषयति इति हिन्दू”, “पृषोदरादित्वात् साधुजातिविशेष:” — “हीनताविनिर्मुक्त साधुजाति – विशेष हिन्दु है।”

पारिजातहरणनाटकके अनुसार —
“हिनस्ति तपसा पापान् दैहिकान् दुष्टपानसान्।
हेतिभि: शत्रुर्वर्गं च स हिन्दुरभिधीयते।।”
“जो अपनी तपस्यासे दैहिक पापों तथा चित्तको दूषित करनेवाले दोषोंका नाश करता है तथा जो शस्त्रोंसे शत्रु – समुदायका भी नाश करता है, वह हिन्दू कहलाता है।।”
रामकोषके अनुसार —
“हिन्दु्र्दुष्टो न भवति नानार्यो न विदूषक:।
सद्धर्मपालको विद्वान् श्रौतधर्मपरायण:।।”
“हिन्दू दुर्जन नहीं होता, न अनार्य होता है, न निन्दक ही होता है। जो सद्धर्मपालक, विद्वान् और श्रौतधर्म – परायण है, वह हिन्दू है।।”

ध्यान रहे, अरबी कोषमें हिन्दुका अर्थ खालिस अर्थात् शुद्ध होता है, न कि चोर आदि मलिन – निकृष्ट। यहूदियोंके मतमें हिन्दूका अर्थ शक्तिशाली वीर पुरुष होता है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” का अध्याय “हिन्दुनिरुक्ति” पृष्ठ संख्या २६१ – २६७
सप्तसिन्धव:

भारतका नाम ऋग्वेदमें ‘सप्तसिन्धु’ या संक्षिप्त नाम ‘सिन्धु’ आया है, न कि आर्यावर्त या भारतवर्ष। वेदोंमें ‘सप्तसिन्धव:’ देशके अतिरिक्त किसी देशका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। सनातनप्रसिद्धिके अनुसार वे सातों नदियाँ अखण्ड भारतको द्योतित करती हैं। —
“गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति!
नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेऽस्मिन् सन्निद्धिं कुरु।।”
(नारदपुराण पूर्व० २७. ३३)
“पुष्कराद्यानि तीर्थानि गङ्गाद्या: सरितस्तथा।
आगच्छन्तु महाभागा: स्नानकाले सदा मम।।”
(नारदपुराण पूर्व० २७. ३४)
“गङ्गा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु तथा कावेरी आदि नदियाँ इस जलमें निवास करें।।”
“पुष्कर आदि तीर्थ और गङ्गादि परमसौभाग्यशालिनी सरिताएँ सदा मेरे स्नानकालमें यहाँ पधारें।।”

इनमें गङ्गा, यमुना, सरस्वती – ये तीन पूर्वोत्तर भारतकी नदियाँ हैं। ‘गोदावरी’ दक्षिण और पश्चिम भारतकी नदी है। ‘नर्मदा’ मध्य और पश्चिम भारतकी नदी है। ‘सिन्धु’ – पश्चिमोत्तर भारतकी नदी है। ‘कावेरी’ दक्षिण भारतकी नदी है।

पश्चिमी पञ्जाबमें स्थित ‘सिन्धु‘ – नदी प्राचीन कालमें हमारी स्वाभाविक सीमा थी। सिन्धु नदी और कराचीका सिन्धु (समुद्र) हमारी जलीय सीमाके सनातन मानबिन्दु हैं। इन पर भारतका आधिपत्य अनिवार्य है। ‘सप्तसिन्धु‘ को हप्तहिन्दु, तद्रत् सिन्दुको हिन्दु — कहनेकी वैदिक विधा है। वर्णमालामें श, ष, स और ह – का साहचर्य है। ‘सेर्ह्यषिच्च’ (पाणिनीय ३. ४. ८७) सूत्रानुसार सि को हि तथा “ह एति” (पाणिनीय ७. ४. ५२) के अनुसार ‘स’ को ‘ह’ प्राप्त होता है। तदनुसार अस्मद् शब्दके सु में ‘त्वाहौ सौ’ से ‘अस्म’ के स्थानपर ‘अह’ और पुनः ‘अहम्‘ बनता है। जिसका हिन्दी रुपान्तर हम है।

कुछ महानुभावोंने स्वात, गोमती, कुमा, वितस्ता, चन्द्रभागा, इरावती और सिन्धुको भी सप्तसिन्धु या हप्तहिन्दु तथा हप्तहिन्द माना है।
वस्तुतः विशालपर्वत हेमकूट ही कैलास नामसे प्रसिद्ध है। वहीं कुबेरजी गुह्यकोंके साथ सानन्द निवास करते हैं। कैलाससे उत्तर मैनाक है। उससे भी उत्तर दिव्य तथा महान् मणिमय पर्वत हिरण्यशृङ्ग है। उसके सन्निकट विशाल, दिव्य, उज्ज्वल तथा काञ्चनमयी बालुकासे सुशोभित रमणीय बिन्दुसरोवर है। वहीं भगीरथने भागीरथी गङ्गाका दर्शन करनेके लिये बहुत वर्षोंतक तप किया था। वहाँ बहुत – से मणिमय यूप तथा सुवर्णमय चैत्य (महल) शोभा पाते हैं। वहीं यज्ञ करके महा यशस्वी इन्द्रने सिद्धि प्राप्त की थी। उस स्थानपर लोकस्रष्टा प्रचण्ड तेजस्वी सनातन सर्वेश्वरकी विविध प्राणियों द्वारा उपासना की जाती है। नर, नारायण, ब्रह्मा, मनु तथा सदाशिवका वह निवास स्थल है। ब्रह्मलोकसे उतरकर त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गङ्गा सर्व प्रथम उस बिन्दुसरोवरमें ही प्रतिष्ठित हुई थी। वहींसे उसकी सिन्धु आदि सप्त (सात) धाराएँ विभक्त हुईं हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं — विस्वोकसारा – नलिनी, पावनी, सरस्वती, जम्बूनदी, सीता, गङ्गा और सिन्धु। इन सप्त धाराओंका प्रादुर्भाव सर्वेश्वरका ही अचिन्त्य, सुन्दर और दिव्य विधान है। यहाँ याज्ञिक कल्पान्तपर्यन्त यज्ञानुष्ठानके द्वारा परमेश्वरकी उपासना करते हैं। इन सात धाराओंमें जो सरस्वती नामवाली धारा है, वह कहीं दृश्य तथा कहीं अदृश्य है। ये सात धाराएँ त्रिभुवनमें विख्यात हैं। —
“हेमकूटस्तु सुमहान् कैलासो नाय पर्वतः।
यत्र वैश्रवणो राजन् गुह्यकै: सह मोदते।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ४१)
“अस्त्युत्तरेण कैलासं मैनाकं पर्वतं प्रति।
हिरण्यश्रृङ्गः सुमहान् दिव्यो मणिमयो गिरिः।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ४२)
“तस्य पार्श्वे महद् दिव्यं शुभ्रं काञ्चनवालुकम्।
रम्यं बिन्दुसरो नाम यत्र राजा भगीरथः।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ४३)
“दृष्टुं भागीरथीं गङ्गामुवास बहुलाः समाः।
यूपा मणिमयास्तत्र चैत्याश्चापि हिरण्मयाः।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ४४)
“तत्रेष्ट्वा तु गतः सिद्धिं सहस्राक्षो महायशाः।
स्रष्टा भूतपतिर्यत्र सर्वलोकै: सनातनः।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ४५)
“उपासते तिग्मतेजा यत्र भूतैः समन्ततः।
नरनारायणौ ब्रह्मा मनुः स्थाणुश्च पञ्चमः।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ४६)
“तत्र दिव्या त्रिपथगा प्रथमं तु प्रतिष्ठिता।
ब्रह्मलोकादपक्रान्ता सप्तधा प्रतिपद्यते।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ४७)
“विस्वोकसारा नलिनी पावनी च सरस्वती।
जम्बूनदी च सीता च गङ्गा सिन्धुश्च सप्तमी।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ४८)
“अचिन्त्या दिव्यसंकाशा प्रभोरेषैव संविधिः।
उपासते यत्र सत्रं सहस्रयुगपर्यये।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ४९)
“दृश्याऽदृश्या च भवति तत्र तत्र सरस्वती।
एता दिव्याः सप्त गङ्गास्त्रिषु लोकेषु विश्रुताः।।”
(श्रीमहाभारत — भीष्मपर्व ६. ५०)

उक्त रीतिसे सप्त गङ्गामें सिन्धु भी परिगणित होनेके कारण सप्त गङ्गाको सप्त सिन्धु कहना भी युक्त है।
श या स को ह कहनेकी विधा शास्त्रसम्मत है। ‘श्रीश्च’ (यजुर्वेद ), ‘हीश्च’ (कृष्णयजुर्वेद तै ), ‘शिरासन्धिसन्निपाते रोमावर्तोऽधिपति:’ (सुश्रुत ), ‘हिरालोहितवाससः’ (अथर्व ), ‘सरस्वती’ (ऋक् ), ‘हरस्वती’ (ऋक् ), ‘अमूर्या यन्ति योषितो हिराः / शिराः लोहितवाससः’ आदि उदाहरणोंके अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है। “सरितो हरितो भवन्ति, सरस्वतयो हरस्वत्य:” (निघण्टु १. १३) के अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है कि ‘सरित:’ के सदृश ही ‘हरित:’ भी नदीका नाम मान्य है। यथा – ‘सरिते’ (ऋक् – परिशिष्ट), ‘हरित:’ (अथर्व १३. २. २५), ‘हरितो न रंह्या’ (अथर्ववेद २०. ३०. ४), ‘यं वहन्ति हरित: सप्त’ (अथर्ववेद १३. २. २५) के अनुसार ‘हरित:’ और ‘सरित:’ में अर्थभेद नहीं है।
उक्तरीतिसे सिन्धुके तुल्य हिन्दु भारतका प्राचीन नाम सिद्ध होता है।
ईसामसीहको ईसामहीह तथा पैगम्बर मूसाको मूहा न कहनेकी प्रथा वैदेशिकोंकी नहीं है।
इन्दुका अर्थ चन्द्र है। अत एव वाल्मीकिरामायणमें सिन्धुनदीका नाम इन्दुमती आया है। सिन् का अर्थ इन्दु है। ‘सिन्’ – धु: , सिन्धु: का अर्थ चन्द्रधारक है। समुद्रमन्थनसे चन्द्रमाका प्रादुर्भाव तथा चन्द्रदर्शनसे समुद्रका उल्लास तथा चन्द्रकलाकी शीतलता – आदि हेतुओसे यह तथ्य सिद्ध है। सिन् का अर्थ चन्द्र होनेके कारण ही सिनीका अर्थ चन्द्रकला तथा अमावास्याका नाम सिनीवाली है। ‘सिनिवालि! पृथुष्टके’ (ऋक् २. ३२. ६), ‘तस्मै हवि: सिनीवाल्यै जुहोतन’ (ऋक् २. ३२. ७), ‘या सिनीवाली या राका’ (ऋक् २. ३२. ८) – आदि श्रुतियोंके अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है।

उक्त रीतिसे सिन्धुके तुल्य इन्दुसे भी इस देशका नाम हिन्दु होना स्वाभाविक है। भूतभावन शिव इन्दु और सिन्धुसंज्ञक गङ्गाको शिरपर धारण करते हैं। अतः शिवाराधक आर्योंका यह देश सिन्धु या हिन्दु है। ‘धु’ के तुल्य ‘दु’ – का अर्थ धारक है। अत: सिन्धु और हिन्दु में साम्य है। सिन् और हिन् समानार्थक है। हिङ्कार, प्रस्ताव , आदि, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन – संज्ञक सप्तविध या हिङ्कार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन — पञ्चविध साममें हिङ्काररूप प्रथम सामगत हिन् – से सिन् का साम्य है।। सिन् सोम है। इन्दु – संज्ञक सोमात्मक चन्द्रकी उज्ज्वल – स्फूर्ति सोमलता सोमयज्ञके सम्पादनमें मुख्य घटक है। अभिप्राय यह है कि “न असामा यज्ञोऽस्ति” (शतपथब्राहमाण १. ४. ३. १-२) के अनुसार सामविरहित यज्ञ नहीं। तथा ‘हिङ्कृत्वा अन्वाह…न वा अ हिं कृत्वा साम गीयते’ (शतपथब्राहमाण १. ४. ३. १-२) के अनुसार हिन् – विरहित साम नहीं। अत: सिन् – संज्ञक हिन् को धारण करनेवाली अर्थात् यज्ञानुष्ठान करनेवाली याज्ञिकजाति सिन्धु, हिन्धु या हिन्दु नामसे प्रसिद्ध हुई। काव्यप्रकाशादिके अनुसार प्राणप्रद – जीवनाधायक धर्मका नाम जाति है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” का अध्याय “हिन्दुनिरुक्ति” पृष्ठ संख्या २६७ – २७१
यज्ञधारक – गोधारक हिन्दू

विवक्षावशात् यज्ञधारक या गोधारकका नाम हिन्दु है। ‘हिं’ – या ‘हिन्’ का उच्चारण करके सामवेदका उच्चारण सम्भव है। सामोच्चारणके बिना यज्ञानुष्ठान असम्भव है। अत एव हिङ्कार यज्ञका प्राण अर्थात् धारक कहा गया है। —
“हिं – कृत्वा अन्वाह, न असामा यज्ञोस्ति इति आहु:।
न वा अ- हिङ्कृत्वा साम गीयते। प्राणो वै हिङ्कार:।”
(शतपथब्राहमण १. ४. ३. १, २)
हिङ्कार – गोवंशका द्योतक है। गाय यज्ञधारक होनेसे पृथिवीको धारण करनेवाली है। वह अपने वत्सके पास हिङ्कार करती हुई शीघ्र आ जाती है। वह दुग्ध, दधि, मक्खन तथा घृतादि निधिके माध्यमसे हमारा पोषण और परिपालन करती है। वह अहननीया है। वह हमारी मङ्गलकामनाके फलस्वरूप सदा दुग्धसे सम्पन्न रहकर हमारे उत्कर्षमें हेतु सिद्ध होती है। —
“हिं कृण्वन्ती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात्।
दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय।।”
(ऋक् १. १६४. २७, अथर्व. ९. १०. ५)
गोग्रास, गोपूजन, गोपाष्टमी, गोलोक, गोपाल, गव्य, गोमय, गोत्र, गोष्ठी, गोधूलि – वेला, वात्सल्य आदि – शब्द गोभक्तिका द्योतक है।

पृथ्वीके धारक तथा यज्ञादिके सम्पादक गोवंश, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभ तथा दानशील – संज्ञक सात व्यक्तियोंमे गोवंशका नाम प्रथम है। —
“गोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभि: सत्यवादिभिः।
अलुधैर्दानशीलैश्च सप्तभिधार्यते मही।।”
(स्कन्दपुराण – काशीखण्ड २. ९०, माहेश्वरकुमारिकाखण्ड २. ७२)
गोवंश अबध्य है। —

“अघ्न्या इति गवां नाम क एता हन्तुमर्हती।
महच्चकाराकुशलं वृषं गां वाऽऽलभेत् तु यः।।”
(महाभारत — शान्तिपर्व २६२. ४७)
“. ‘अघ्न्यम’ (ऋक् १. ३७. ५), ‘नीचीनमघ्न्या दुहे’ (ऋक् १०. ५. ६०. ११) , ‘अघ्न्येयं सा वर्द्धतां सौभगाय’ (ऋक् १. २२. १६४. २७) – ‘न मारने योग्य आयी हुई यह गाय हमारे महान् सौभाग्यके लिए दूध बढ़ावे’ आदि वचनोंके अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है कि श्रुतियोंमें गौओंको अघ्न्या – अवध्य कहा गया है, अतः कौन उनके वधका विचार करेगा? जो पुरुष गाय और बैलोंका वध करता है, वह महान् पाप करता है।।”
गोवर्णनपरक “हिं – कृण्वन्ती …. दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं” (ऋक १. १६४. २७, अथर्व. ९. १०. ५) इस मन्त्रमें पूर्वार्द्धका आदिम “हिं – कृण्वन्ती” में प्रयुक्त ‘हिं’ और उत्तरार्द्ध “दुहामश्विभ्यां पयः” का आदिम ‘दु’ अक्षर मिलकर हिन्दु होता है। जिसका अर्थ गोभक्त होता है। दूरस्थित अक्षर या पद भी अर्थसम्बन्धसे एकत्र माना जाता है। यह आर्ष – निरूपित (आप्तप्रतिपादित) शास्त्रसम्मत सिद्धान्त है —
यस्य येनार्थसम्बन्धो दूरस्थस्यापि तस्य सः।
अर्थतो ह्यसमर्थानामानन्तर्यमकारणम्।।
(न्यायदर्शन – भाष्य १. २. ९)
असत्यां हि आकाङ्क्षायां सन्निधानमकारणं भवति।
यथा भार्या राज्ञ: पुरुषो देवदत्तस्य।।
(मीमांसादर्शन — शाबरभाष्य ६. ४. ३३)
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि “सत्यां हि आकाङ्क्षायां असन्निधानमपि सम्बन्धकारणं भवति।” – “आकाङ्क्षा रहनेपर असन्निधान भी सम्बन्धका कारण होता है।”

माण्डूक्योपनिषत् के अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है कि ‘आप्तेरादिमत्त्वात्, उत्कर्षत्वाद् उभयत्वाद् वा , मिते:’ (९ – ११) के क्रमश: प्रथमाक्षर अ, उ और म् के योगसे ओम् की सिद्धि होती है।
बृहदारण्यकोपनिषत् ५. ३. १ के अनुसार ‘हरन्ति, ददति, यम्’ गत ह्र, द और य के योगसे हृदय – शब्दकी संरचना मान्य है। आहरण, दान तथा गत्यर्थक हृदय शब्द है। इंद्रियाँ वीणा, मोदकादि अभिव्यञ्जक संस्थानगत शब्दादि विषयोंका आहरणकर ह्रत्पुण्डरीकमें सन्निहित बुद्धिको समर्पित करती हैं। बुद्धि शब्दादि विषयक ज्ञानको अपने प्रेरक तथा प्रकाशक भोक्ताको प्रदान करती है। तद्वत बृहदारण्यकोपनिषत् ५. २. १ – ३ के अनुसार ‘दाम्यत, दत्त, दयध्वम्’ गत प्रथमाक्षर दकारत्रयके योगसे द. द. द. की निष्पत्ति मान्य है। जिससे दम (मनोनिग्रह, इन्द्रिय – संयम), दान और दया – रूप शीलत्रयकी सिद्धि सम्भव है। दमसे देवगत भोगलिप्साका, दयासे दैत्यगत निर्दयताका और दानसे मनुष्यगत कदर्यताका शमन होता है।
लोकमें भाजपा (भारतीय जनता पार्टी), सपा (समाजवादी पार्टी) बसपा (बहुजनसमाजपार्टी), विहिप (विश्वहिन्दूपरिषद्) – आदि सहस्रों शब्द प्रसिद्ध हैं।
पी. एम. (प्राइम मिनिस्टर), सी. एम. (चीफ मिनिस्टर) आदि संक्षिप्त शब्दोंकी अड्ग्रेजीमें भरमार है।
न्यूज (News) में सन्निहित प्रथमाक्षरके योगसे निष्पन्न शब्दका अर्थ ‘चतुर्दिक (क्रमश: नोर्थ, ईष्ट, वेस्ट, साउथ — उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण) का वृत्तान्त’ होता है।

हिन्दी – भाषा तथा हिन्दु – जाति, यह नाम हिन्दु – देशके अनुरूप है।
ध्यान रहे, ‘ग्यासलुगात’ आदिमें विद्वेषवश हिन्दुका अर्थ गुलाम, चोर, काफिर किया गया है। शरीर का अर्थ उपद्रवी, देवका अर्थ राक्षस, रामका अर्थ गुलाम, आर्यका अर्थ अश्व – गर्दभादि – शाला तथा अश्वादिका हीनाङ्ग किया गया है और संस्कृतभाषाको जिन्नभाषा कहा गया है।
अत एव उसके आधारपर हमें हिन्दु, राम, आर्यादि शब्दोंका परित्याग नहीं करना चाहिये।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” का अध्याय “हिन्दुनिरुक्ति” पृष्ठ संख्या २७१ – २७४
हिन्दूधर्मके अवान्तर प्रभेद

हिन्दूधर्मके अवान्तर प्रभेद बौद्ध, जैन और सिक्खादि हैं। वर्तमान बौद्धधर्म क्षत्रियकुलभूषण श्रीगौतम बुद्धके बाद ख्याति प्राप्त है। बौद्धधर्मका प्रारम्भ विक्रमाब्दसे ६०० वर्ष पूर्व सिद्ध है। श्रीशङ्कराचार्यका प्रादुर्भाव विक्रमाब्दसे ४५० और ई. सन् से ५०७ वर्ष पूर्व सिद्ध है।
क्षत्रियकुलभूषण भगवान् ऋषभके वंशधरद्वारा ख्यापित वर्तमान जैनधर्मकी प्रसिद्धि क्षत्रियकुलभूषण श्रीमहावीरके पश्चात् सिद्ध है। मूर्तिपूजा, विवाहादिपद्धति, गो, गङ्गा, गुरु – आदिकी भक्ति, अहिंसादि पञ्चशीलकी सिद्धि, प्राणायामदि योगाङ्गोंकी सिद्धि तथा वेदबीज ओङ्कारघटित मन्त्रादिकी दृष्टिसे — ये सनातनधर्मसे सुदूर नहीं सिद्ध होते। परम्पराप्राप्त श्रुति – स्मृतिसम्मत वर्णाश्रमधर्मनिरपेक्ष होनेपर भी वर्णाश्रमधर्मावलम्बियोंसे रोटी – बेटीका सम्बन्ध उनमें सन्निहित और परिलक्षित है।

श्रौत – स्मार्त – अधिकार – सम्पदा – निरपेक्ष सनातनधर्मके वैकल्पिक पन्थके रूपमें जैन और बौद्धधर्म मान्य हैं। दार्शनिक धरातलपर परोवरीय (उत्तरोत्तर उत्कृष्ट) क्रमसे सत्यसहिष्णुताकी क्रमिक अभिव्यक्ति तथा तत्त्वनिरूपणकी परिपाटीकी दृष्टिसे इनका समादर अपेक्षित है। परन्तु सनातनियोंको स्वधर्मच्युतकर अपना पक्षधर बनानेका अथवा स्वयंको हिन्दुओंसे पृथक् उद्घोषित करनेका कुचक्र क्षीरसिन्धुको कूपमें सन्निहित करने – जैसा तथा वटवृक्षकी शाखाओंको वटवृक्षसे पृथक् करने – जैसा है; अतः समादरणीय नहीं है।

एशियायी श्रीईशाके द्वारा प्रचलित ईसाई रिलीजन विक्रम – सम्वत् की प्रथम शताब्दीमें प्रारम्भ हुआ। सेवा, सङ्घ, स्नेहादि – संज्ञक शीलकी दृष्टिसे यह सैद्धान्तिक धरातलपर बौद्धानुकृति सिद्ध है; परन्तु व्यावहारिक धरातलपर यह अन्य धर्मों और पन्थोंको निगलकर स्वयंको उज्जीवित रखनेवाला महाग्राहतुल्य प्रसिद्ध है।

मुहम्मदसाहेबके द्वारा उपस्थापित पन्थका प्रारम्भ विक्रमी सम्वत् की छठी शताब्दीमें हुआ। ईशप्रार्थना और आचार – विचार तथा विवाहादि – प्रथाकी दृष्टिसे यह सैद्धान्तिक धरातलपर बौद्ध तथा सनातन आगमके विकृत वाममार्गके सन्निकट है; परन्तु व्यावहारिक धरातलपर यह असहिष्णु और अत्युग्र सिद्ध है।

सिक्खपन्थके प्रवर्तक श्रीनानकजीका जन्म विक्रम – सम्वत् १५२६ में हुआ। उन्हें उनके अनुयायी गुरु और स्वयंको शिष्य कहते थे। शिष्यका अपभ्रंश सिक्ख हो गया। नानकजी भगवान् श्रीहरिहरके भक्त थे। वे भगवान् विष्णुको ‘श्रीवाहगुरु’ कहते थे। “श्रियं-लक्ष्मीं वहतीति श्रीवाह:, स चासौ गुरु:” — यह उसका विग्रह था। कालान्तरमें उनके अनुयायी ‘श्रीवाहगुरु’ को ‘स्रीवाहेगुरु’ कहने लगे। नानकजीकी सगुणसाकारसर्वेश्वर श्रीविष्णुजीकी भक्ति उनके द्वारा प्रस्तुत श्रीजगन्नाथजीकी स्तुतिके अनुशीलनसे सिद्ध है —
“हरिचरणकमलमकरन्दलोभित मनो अनदिनो मोहि आही पियासा।
कृपाजलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जाते तेरे नामि वासा।।”
(श्रीगुरुग्रन्थसाहिब पृष्ठ ६६३)

श्रीनानकजी शिवको अकाल पुरुष कहते थे। “द्वे वाव ब्रह्मणो रुपे कालश्चाकालश्च, अथ यः प्रागादित्यात्सोऽकालोऽकल:, अथ यः पश्चात् (आदित्यात्) स काल: सकल:, सकलस्व वा एतद्रूपं यत्सम्वत्सरः” (मैत्रायण्युपनिषत् ६. १५) के अनुसार आदित्यसे पूर्ववर्ती अकाल – संज्ञक ब्रह्म अकल है और आदित्यके अनन्तर काल – संज्ञक ब्रह्म सकल है। यह सम्वत्सर सकल है।” के अनुशीलनसे निष्कल ब्रह्मकी अकाल – संज्ञा चरितार्थ है। दशवें गुरु – श्रीगोविन्दसिंहजी दुर्गा – भगवतीके भक्त थे। इस प्रकार ये वेदादिशास्त्रोंमें आस्थान्वित, देवपूजक, मूर्तिपूजक, सनातन हिन्दूधर्म – रक्षक और ब्राह्मणोंके पोषक थे। श्रीग्रन्थसाहिबके अनुशीलनसे सिक्खधर्म सनातनधर्मका पोषक और सन्निकट सिद्ध है। खालसा – पन्थकी स्थापना श्रीगुरु – गोविन्दसिंहजीने हिन्दूधर्मकी रक्षाके लिये की थी, यह विश्वविदित तथ्य है।
यदि जैन, बौद्ध, सिक्खादि सद्भावपूर्ण सम्वादके माध्यमसे सैद्धान्तिक निष्पत्तिके पक्षधर होकर अपने धर्मको सनातनधर्मकी शाखाके रूपमें और स्वयंको सनातनी हिन्दूके रूपमें उद्घोषित करें, तो निस्सन्देह सबके अस्तित्व और आदर्शकी रक्षाका मार्ग द्रुतगतिसे प्रशस्त हो।

ध्यान रहे, वटका उच्छेदकर उसकी छायासे लाभान्वित होना जिस प्रकार असम्भव है, उसी प्रकार सबके उपजीव्य – उद्गमस्थान सनातनधर्मानुयायियोंको उच्छिन्नकर अपने – अपने अस्तित्व और आदर्शकी रक्षा कर पाना सर्वथा असम्भव है।
श्रीनानकजीके पुत्र श्रीचन्द्रजीने श्रौत – स्मार्त – सन्न्यासको प्रकारान्तरसे सुगम बनानेकी भावनासे उदासीन – सम्प्रदायको प्रस्थापित किया। उन्होंने दार्शनिक धरातलपर औपनिषद सिद्धान्तको स्वीकारकर अपने अनुगतोंको वैदिक वाङ्मय और और देववाणीसे संलग्न रक्खा।

विक्रमी – सम्वत् १४५६ में सन्त कबीरका जन्म हुआ। उनके अनुयायियोंने उनके नामपर कबीरपन्थ अपनाया। श्रीरामानन्दाचार्यजीके अनुगत होनेसे तथा अनहद नाद, षट् – चक्रादिके मर्मज्ञ होनेसे और सगुण – निराकार – सर्वेश्वरमें विशेष आस्थान्वित होनेसे एवम् तुलसी, गङ्गा, गौ, काशी – आदि सनातन मानबिन्दुओंमें आस्थान्वित होनेके कारण इनका पन्थ हिन्दुओंके अवान्तर पन्थरूपसे उद्भासित है। विक्रमी – सम्वत् १६०१ में दादू – पन्थका प्रचलन हुआ। विक्रमी – सम्वत् १८४७ से ब्रह्मासमाज, प्रार्थनासमाज, देवसमाज – आदि अवान्तर संस्थान स्थापित किये गये।

आर्यसमाजके संस्थापक स्वामी श्रीदयानन्दजीका जन्म १८८१ विक्रमीमें हुआ। वे कापड़ी ब्राह्मणवंशमें उत्पन्न हुए थे। इनके वंशधर और गुरु श्रीगौतमबुद्ध, श्रीमहावीर, श्रीनानकादिके पूर्वजोंके तुल्य सनातनधर्मी थे। ये स्वयं प्रारम्भमें रुद्राक्ष धारण करते थे, भस्म लगाते थे, सनातन धर्मी थे और शिवालयके आस – पास डेरा डालते थे। शैवोंकी ओरसे शास्त्रार्थ करते थे। कालान्तरमें सुधारक हिन्दू तथा अङ्ग्रेजियतसे प्रभावित हिन्दुओंके धर्मगुरुके रूपमें इन्होंने स्वयंको ख्यापित किया। तथापि इनसे विलक्षणताके द्योतनके वेदोंकी चार संहिताओंको चार वेदके रूपमें स्वीकार किया। इन्होंने ब्राह्मणभागको वेदसे भिन्न किन्तु वेदकी व्याख्याके रूपमें ख्यापित किया एवम् मन्वादि धर्मशास्त्रोंके भी अधिकांश भागको अङ्गीकार किया। प्रतिभासम्पन्न ईश्वरकल्प मुक्त जीवका श्रीरामकृष्णादिरूपसे अवतार भी माना। इन्होंने जन्मसे शूद्रादि वर्णोंको भी स्वीकार किया। परन्तु इनके अनुयायियोंने जन्मनिरपेक्ष किन्तु कर्मसापेक्ष वर्णव्यवस्थाको ख्यापित किया। जिसके फलस्वरूप मेकालेकी कूटनीति भारतमें सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक धरातलपर सर्वत्र क्रियान्वित होने लगी।
ध्यान रहे; स्वदेशी या विदेशी कोई भी तन्त्र तभी तक अपना अस्तित्व सिद्ध कर पाता है, जब तक उसमें सत्यसहिष्णु दया, दम (संयम), दानादि मानवोचितशीलसम्पन्न सत्पुरुष शेष रहते हैं।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” का अध्याय “हिन्दुनिरुक्ति” पृष्ठ संख्या २७४ – २७८
वर्तमान वस्तुस्थिति और अपेक्षा

इस महायान्त्रिक युगमें गोवंश – गङ्गा – वेदादि लोगोपकारक सर्वहितकारक प्रशस्त मानबिन्दुओंका संरक्षण तथा विप्र, सती, अलुब्ध दानशीलादिका दर्शन सर्वथा असम्भव है। धर्म – अर्थ – काम और मोक्षसंज्ञक पुरुषार्थचतुष्टयका अपहारक , संयुक्त परिवार तथा उसमें सन्निहित सदाचारका विलोपक, पर्यावरणका विध्वंसक यह महायान्त्रिक युग सकल सुन्दरताओंका शोषक और दिव्यताओंका विदूषक है।
वैदिक महर्षियोंके द्वारा चिर परीक्षित तथा प्रयुक्त उपायोंकी उपेक्षा कर मन:कल्पित विधासे लौकिक – पारलौकिक उत्कर्ष और अपवर्ग सर्वथा असम्भव है; तद्वत् ब्रह्माधिष्ठित प्रकृतिप्रदत्त सकल भेदभूमियोंका सदुपयोग तथा निर्भेद परमात्मामें मनोयोग सर्वथा असम्भव है; तद्वत् प्रवृत्तिको निवृत्ति तथा निवृत्तिको निर्वृति (परमानन्दरूपा मुक्ति) तक पहुँचा पाना सर्वथा दुष्कर है और कर्तव्य, प्राप्तव्य और ज्ञातव्यकी पूर्णता भी सर्वथा असम्भव है।

नीति , प्रीति, स्वार्थ तथा परमार्थमें सैद्धान्तिक सामञ्जस्य अपेक्षित है। इनके सामञ्जस्यसे शान्तिमय तथा सुखमय जीवन सम्भव है। नीतिनिपुणता तथा अध्यात्मनिष्ठासे जीवनकी सार्थकता सुनिश्चित है।
“धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।” (नारदपरिव्राजकोपनिषत् ३. २४, मनुस्मृति: ६. ९२) के अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है कि धर्म और अध्यात्मका लक्षण धृति (धैर्य) है; जब कि इस महायान्त्रिक युगका प्रथम लक्षण धैर्यविहीनता है। कम – से – कम समयमें, कम – से – कम श्रमसे , कम – से – कम सहयोगियोंके द्वारा, येन – केन – प्रकारेण अधिक – से – अधिक उपलब्धि और उत्पादन तथा उनके सेवनसे आह्वादपूर्ण जीवनकी मान्यता इस महायान्त्रिक युगकी महत्ता है। अत एव अपेक्षित काल – श्रम – सहयोगी – निरपेक्षता तथा विधिविहीनताके फलस्वरूप रुग्णता, असहायता और अपकर्षपूर्ण शोकाकुल जीवनमें धर्म और अध्यात्मविहीनता स्वाभाविक तथा सुनिश्चित है।

नीति तथा अध्यात्मविहीन वर्तमान शिक्षा तथा जीविका पद्धति देहात्मवादकी जननी है। इसके कारण महानगरोंके माध्यमसे संयुक्त परिवारका विलोप दृष्टिगोचर है। संयुक्त परिवारके विलोपके फलस्वरूप कुलधर्म, कुलदेवी, कुलदेवता, कुलगुरु, कुलवधू, कुलवर, कुलपुरुषका द्रुतगतिसे विलोप परिलक्षित है। इनके विलोपके फलस्वरूप वर्णसङ्करता तथा कर्मसङ्करताकी ; तद्वत् विषयलोलुपता और बहिर्मुखताकी पराकाष्ठा परिलक्षित है। परम्पराप्राप्त वर्णाश्रमानुरूप कर्मोंके विलोपके फलस्वरूप भोजन करने तथा सन्तान उत्पन्न करनेका मात्र यन्त्र बनकर मनुष्यका अवशिष्ट रहना स्वाभाविक तथा सुनिश्चित है।
वस्तुस्थिति यह है कि इस महायान्त्रिक युगमें भी सनातन वैदिक आर्य हिन्दुओंका सनातनशास्त्रसम्मत परम्पराप्राप्त कृषि, भोजन, जलसंसाधन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव – त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय और विवाहादिके प्रकल्प सर्वोत्कृष्ट हैं।

धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त शासनतन्त्र
विश्वहृदय भारतमें धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त शासनतन्त्रकी स्थापना अपेक्षित है। ‘सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, सम्पन्न, सेवापरायण, स्वस्थ और सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाजकी संरचना’ की भावनासे अन्योंके हितका ध्यान रखते हुए हिन्दुओंके अस्तित्व और आदर्शकी रक्षा, देशकी सुरक्षा और अखण्डताके लिए कटिबद्धता अपेक्षित है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” का अध्याय “हिन्दुनिरुक्ति” पृष्ठ संख्या २७८ – २७९
