न ही लक्ष्मी कुलक्रमज्जता न ही भूषणों उल्लेखितोपि वा।
खड्गेन आक्रम्य भुंजीत: वीर भोग्या वसुंधरा।।
– पराशरस्मृति (प्रथम अध्याय, ६७ वाँ श्लोक)

ना ही लक्ष्मी निश्चित कुल से क्रमानुसार चलती है और ना ही आभूषणों पर उसके स्वामी का चित्र अंकित होता है।
तलवार के दम पर पुरुषार्थ करने वाले ही विजेता होकर इस रत्नों को धारण करने वाली धरती को भोगते है।
वीर भोग्या वसुंधरा!
आदि अनादि काल से रही यही परम्परा।
कायरों ने दुःख सहे हैं, वीर भोग्या वसुंधरा।।
किंचित नहीं भयभीत हो विषम विपरीत बहाव में।
कर को अपने पर बना जो पतवार डाले नाव में।।
हो तनिक विचलित नहीं वह व्यर्थ के तनाव में।
मरहम लगाना जानता जो स्वयं अपने घाव में।।
काल के कराल से जो कभी नहीं डरा।
कायरों ने दुःख सहे हैं, वीर भोग्या वसुंधरा।।
आवेगों की आंधी को जो दामन में बांधे हो
अश्रुधार को जो अपनी पलकों पर ही साधे हो।।
बृंदावन सा जीवन हो और मुख पर राधे राधे हो।
उत्तरदायित्वों से शोभित जिसके उन्नत कांधे हों।।
इस धरा पर नाम जिसने कर्म से अमर करा।
कायरों ने दुःख सहे हैं, वीर भोग्या वसुंधरा।।
जो अभाव में भाव खोज ले, सूनेपन में कलरव को।
पीड़ा से मुस्कान छीन ले और कोलाहल में नीरव को।।
प्रतिबिम्बों से प्रतिमान गढ़े, जीर्णशीर्ण से नूतन नव को।
मृत्यु भी नमन करती है अंत समय उसके शव को।।
मरकर भी इस जग से जो अद्यावधि तक नहीं मरा।
कायरों ने दुःख सहे हैं, वीर भोग्या वसुंधरा।।
– हरवंश श्रीवास्तव ‘हर्फ़’
* साभार: श्री हरवंश श्रीवास्तव जी
जो साहसी होते हैं, जो शूरवीर होते हैं, समर्थ होते हैं,
वे ही धरती के संसाधनों का उपभोग करने के सही अधिकारी हैं।
राज्यं दास्ये न देवेभ्यो वीरभोग्या वसुंधरा।
रणं दास्यामि ते रुद्र देवानां पक्षपातिने।।
– शिवपुराण (2.4.32.18)
“मैं देवताओंको राज्य नहीं दूंगा, क्योंकि यह पृथ्वी वीरोंके उपभोगके लिए है।”

यह प्रसंग शिवपुराणमें रावणके पुत्र शंखचूड़ और भगवान शिवके बीच एक युद्धमें आया था, जहाँ शंखचूड़ देवताओंको राज्य वापस देनेसे मना करता है और कहता है कि “वीर और साहसी लोग ही धरतीके मालिक और रक्षक होते हैं, और वे ही इसका उपभोग करनेके योग्य हैं।”

इतिहास साक्षी है कि महान नेता और योद्धा अपनी वीरता के बल पर ही साम्राज्य स्थापित कर पाए हैं। चाहे वह चाणक्य की नीतियाँ हों या महाराणा प्रताप या राणा सांगा का युद्धकौशल, सभी ने “वीर भोग्या वसुंधरा” के मूल सिद्धान्त को अपनाया। यह नेतृत्व की गुणवत्ता को भी प्रदर्शित करता है, जहाँ एक योद्धा के रूप में वीरता के दृष्टिकोण का होना अनिवार्य है।
नीति और शक्ति
यत्र नीतिबले चोभे तत्र श्रीस्सर्वतोमुखी।।
(शुक्रनीति १. १७)
“जो नीति तथा शक्ति दोनोंसे सम्पन्न है, उसे सब ओरसे सब प्रकारकी श्री स्वतः सुलभ होती है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६८

धर्मयुद्धका निमन्त्रण नहीं भेजा जाता, जो वीर होते हैं वो स्वयं मैदानमें आ जाते हैं।
शक्ति और क्षमा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ, कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की बँधा मूढ़ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।
— श्रीरामधारी सिंह “दिनकर”जी की कविता
