राज्ञः दण्डसंहितापालनं अस्मात् कालनिर्णयः च
(राजाके दण्डनीति-पालनसे युग-परिवर्तन)

राजा का कारण काल है या काल का कारण राजा? ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिए; क्योंकि राजा ही काल का कारण होता है। जब राजा यथार्थतः पूर्णतया दण्डनीति का पालन करता है, तो उस समय कृतयुग होता है। कृतयुग में सर्वत्र धर्म ही विद्यमान रहता है, ढूँढ़ने पर भी अधर्म नहीं मिलता। किसी के भी मन का झुकाव अधर्म की ओर नहीं होता। प्रजा का योगक्षेम ठीक से चलता है और सभी प्रकार वैदिक गुण प्रतिष्ठित होने लगते हैं। रत्नगर्भा धरित्री कामधेनु है, इसी तरह द्युलोक में भी सब कुछ है। प्रजा के धर्मनिष्ठ होने पर राजा परमेश्वरानुग होता है। फिर किसी वस्तु की कभी कमी नहीं होती :
कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ७९)
दण्डनीत्यां यदा राजा सम्यक् कात्स्न्-र्येन वर्तते।
ततः कृतयुगं नाम कालसृष्टं प्रवर्तते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८०)
ततः कृतयुगे धर्मो नाधर्मो विद्यते क्वचित्।
सर्वेषामेव वर्णानां नाधर्मे रमते मनः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८१)
योगक्षेमाः प्रवर्त्तन्ते प्रजानां नात्र संशयः।
वैदिकानि च सर्वाणि भवन्त्यपि गुणान्युता।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८२)

सभी ऋतुएँ नीरोग और सुखदायी होती हैं। मनुष्यों के स्वर, वर्ण और मन प्रसन्न रहते हैं। उस समय व्याधियाँ नहीं होती और न कोई अल्पायु ही दीखता है। कोई विधवा नहीं होती और न कोई कृपण ही होता है। पृथिवी अकृष्टाच्या (बिना जोते ही सफल देनेवाली) होती है। बिना श्रमके अनन्त धनधान्य, फल-फूल देती है। औषधियाँ पर्याप्त होती हैं। त्वक्, पत्र, फल और मूल शक्तिशाली होते हैं। उस समय पूर्णरूप से धर्म रहता है, अधर्म कहीं नहीं भी रहता :
ऋतवश्च सुखाः सर्वे भवन्त्युत निरामयाः।
प्रसीदन्ति नराणां च स्वरवर्णमनांसि च।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८३)
व्याधयो न भवन्त्यत्र नाल्पायुर्दृश्यते नरः।
विधवा न भवन्त्यत्र कृपणो न तु जायते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८४)
अकृष्टपच्या पृथिवी भवन्त्योषधयस्तथा।
त्वक्पत्रफलमूलानि वीर्यवन्ति भवन्ति च।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८५)
नाधर्मो विद्यते तत्र धर्म एव तु केवलम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८६ (१/२))

जब राजा चौथाई अंश छोड़ तीन चौथाई दण्डनीतिका पालन करता है तो त्रेता युग होता है। उस समय धर्म के तीन अंश अशुभ के चतुर्थाश से अनुविद्ध हो जाते है और पृथिवी कृष्टपच्या हो जाती है। औषधियाँ भी बीजवपन से होती हैं :
दण्डनीत्यां यदा राजा त्रीनंशाननुवर्तते।
चतुर्थमंशमुत्सृज्य तदा त्रेता प्रवर्तते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८७)
अशुभस्य चतुर्थांशस्त्रीनंशाननुवर्त्तते।
कृष्टपच्यैव पृथिवीमचन्त्योषधयस्तथा।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८८)

जब राजा आधी दण्डनीति छोड़कर आधी का अनुसरण करता है तो उस समय द्वापर नामक युग होता है। द्वापर में पृथिवी कष्टपच्या होती है और फलोत्पत्ति आधी हो जाती है। लेकिन राजा जब दण्डनीति का तनिक भी स्पर्श न कर असत् उपायों से प्रजा-पीड़न करता है तो कलियुग की प्रवृत्ति होती है।
आज तो हजार प्रयत्न करने पर भी प्रजा को पेट भरने को अन्न नहीं मिल रहा है। अन्न संकट दूर करने के लिए भोक्ताओं की संख्या घटाने का प्रयत्न हो रहा है। सन्तति निरोध, नसबन्दी, बन्ध्याकरण, लूप-प्रयोग, गर्भपात जैसे जघन्य कृत्यों का प्रचार किया जा रहा है :
अर्धे त्यक्त्वा यदा राजा नीत्यधर्मानुवर्त्तते।
ततस्तु द्वापरं नाम स काला सम्प्रवर्तते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ८९)
अशुभस्य यदा त्वर्धे द्वावंशावनुवर्तते।
कृष्टपच्यैव पृथिवी भवत्यर्धफला तथा।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९०)
दण्डनीतिं परित्यज्य यदा कात्स्येंन भूमिपः।
प्रजाः क्लिश्नात्ययोगेन प्रवर्तेत तदा कलिः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९१)


कलियुग में प्रायः अधर्म ही होता है। धर्म का कहीं नाम भी नहीं सुनायी पड़ता। सभी वर्णों का मन अपने-अपने धर्म से हट जाता है। शूद्र भिक्षा माँगने लगते हैं, तो ब्राह्मण सेवा करने लगते हैं। किसी का योगक्षेम सुरक्षित नहीं रह पाता। सर्वत्र वर्णसंकर हो जाता है। यदि कथञ्चित् वैदिक धर्म रहते हैं, तो वे भी विकलांग। ऋतुएँ सुखकारिणी नहीं होतीं। रोग की बहुतायत हो जाती है। मनुष्यों के स्वर, वर्ण और मन का ह्रास होने लगता है। व्याधि से प्रजा भरने लगती हैं। प्रजा में क्रूरता बढ़ जाती है :
कलावधर्मो भूयिष्ठं धर्मो भवति न क्वचित्।
सर्वेषामेव वर्णानां स्वधर्माच्च्यवते मनः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९२)
शूद्रा भैक्षेण जीवन्ति ब्राह्मणाः परिचर्य्यया।
योगक्षेमस्य नाशश्च वर्त्तते वर्णसङ्करः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९३)
वैदिकानि च कर्माणि भवन्ति विगुणान्यत।
ऋतवो न सुखाः सर्वे भवन्त्यामयिनस्तथा।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९४)
ह्रसन्ति च मनुष्याणां स्वरवर्णमनांस्युत।
व्याधयश्च भवन्त्यत्र प्रियन्ते च गतायुषः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९५)
विश्ववाश्च भवन्त्यत्र नृशंसा जायते प्रजा।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९६ (१/२))

राजा के शास्त्र विरोधी अपचार से ही धरित्री स्वल्पसस्या हो जाती है। प्रजा अल्पायु दरिद्र एवं व्याधि-पीड़ित हो उठती है। कहीं खण्डवृष्टि होती है तो कहीं सस्य उपजता है, सर्वत्र नहीं। जब राजा सावधानी से दण्डनीति द्वारा प्रजापालन करना नहीं चाहता तो यह सारी दुर्दशा होती है। पदार्थों से भी सभी रस क्षीण हो जाते हैं :
राज्ञोऽपचारात् पृथिवी अल्पसस्या भवेत् किल।
अल्पायुषः प्रजाः सर्वा दरिद्रा व्याधिपीडिताः।।
क्वचिद्वर्षति पर्जन्यः क्वचित् सस्यं प्ररोहति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९६(२/२))
रसाः सर्वे क्षयं यान्ति यदा नेच्छति भूमिपः।
प्रजाः संरक्षितुं सम्यग् दण्डनीतिसमाहितः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९७)

कृतयुग के प्रवर्तन से राजा सर्वथा स्वर्ग का भागी होता है। त्रेता के प्रवर्तन से उसकी अपेक्षा कुछ कम स्वर्ग का भागी होता है। द्वापर के प्रवर्तन से यथाभाग स्वर्ग प्राप्त करता है तो कलि के प्रवर्तन से राजा सर्वथा पाप का भागी होता है :
कृतस्य करणाद्राजा स्वर्गमत्यन्तमश्नुते।
त्रेतायाः करणाद्राजा स्वर्गमत्यन्तमश्नुते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९९)
प्रवर्तनाद् द्वापरस्य यथाभागमुपाश्नुते।
कलेः प्रवर्त्तनाद्राजा पापमत्यन्तमश्नुते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. १००)
राजन, तुम लोभाक्रान्त होकर अधर्म से अर्थसंग्रह करने की बात मत सोचो। क्योंकि शास्त्र का उल्लंघन करनेवाले के धर्म और अर्थ दोनों ही टिक नहीं पाते। शास्त्र से अननुमत करों (टैक्सों) की भरमारकर मोहवश प्रजापीडन करनेवाले राजा का वही हाल होता है जैसे कोई दूध के लिए गाय का थन ही काट डाले और दूध पाने से मुँहताज हो जाय :
मा स्माधर्मेण लोभेन लिप्सेथास्त्वं धनागमम्।
धर्मार्थावध्रुवौ तस्य यो न शास्त्रपरो भवेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७१. १३)
करैरशास्त्रदृष्टैर्हि मोहात् सम्पीडयन् प्रजाः।
ऊघश्छिन्द्याद्यो तु धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत्पयः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७१. १५ (२/२), ७१. १६ (१/२))

राज्य के अधिकारी अपना मनोरथ पूर्ण न होने पर राष्ट्र में पीड़ा पहुँचाते हैं, फलतः राष्ट्र कभी समृद्ध नहीं होता। जो गाय की नित्य सेवा सुश्रूषा करता है, वही दूध पा सकता है। इसी तरह अच्छे उपायों से जो राज्य का भोग करता है, वही धन-धान्यादि फल पाता है। राजन, आपको माली के समान (जैसे माली पौधों को सींचकर उनसे फल ग्रहण करता है, वैसे ही) बनना चाहिए, कोयला बनानेवालों के समान नहीं; क्योंकि कोयला बनानेवाला पेड़ को जड़मूल से काट जलाकर ही कोयला बनाता है :
एवं राष्ट्रमयोगेन पीडितं न विवर्धते।I
यो हि दोग्ध्रीमुपास्ते च स नित्यं विन्दते पयः।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७१. १६ (२/२), ७१. १७ (१/२))
एवं राष्ट्रमुपायेन भुञ्जानो लभते फलम्।
मालाकारोपमो राजन् भव माऽऽङ्गारिकोपमः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७१. १७ (२/२), ७१. २० (१/२))
— धर्मसम्राट् पूज्य स्वामीश्री करपात्रीजी महाराज द्वारा लिखित
पुस्तक “विचार पीयूष” पृष्ठ संख्या ९५ – ९८
यथा राजा तथा प्रजा
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः।।
(चाणक्यनीति १३. ८)
“प्रजा राजाका अनुसरण करती है। जैसा राजा होता हैं, वैसी प्रजा बन जाती है। यदि किसी देशका राजा (शासक) धार्मिक आचरण करने वाला हो तो उस देशकी प्रजा भी धार्मिक हो जाती है। यदि राजा (शासक) पापी (दुष्ट) हो तो प्रजा भी पापी हो जाती है और राजाके सन्तुलित होने पर प्रजा भी सन्तुलित होती है, अर्थात् जिस प्रकारका राजाका व्यवहार होता है प्रजा उसीका अनुकरण करती है। इसी लिये कहा गया है कि – ‘यथा राजा तथा प्रजा’।।”
राजाका शासनकाल समाजकी दशा निर्धारित करता है।

राजाका चरित्र प्रजाके चरित्रको प्रभावित करता है।
राजा कालस्य कारणम्
कालो व कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ७९)
“काल राजाका कारण है अथवा राजा कालका, ऐसा संशय तुम्हें नहीं होना चाहिये। यह निश्चित है कि राजा ही कालका कारण होता है।।”
राजा कृतयुगस्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च।
युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९८)
“राजा ही सत्ययुगकी सृष्टि करनेवाला होता है और राजा ही त्रेता, द्वापर, तथा चौथे युग कलिकी भी सृष्टिका कारण है।।”

यद्यपि काल पुरुषार्थचतुष्टयकी सिद्धि तथा सृष्टिसंरचनादिमें हेतु है, अतः वह राजाका भी कारण है ; तथापि कालज्ञ तथा कालका शुभ कार्योंमें प्रयोक्ता और महाकाल अकालपुरुष सच्चिदानन्दस्वरुप सर्वेश्वरके शरणागत एवम् प्रजाके भोगापवर्गकी सिद्धिमें संलग्न शासक दिव्यताके तारतम्यसे सत्ययुग, त्रेता या द्वापरका संस्थापक सिद्ध होता है; जबकि निद्रा – आलस्य – प्रमाद तथा काम – क्रोध – लोभके वशीभूत मूर्च्छित, व्यथित, अराजक और उन्मत्त शासक कलिका संस्थापक सिद्ध होता है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३०-२३१
सम्पूर्णं जगत् धारयितुं क्षमता
योगक्षेमो हि राज्ञो हि समायतः पुरोहिते।
यत्रादृष्टं भयं ब्रह्म प्रजानां शमयत्युत।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७४. १ (२/२), ७४. २(१/२))
दृष्टं च राजा बाहुभ्यां तद् राज्यं सुखमेधते।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७४. २(२/२))

ब्राह्मणों में नित्य ही तपोबल और मन्त्रबल रहता है तो क्षत्रिय में बाहुबल और शस्त्रबल प्रतिष्ठित है। दोनों को मिलाकर प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। ब्राह्मण को नित्योदकी और क्षत्रिय को नित्य शस्त्रयुक्त होना चाहिए। पृथिवी में जो कुछ है, वह सब इन दोनों के अधीन है। —
तपो मन्त्रबलं नित्यं ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठितम्।
अस्त्रबाहुबल नित्यं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७४. १४)
ताभ्यां सम्भूय कर्तव्यं प्रजानां परिपालनम्।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७४. १५ (१/२))
नित्योदकी ब्राह्मणः स्यान्नित्यशस्त्रश्च क्षत्रियः।
तयोर्हि सर्वमायत्तं यत् किञ्चिज्जगतीगतम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७४. २२)
राजा को दानशील, यज्ञशील, उपवास तपःशील और प्रजापालन में तत्पर रहना चाहिए। —
दानशीलो भवेद् राजा यज्ञशीलश्च भारत।
उपवासतपश्शीलः प्रजानां पालने रतः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. २)

चोरों द्वारा चुराया हुआ उपजीवी (प्रजा) का धन यदि बरामद न किया जा सके तो राजकोष (शाही खजाने) से तत्काल वह धन उपजीवियों को दिला देना चाहिए। —
प्रत्याहर्तुमशक्यं स्याद् धनं चौरैर्ह्रतं यदि।
तत् स्वकोशात् प्रदेयं स्यादशक्तेनोपजीवतः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७५. १०)
कोई धर्मनिष्ठ, प्रजापालन-परायण राजा किसी राक्षस का तर्जन करता हुआ कहता है। —
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।
नाऽनाहिताग्निर्नायज्वा मामकान्तरमाविशः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७७. ८)
न च मे ब्राह्मणोऽविद्वान्नाव्रती नाप्यसोमपः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७७. ९ (१/२))
न याचन्ते प्रयच्छन्ति सत्यधर्मविशारदाः।
नाध्यापयन्त्यधीयन्ते यजन्ते याजयन्ति न।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७७. १३)
ब्राह्मणान् परिरक्षन्ति संग्रामेष्वपलायिनः।
क्षत्रिया मे स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७७. १४)
न मे राष्ट्रे विधवा ब्रह्मबन्धुर्न ब्राह्मणः कितवो नोत चौरः।
अयाज्ययाजी न च पापकर्मा न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७७. २६)

अर्थात् मेरे देश में कोई चोर नहीं, कोई कंजूस नहीं, कोई मद्यप नहीं, कोई अनाहिताग्नि (अग्निहोत्र से रहित) नहीं, कोई अयज्वा (यज्ञ न करनेवाला) नहीं। फिर तुम मेरे अन्दर कैसे प्रवेश कर गये? मेरे देश में कोई ब्राह्मण मूर्ख नहीं, अव्रती नहीं, असोमपायी (सोमयज्ञ कर सोमपान न करनेवाला) नहीं, फिर तुम मेरे अन्दर कैसे प्रवेश कर गये? मेरे देश के क्षत्रिय सत्य और धर्म का पालन करते हैं। कोई भी माँगने की रुचि नहीं रखता। कोई भी संग्राम से पलायन नहीं करता। सभी ब्राह्मणों की रक्षा करते हैं। सभी अपने कर्म में परिनिष्ठित हैं। फिर तुम मेरे अन्दर कैसे प्रवेश कर गये? मेरे राष्ट्र में विधवा नहीं, कोई भी ब्राह्मण ब्रह्मबन्धु नहीं, कोई भी जुआरी नहीं, कोई भी चोर नहीं, कोई भी अयाज्ययाजी नहीं, कोई भी पापी नहीं, इसलिए मुझे राक्षसों से भय नहीं है।
येषां पुरोगमा विप्रा येषां ब्रह्म परं बलम्।
अतिथिप्रियास्तथा पौरास्ते वै स्वर्गजितो नृपाः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७७. ३१)
जो राजा प्रत्येक कर्म में ब्राह्मणों को आगे रखते हैं, वेद ही जिनके परमबल हैं, जिनके नगर निवासी अतिथिप्रिय हैं वे राजा स्वर्ग पर भी विजय प्राप्त करते हैं। क्षत्रिय के अभाव में शक्तिशाली शूद्र भी राज्य सम्मान का भागी होता है। गिर पड़ने पर सहारा देनेवाला, डूबते को बचानेवाला शूद्र हो या कोई भी हो, उसका सम्मान होना ही चाहिए। जिसके सहारे दस्युओंसे पीड़ित, इधर-उधर भटकती अनाथ प्रजा सुखपूर्वक जीवनयापन कर सके, वही राजा होना चाहिए।
अपारे यो भवेत् पारमप्लवे यो प्लवो भवेत्।
शूद्रो वा यदि वाऽप्यन्यः सर्वथा मानमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७८. ३८)
यमाश्रित्य नरा राजन् वर्तयेयुर्यथासुखम्।
अनाथास्तप्यमानाश्च दस्युभिः परिपीडिताः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७८. ३९)

लोग अपने बन्धु के समान उसीकी पूजा करते हैं। रक्षा न करनेवाला राजा व्यर्थ ही होता है। असत्-पुरुषों को उनके कार्य से पृथक् कर जो राजा नित्य सत्पुरुषों की रक्षा करते हैं, उन्हींको राजा बनाना चाहिए। वे ही सम्पूर्ण विश्व को धारण करने की क्षमता रखते हैं। —
तमेव पूजयेयुस्ते प्रीत्या स्वमिव बान्धवम्।
बन्ध्यया भार्यया कोऽर्थः कोऽर्थो राज्ञाऽप्यरक्षता।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७८. ४० (१/२), ७८. ४१ (२/२))
नित्यं यस्तु सतो रक्षेदसतश्च निवर्तयेत्।
स एव राजा कर्तव्यस्तेन सर्वमिदं घृतम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ७८. ४४)
— धर्मसम्राट् पूज्य स्वामीश्री करपात्रीजी महाराज द्वारा लिखित
पुस्तक “विचार पीयूष” पृष्ठ संख्या ९८ – १००
* साभार: श्री सुमित शर्मा जी (पिलानी) — इस लेख में मूलपाठ के योगदान के लिए
