(सनातनधर्म की चौबीस विशेषताएँ)
सनातनवर्णाश्रमव्यवस्थाकी महिमा
(३) तीसरी विशेषता — सनातनधर्ममें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहादि मानवोचित शीलको वर्णाश्रमकी विधासे जीवनमें शनैः शनैः सन्निहित करनेका विधान है। अतः अहिंसादिके नाम पर हिंसादिका ताण्डवनृत्य असम्भावित है।
(४) चौथी विशेषता — सनातनधर्ममें शिक्षा, रक्षा, अर्थ, सेवादिकी व्यवस्था सबको सदा समुचित सन्तुलितरूपसे सुलभ करानेकी भावनासे निसर्गसिद्ध वर्णाश्रमव्यवस्थाका विधान है ; अतः समय और सम्पत्तिका सदुपयोग, कर्त्तव्यपालनार्थ अपेक्षित संस्कारसम्पन्नता, स्वावलम्बन और सुबुद्धता, दम (मनोनिग्रह, इन्द्रियसंयम), दया तथा दानादि मानवोचित शीलसम्पन्नता, वर्णसङ्करता और कर्मसङ्करतासे पराङ्मुखता, संयुक्तपरिवारकी सुलभता आदि दिव्यताओंसे सम्पन्न व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक संरचना इसमें सन्निहित है। वैकल्पिक आरक्षणमें प्रतिभा तथा प्रगतिका विलोप, प्रयोगविहीन प्रलोभन, प्रतिशोध और परतन्त्रता सुनिश्चित है।
सनातनधर्ममें स्वाधिकारकी सीमामें कर्त्तव्यपालन विहित है; अतः अनावश्यक या अत्यधिक दायित्वसे सबको मुक्त रखनेकी अद्भुत चमत्कृति है।
सनातन वर्णव्यवस्थामें जन्मसे सबकी जीविका सुरक्षित है तथा वंशपरम्परागत जीविकोपार्जनकी दक्षतासे सम्पन्न जन्म भी जीविकोपार्जनमें उपयोगी है। जन्मसे ब्राह्मणादि न माननेपर प्राप्त विसङ्गतियोंका निवारण असम्भव है। समाजको शिक्षक, न्यायाधीश, अधिवक्ता, चिकित्सक, वास्तुविद्याविशारदादि अवश्य चाहिये। इसी प्रकार रक्षक, कृषक, वणिक, आभूषणकार, सेवक, नापित, रजक, कुम्भकार, चर्मकार, जुलाहा, सफाईकर्मी आदि भी चाहिये। ये यदि वंशपरम्परासे नहीं चाहिये, तब वैकल्पिक ब्राह्मणादिकी संरचनामें समय, सम्पत्तिका अपव्यय, अपेक्षित संस्कारका अभाव, संयुक्तपरिवारका विघटन, वर्णसङ्करता तथा कर्मसङ्करताकी विभीषिका, पारस्परिक स्नेह और सद्भावका लोप तथा उत्तरोत्तर प्रज्ञाशक्ति और प्राणशक्तिका ह्रास, शिक्षा – रक्षा – अर्थ और सेवाके प्रकल्पोंमें असन्तुलन, ब्राह्मणादिकी न्यूनता या अधिकता, देहात्मवादकी प्रगल्भता, अर्थकामकी दासता, श्रौतस्मार्तसम्मत कर्मोपासनादिका विलोप और उसके फलस्वरूप लोकपालादि पदकी अप्राप्ति और सर्वविध अपकर्ष भी अनिवार्य है।
(५) पाँचवीं विशेषता — सनातनधर्ममें वर्णाश्रमोचित कर्मविभागके कारण फलचौर्य नहीं है। अभिप्राय यह है कि लौकिक तथा पारलौकिक उत्कर्षका और मोक्षका मार्ग सबके लिये प्रशस्त है। इसमें स्वाधिकारकी सीमामें कर्त्तव्यपालन विहित होनेके कारण अनावश्यक या अत्यधिक दायित्वसे सबको मुक्त रखनेकी अद्भुत चमत्कृति है। इसमें अधिकारानधिकारका विधान होनेपर भी किसीकी प्रतिभा और प्रगतिका अवरोध नहीं है तथा ‘सबमें सबका अधिकार‘ जैसा अनर्गल प्रलाप न होनेसे प्रगतिके नाम पर प्रलयङ्कर उन्माद नहीं है। —
“स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।”
(श्रीमद्भगवद्गीता १८. ४५)
‘अपने – अपने कर्ममें संलग्न मनुष्य संसिद्धि लाभ करता है।।’
“स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता १८. ४६)
‘मानव सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वरकी स्वकर्मानुष्ठानके द्वारा समर्चाकर सिद्धि प्राप्त करता है।।’
‘स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः।
विपर्ययस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः।।’
(श्रीमद्भागवत ११. २१. २)
‘अपने अपने अधिकारके अनुसार धर्ममें दृढ़ निष्ठा गुण मान्य है; जब कि अनधिकार चेष्टा दोष। अभिप्राय यह है कि गुण तथा दोषकी व्यवस्था अधिकारके अनुसार की जाती है, न कि किसी वस्तु या व्यक्तिके अनुसार।।’
(६) छठी विशेषता — सनातनधर्ममें वर्णाश्रमविभेद दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातल पर परम महत्त्वपूर्ण है, न कि रागद्वेषमूलक। सर्व शरीरोंकी पाञ्च भौतिकता तथा आत्माकी सदृशता होनेपर भी सनातन शास्त्रसम्मत वर्णाश्रमानुरूप अधिकारभेद समस्त भेदभूमियोंका सदुपयोग करते हुए निर्भेद आत्मस्थितिका एकमात्र अमोघ उपाय है। अभिप्राय यह है कि धर्मोपदेशका प्रयोजन समस्त भेदभूमियोंका सदुपयोग तथा निर्भेद आत्मस्थिति है। वेदादिशास्त्रसम्मत सनातन धर्मके समादर तथा सेवनसे इस प्रयोजनकी सिद्धि सम्भव है। —
विशेषेण च वक्ष्यामि चातुर्वर्ण्यस्य लिङ्गतः।
पञ्चभूतशरीराणां सर्वेषां सदृशात्मनाम्।।
(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. ११)
लोकधर्मे च धर्मे च विशेषकरणं कृतम्।
यथैकत्वं पुनर्यान्ति प्राणिनस्तत्र विस्तरः।।
(महाभारत – अनुशासनपर्व १६४. १२)
“यद्यपि सबके शरीर पाञ्च भौतिक हैं और सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा भी सर्वप्राणियोंमें सदृश ही है; तथापि समस्त भेदभूमियोंका सदुपयोग करता हुआ अनात्मवस्तुओंसे विविक्त और सर्वाधिष्ठानभूत आत्मामें व्यक्ति मन समाहित कर सके, तदर्थ बल और वेगका समुचित आधान वेदादि शास्त्रसम्मत वर्णाश्रमोचित भेदको स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं है। इस तथ्यका वैदिक वाङ्मयमें विस्तारपूर्वक वर्णन है।।”
(७) सातवीं विशेषता — सनातनधर्ममें व्यवहारशुद्धिसे परमार्थसिद्धिका सदुपदेश है। स्नान, भोजन, शयन, यज्ञ, दान, तप आदि सकल लौकिक और पारलौकिक व्यवहार भगवत्समर्पणकी भावनासे और भगवदर्थ सम्पादित होनेके कारण स्नानादिकी केवल भोगरूपता चरितार्थ नहीं है, अपितु योग और भक्तिरूपता सिद्ध है। अभिप्राय यह है कि सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वरसे अभिव्यक्त वेदोंके परम तात्पर्य स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म ही हैं। उनके निःश्वासभूत शब्दब्रह्मात्मक वेद कर्मोंके अभिव्यञ्जक संस्थान हैं। कर्म यज्ञोंके समुद्भवमें हेतु हैं। यज्ञ पर्जन्यमें हेतु है। पर्जन्यसे अन्नका उद्भव होता है। अन्नसे प्राणियोंका उद्भव होता है। इस प्रकार अधोमुख कर्मका पर्यवसान जन्म देने और लेनेकी प्रवृत्तिकी परिपुष्टि है; जब कि ऊर्ध्वमुख कर्मका पर्यवसान वेदवेद्य सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्मकी समुपलब्धि है। —
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्धवः।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ३. १४)
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ३. १५)
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।
(श्रीमद्भगवद्गीता १८. ४६)
सनातनियोंके मार्गदर्शक सर्वसमर्थ ईश्वरकल्प
(८) आठवीं विशेषता — सनातनियोंके मार्गदर्शक आप्तकाम, परम निष्काम सत्पुरुष लोभ, भय, कोरी भावुकता और अविवेकसे सर्वथा अतीत होते हैं। वे स्वार्थलोलुप और अदूरदर्शी नहीं होते। वे सर्वहितैषी, सर्वहितज्ञ, सर्वहितमें तत्पर और सर्वसमर्थ ईश्वरकल्प होते हैं। वे नीति, प्रीति, स्वार्थ तथा परमार्थमें सामञ्जस्य साधकर व्यवहारके पक्षधर होते हैं। यही कारण है कि सनातनियोंका पतन नहीं होता।
(९) नौवीं विशेषता — सनातनधर्ममें जो जहाँ है, उसे वहींसे उत्कर्षका मार्गप्रशस्त करनेकी स्वस्थ विधा है। अतः पन्थगत सङ्कीर्णता और अधिकार तथा अभिरुचिके उच्छेदका इसमें समादर नहीं है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ५१९ – ५२३
सनातनसिद्धान्तसे सर्वोत्कर्ष
(१०) दसवीं विशेषता — सनातनधर्ममें मर्यादा, मनोविज्ञान, शरीरविज्ञान, संस्कारविज्ञान, भोजन – वस्त्र – आवास – शिक्षा – रक्षा – स्वास्थ्य – सेवा – न्याय – यातायात – विवाह – कृषि – गणित – लोक – परलोक – सृष्टि – स्थिति – संह्रति – निग्रह – अनुग्रह आदि विविध विज्ञानोंका सन्निवेश है। अतः आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक समग्र विकासमें यह अमोघ हेतु है। पतनका मूल शिक्षापद्धतिकी नीति तथा अध्यात्मविहीनता है। सनातनधर्ममें उस शिक्षणसंस्थान और शिक्षितको धर्मद्रोही उद्घोषित किया गया है, जिसके द्वारा केवल अर्थ और काम या धन और मानके लिए शिक्षाका उपयोग और विनियोग सुनिश्चित है। —
आजिजीविषवो विद्यां यशः कामौ समन्ततः।
ते सर्वे नृप पापिष्ठा धर्मस्य परिपन्थिनः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १४२. १२)
(११) ग्यारहवीं विशेषता — सनातनधर्ममें प्रवृत्तिको निवृत्ति और निवृत्तिको निर्वृति (मुक्ति) – पर्यावसायिनी बनानेकी क्रमिक स्वस्थ विधा है; अतः जीवनको पूर्ण सार्थक करने में यह समर्थ है। इसके अनुसार जीवनयापन करनेवाला जीवनकालमें ही कृतकर्त्तव्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्त प्राप्तव्य होनेमें समर्थ है।
स्मृत्वा कालपरीमाणं प्रवृत्तिं ये समास्थिताः।
दोषः कालपरीमाणे महानेष क्रियावताम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ३४०. १३)
“जो नियत कालतक प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि फलोंको लक्ष्य करके प्रवृत्तिमार्गका आश्रय लेते हैं, उन कर्मपरायण पुरुषोंके लिये यही सबसे बड़ा दोष है कि वे कालकी सीमामें आबद्ध रहकर ही कर्मके फलका उपभोग करते हैं।।”
निर्वाणं सर्वधर्माणं निवृत्तिः परमा स्मृता।
तस्मान्निवृत्तिमापन्नश्चरेत् सर्वाङ्गनिर्वृतः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ३३९. ६७)
“समस्त कर्मोंसे उपरत हो जाना ही परम निवृत्ति है। अतः जो निवृत्तिको प्राप्त हो गया है, वह सम्पूर्ण निर्वृति (परमानन्दस्वरूपा मुक्तिरूपा उपरामता) लाभकर विचरण करे। अभिप्राय यह है कि प्रवृत्तिकी सार्थकता निवृत्तिमें और निवृत्तिकी सार्थकता निर्वृतिमें सन्निहित है।।”
(१२) बारहवीं विशेषता — सनातनधर्मशास्त्र किसीको अराजकताकी ओर प्रेरित और प्रवाहित करनेवाला नहीं है। व्यक्तिको उन्मादी बनानेके पक्षधर सनातन धर्मशास्त्र बिल्कुल नहीं हैं। ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्‘ – ‘सत्य, शिव और सुन्दर‘, ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म‘ (छान्दोग्योपनिषत् ३. १४. १) – ‘निस्सन्देह यह सब सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्माकी अभिव्यक्ति होनेके कारण ब्रह्म है’, ‘अमृतस्य पुत्राः‘ (श्वेताश्वतरोपनिषत् २. ५) – ‘सच्चिदानन्दस्वरूप अमृत संज्ञक सर्वेश्वरसे अभिव्यक्त पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश – सहित समस्त स्थावर – जङ्गम प्राणी अमृतपुत्र हैं’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘ (महोपनिषत् ६. ७१) – ‘पृथ्वीसे उपलक्षित चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्डसहित सर्व प्राणी परमात्मासे अभिव्यक्त परमात्मपरिवारके सदस्य सगे – सम्बन्धी हैं’, ‘सर्वेषां मङ्गलं भूयात्‘ (गरुडपुराण २. ३५. ५१; भविष्यपुराण २. ३५. १४), ‘सबका मङ्गल हो’, ‘स्वस्त्यस्तु विश्वस्य‘ (श्रीमद्भागवत ५. १८. ९) ‘विश्वका कल्याण हो’, ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‘ (पद्मपुराण, सृष्टि. १९. ३५५, विष्णुधर्मोत्तर. ३. २५३. ४४) – ‘दूसरोंके द्वारा किये हुए जिस वर्तावको अपने लिये नहीं चाहते, उसे दूसरोंके प्रति भी नहीं करना चाहिये’ तथा ‘सर्वभूतहिते रताः‘ (श्रीमद्भगवद्गीता ५. २५, १२. ४) ‘सब प्राणियोंके हितमें रत‘ – यह सनातन आदर्श श्रौत सिद्धान्त है। सनातनशास्त्रोंमें स्वयंको संयत करने और अराजकतत्त्वोंके दमन करनेका समादर है। अराजकतत्त्वोंके दमनके मूलमें स्नेह, सहानुभूति और सर्वहितकी भावना सन्निहित है, न कि विद्वेषका कालुष्य प्रतिष्ठित है।
(१३) तेरहवीं विशेषता — सनातनधर्ममें तामसको राजस, राजसको सात्त्विक, सात्त्विकको शुद्धसात्त्विक गुणातीत बनानेका क्रमिक सोपान सन्निहित है। इसमें विकासके नाम पर विनाशको उज्जीवित करनेका उपक्रम नहीं है। इसमें स्वास्थ्य के लिए अपेक्षित शुद्ध पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश, अहम्, महत्, दिक्, काल, सङ्कल्प, निश्चय, स्मरण, गर्व, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धसे सम्पन्न व्यष्टि और समष्टिकी संरचना और संस्थिति का विज्ञान है।
पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः स्पर्शी च वायुर्ज्वलितं च तेजः।
नभः सशब्दं महता सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।
(वामनपुराण १४. २६)
“गन्धयुक्त पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्दसहित आकाश, सत्त्वसम्पन्न अहम् और महत्तायुक्त महत् – ये सब मेरे प्रातःकाल को मङ्गलमय करें।”
काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी सस्यशालिनी।
देशोऽयं क्षोभरहितः ब्राह्मणाः सन्तु निर्भयाः।।
(श्रीमद्वाल्मीकीयरामायण पाठ – २)
“समय पर वर्षा हो, पृथ्वी सस्यशालिनी रहे, यह देश क्षोभरहित रहे और ब्राह्मण सबके हितमें संलग्न रहें।”
(१४) चौदहवीं विशेषता — सनातनधर्ममें सम्पन्नताके नाम पर दरिद्रताको प्राप्त कराने की अदूरदर्शिता नहीं है। मद्य, द्यूत, अपवित्रता, चोरी, तस्करी, कच्चेमालका निर्यात और ऋणका झञ्झावात, विश्वासघात, कृत्रिम व्यक्तित्व, श्रमके प्रति अरुचि, असंयम, विषयलम्पटता, शीलापहरण, अराजकता, वर्णसङ्करता तथा कर्मसङ्करतादि दूषणोंसे विमुक्त जीवनपद्धति और शासन – संस्थानके कारण सनातनधर्म सर्वत्र समृद्धि, सुख और शान्तिसे सम्पन्न दर्शन है।
सनातनधर्ममें विकाशके नामपर देहात्मवादको तथा मँहगाईको प्रश्रय दिये बिना, पर्यावरणको तथा गोवंश – गङ्गादि प्रशस्त मानबिन्दुओंको शोषित तथा दूषित किये बिना विकाशको परिभाषित तथा क्रियान्वित करनेकी विधा है। इसमें सबकी जीविका जन्मसे आरक्षित है।
(१५) पंद्रहवीं विशेषता — सनातनधर्ममें स्थूल शरीरको व्याधिग्रस्त, सूक्ष्मशरीरको कामादि आधियोंसे संत्रस्त तथा कारणशरीरको अविद्यासंलिप्त करने और रखनेकी विधाका नाम आध्यात्मिक विकास नहीं है। परमेश्वर, प्रकृति, पञ्चभूत, धर्म और धर्मशीलोंसे विमुखता और सुदूरताका नाम सनातनधर्ममें आधिदैविक और आधिभौतिक विकास नहीं है। सबको स्वस्थ, सर्वेश्वरका भक्त, दैवीप्रकृतिका अनुचर, पञ्चभूतोंका संरक्षक और धर्मशील बनानेवाला धर्म सनातनधर्म है।
(१६) सोलहवीं विशेषता — “देहनाश से आत्मनाश नहीं होता और देहभेद से आत्मभेद नहीं होता” — इस दार्शनिक सिद्धान्तको स्वीकार कर अधिकारानुसार चित्तशोधक कर्म, समाधिप्रदा उपासना और भवभयापहारक ज्ञानका विधायक सनातनधर्म है। अतः इसके अनुपालनसे सर्वहित सुनिश्चित है।
(१७) सत्रहवीं विशेषता — सनातनधर्मका मूल अपौरुषेय वेद और वेदानुकूल आप्तवचन है। अतः इसमें पुरुषनिष्ठ भ्रम, प्रमाद, श्रोत्रादि करणोंकी अपटुता, अदूरदर्शिता, छल, आदिका सन्निवेश बिल्कुल नहीं है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ५२४ – ५२८
सर्वहितैषी सनातन शासनतन्त्र
(१८) अठारहवीं विशेषता — आत्मनिष्ठ आप्तकाम व्यासपीठासीन धर्माचार्योंसे नियन्त्रित सर्वहितैषी शासनतन्त्रकी व्यवस्था होनेके कारण सनातन धर्ममें धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त शासनतन्त्रकी शक्ति सन्निहित है।
(१९) उन्नीसवीं विशेषता — सनातनधर्ममें सबको सुबुद्ध, स्वावलम्बी और सत्यसहिष्णु बनानेका मार्ग प्रशस्त है। इसके परिपालनसे धर्मातिरिक्त अर्थ, काम और मोक्षरूप शेष तीन पुरुषार्थोंकी संसिद्धि भी सुनिश्चित है। व्यवहारकी सार्थकता और परमार्थसिद्धिकी प्रशस्त विधा सनातनधर्म है। —
धर्मात्सञ्जायते ह्यार्थो धर्मात्कामोऽभिजायते।
धर्म एवापवर्गाय तस्माद्धर्मं समाश्रयेत्।।
(कूर्मपुराणपूर्व. २. ४५)
तस्माद् धर्मप्रधानेन साध्योऽर्थः संयतात्मना।
विश्वस्तेषु हि भूतेषु कल्पते सर्वमेव हि।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १६७. २६)
धर्मं समाचरेत् पूर्वं ततोऽर्थं धर्मसंयुतम्।
ततः कामं चरेत् पश्चात् सिद्धार्थः स हि तत्परम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व १६७. २७)
“अत एव धर्मके महत्त्वको समझते हुए देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणको संयत रखते हुए जीवनमें धर्मकी प्रधानता देते हुए पहले धर्माचरण करके ही अर्थोपार्जनका प्रयास करे। ध्यान रहे; धर्मपरायण पुरुषपर सब प्राणियोंका विश्वास होता है तथा विश्वासपात्रके सब प्रयोजन स्वतः सिद्ध होते हैं।।”
“सर्वप्रथम धर्माचरण करे। तत्पश्चात् धर्मयुक्त अर्थका उपार्जन करे। फिर धर्म और अर्थके अविरुद्ध और अनुकूल कामका सेवन करे। तदनन्तर वह स्वतःसिद्ध ब्रह्मसिद्धिके लिए तत्पर रहकर जीवनको सार्थक करे।।”
न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हति।
अशोचन् प्रतिकुर्वीत यदि पश्येदुपक्रमम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २०५. ५)
“जो दुःख पूरे जनपदको है, उसके लिये किसी एक व्यक्तिको शोक नहीं करना चाहये। यदि उसे दूर करनेका कोई उपाय दृष्टिगोचर हो तो शोक न करके उसके निवारणका प्रयत्न करना चाहिये।।”
(२०) बीसवीं विशेषता — सनातनधर्ममें विश्वके प्रत्येक मानवको भारतवर्षके अग्रजन्मा मनीषियोंके सम्पर्कमें आकर अपने-अपने चरित्रकी शिक्षा प्राप्त करनेका सुयोग सुलभ है। —
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।
(मनुस्मृति २. २०)
(२१) इक्कीसवीं विशेषता — भारत के चक्रवर्ती नरेन्द्रोंका यह दायित्व रहा है कि वे चतुर्दशभुवनात्मक ब्रह्माण्डमें जितने भी स्थावर जङ्गम प्राणी हैं, उनका जो स्वभावसिद्ध आहार है, उन्हें सुलभ करावें। धान्य, वेद, वीर्य–ओज-बल-अमृत, कव्य, स्वरमाधुर्य-सौन्दर्य, विद्या, सिद्धि, तृण, रस, फल, आसव-मदिरा, रुधिर, मांस, विष, माया आदि क्रमशः मनुष्यों, देवों, पितरों, गन्धर्वों – अप्सराओं, सिद्धों, पशुओं, वृक्षों, पक्षियों, दैत्य-दानवों, यक्ष राक्षसों, सर्पादि विषधरों और किम्पुरुषोंके निसर्गसिद्ध आहार हैं। चक्रवर्ती नरन्द्रोंका यह भी दायित्व है कि पर्वतादि परोपकारी पदार्थोंको लोकोपकारिणी धरोहर सुवर्णादि विविध धातुओंसे सम्पन्न रखें।
उक्त तथ्य श्रीमद्भागवतमें सन्निहित चतुर्थस्कन्धके अन्तर्गत अट्ठारहवें अध्यायके अनुशीलन से सिद्ध है।
नाम, गोत्र, देश, काल, सम्बन्धके उल्लेखपूर्वक श्रद्धा तथा मन्त्रके योगसे सम्पादित यज्ञ, दान, तप, श्राद्ध, तर्पणादि सर्वपोषक प्रकल्प सनातनधर्मके अतिशय महत्त्वके ख्यापक हैं।
सनातन धर्ममें वित्तका लौकिक तथा पारलौकिक उत्कर्षकी भावनासे धर्म, यश, अर्थ, काम और स्वजनोंके लिये पाँच प्रकारसे उपयोग तथा विनियोग विहित है। —
धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च।
पञ्चधा विभजन्वित्तमिहामुत्र च मोदते।।
(श्रीमद्भागवत ८. १९. ३७)
(२२) बाईसवीं विशेषता — सनातनधर्ममें आदर्श शासक वही मान्य है, जिसके जनपद (शासनक्षेत्र) में कोई चोर, मदिरादि प्राणघातक और प्रज्ञापहारक पदार्थोंका सेवन करनेवाला, स्वेच्छाचारी तथा स्वेच्छाचारिणी एवम् यज्ञ-अध्ययन तथा दानरूप धर्मस्कन्धोंसे विहीन मानव न हो। —
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।।
(छान्दोग्योपनिषत् ५. ११. ५)
“मेरे राज्यमें कोई चोर नहीं है, न अदाता, न मद्यप, न अनाहिताग्नि, न अविद्वान् और न परस्त्रीगामी ही है, फिर कुलटा स्त्रीका होना तो सम्भव ही कैसे है?।।”
(२३) तेईसवीं विशेषता — सनातनधर्ममें वेदान्तवेद्य सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वर स्रष्टा तथा सृज्य अर्थात् सृष्टिके अभिन्न निमित्तोपादानकारण दोनों ही सिद्ध हैं; अत एव वे श्रीरामकृष्णादिरूपोंमें साक्षात् अवतीर्ण होते हैं। वे साकार – निराकार, सगुण – निर्गुण दोनों ही रूपोंमें उपास्य सिद्ध हैं।
सनातनधर्ममें कर्मोपासनाकी वह अमोघ विधा सन्निहित है, जिसके अनुष्ठानसे मनुष्य कालान्तरमें इन्द्र, वरुण, कुबेर, यम आदि दिक्पालोंके पदको प्राप्त कर सकता है। वह सनातन सर्वेश्वरकी उपासनाके अमोघ प्रभावसेसार्ष्टि, सारूप्य, सालोक्य, सामीप्य और सायुज्यमोक्ष प्राप्त कर सकता है। उसे ब्रह्मात्मतत्त्वके एकत्व विज्ञानसे कैवल्य मोक्ष तक सुलभ हो सकता है। ब्रह्मादितुल्य अतुल ऐश्वर्यसम्पन्नता सार्ष्टिमोक्ष है। भगवत्सदृश चतुर्भुजादिरूपसम्पन्नता सारूप्य मोक्ष है। भगवद्धामकी सम्प्राप्ति सालोक्य मोक्ष है। भगवत्सान्निध्य सामीप्य मोक्ष है। भगवत्तादात्म्यापत्ति सायुज्य मोक्ष है। निर्गुण-निर्विशेष मुक्तोप्यसृप्य ब्रह्मरूपता कैवल्य मोक्ष है।
(२४) चौबीसवीं विशेषता — सनातनधर्ममें व्यासासनारूढ आदर्श आचार्य वे मान्य हैं, जिनके स्वस्थमार्गदर्शनमें वैदिक वाङ्मय तथा तदनुसार आचार-विचार और साम्राज्य सुलभ हो और जो सर्वहितकी भावनासे प्रभुकी नित्य प्रार्थना करते हों। —
स्वत्स्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदताम् ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धिया।
मनश्च भद्रं भजताधोक्षजे आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी।।
(श्रीमद्भागवत ५. १८. ९)
“हे प्रभो ! विश्वका कल्याण हो। दुष्ट दुष्टतासे विनिर्मुक्त होकर प्रमुदित हो। सब एक-दूसरेका हितचिन्तन करें। हमारा मन शुभमार्गमें प्रवृत्त हो तथा हमारी बुद्धि निष्कामभावसे स्वप्रकाश सदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीहरिमें निमग्न हो।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ५१९ – ५२३