क्षत्रियोंका धर्म क्या है ?

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


क्षत्रिय कौन ?


शौर्यं वीर्यं धृतिस्तेजस्त्याग आत्मजय: क्षमा।
ब्रह्मण्यता प्रसादश्च रक्षा च क्षत्रलक्षणम्।।

(श्रीमद्भागवत ७.११. २२)

युद्धमें उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजाकी रक्षा करना — ये क्षत्रियके लक्षण हैं।।”

न हि शौर्यात् परं किंचित् त्रिषु लोकेषु विद्यते।
शूर: सर्वं पालयति सर्वं शूरे प्रतिष्ठितम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९९. १८)

तीनों लोकोंमें शूरवीरतासे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। शूरवीर क्षत्रिय सबका पालन करता है और सारा जगत् उसीके आधारपर टिका हुआ है।।”
क्षत्रिय कौन है?
पुरुषाणां समानानां दृश्यते महदन्तरम्।
संग्रामेऽनीकवेलायामुत्क्रुष्टेऽभिपतन्त्युत।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १८)

“सभी पुरुष देखनेमें समान होते हैं; परंतु युद्धस्थलमें जब सैनिकोंके परस्पर भिड़नेका समय आता है और चारों ओरसे वीरोंकी पुकार होने लगती है, उस समय उनमें महान्‌ अन्तर दृष्टिगोचर होता है। एक श्रेणीके वीर तो निर्भय होकर शत्रुओंपर टूट पड़ते हैं और दूसरी श्रेणीके लोग प्राण बचानेकी चिन्तामें पड़ जाते हैं।।”
क्षत्रिय कौन है?
अभीतॊ विकिरन् शत्रून् प्रतिगृह्य शरांस्तथा।
न तस्मात्त्रिदशाः श्रेयॊ भुवि पश्यन्ति किंचन।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. ११)

तस्य शस्त्राणि यावन्ति त्वचं भिन्दन्ति संयुगे।
तावतः सॊऽश्रुते लॊकान् सर्वकामदुहॊऽक्षयान्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १२)

“जो निर्भय हो शत्रुओंपर बाणोंकी वर्षा करता और स्वयं भी बाणोंका आघात सहता है, उस क्षत्रियके लिये उस कर्मसे बढ़कर देवतालोग इस भूतलपर दूसरा कोई कल्याणकारी कार्य नहीं देखते हैं।। युद्धस्थलमें उस वीर योद्धाकी त्वचाको जितने शस्त्र विदीर्ण करते हैं, उतने ही सर्वकामनापूरक अक्षय लोक उसे प्राप्त होते हैं।।”

यदस्य रुधिरं गात्रादाहवे सम्प्रवर्तते।
सह तेनैव रक्तेन सर्वपापैः प्रमुच्यते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १३)

यानि दुःखानि सहते क्षत्रियो युधि तापित:।
तेन तेन तपॊ भूय इति धर्मविदॊ विदुः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १४)

समरभूमिमें उसके शरीरसे जो रक्त बहता है, उस रक्तके साथ ही वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।। युद्धमें बाणोंसे पीड़ित हुआ क्षत्रिय जो-जो दुःख सहता है, उस-उस कष्टके द्वारा उसके तपकी ही उत्तरोत्तर वृद्धि होती है; ऐसी धर्मज्ञ पुरुषोंकी मान्यता है।।”

क्षात्रधर्म


अल्पाश्रयानल्पफलान् वदन्ति धर्मानन्यान् धर्मविदॊ मनुष्याः।
महाश्रयं बहुकल्याणरूपं क्षात्रं धर्मं नेतरं प्राहुरार्याः।।
(महाभारत-शान्तिपर्व ६३, २६)

धर्मके ज्ञाता आर्य पुरुषोंका कथन है कि अन्य समस्त धर्मोंका आश्रय तो अल्प है ही, फल भी अल्प ही है। परंतु क्षात्रधर्मका आश्रय भी महान्‌ है और उसके फल भी बहुसंख्यक एवं परमकल्याणरूप हैं, अत: इसके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है।।”

क्षत्रियाणां महाराज संग्रामे निधनं मतम्।
विशिष्टं बहुभिर्यज्ञैः क्षत्रधर्ममनुस्मर।।
(महाभारत-शान्तिपर्व २२. ३)

“महाराज ! आप क्षत्रियधर्मको स्मरण तो कीजिये, क्षत्रियोंके लिये संग्राममें मर जाना तो बहुसंख्यक यज्ञोंसे भी बढ़कर माना गया है।।”
राजधर्म
ब्राह्मणानां तपस्त्यागः प्रेत्य धर्मविधिः स्मृत:।
क्षत्रियाणां च निधनं संग्रामे विहितं प्रभॊ।।
(महाभारत-शान्तिपर्व २२. ४)

“प्रभो ! तप और त्याग ब्राह्मणोंके धर्म हैं, जो मृत्युके पश्चात् परलोक में धर्मजनित फल देनेवाले हैं; क्षत्रियोंके लिये संग्राममै प्राप्त हुई मृत्यु ही पारलौकिक पुण्यफलकी प्राप्ति करानेवाली है।।”

क्षात्रधर्मॊ महारौद्रः शस्त्रनित्य इति स्मृत:।
वधश्च भरतश्रेष्ठ काले शस्त्रेण संयुगे।।
(महाभारत-शान्तिपर्व २२. ५)

“भरतश्रेष्ठ ! क्षत्रियोंका धर्म बड़ा भयंकर है। उसमें सदा शस्त्रसे ही काम पड़ता है और समय आनेपर युद्धमें शस्त्रद्वारा उनका वध भी हो जाता है (अतः उनके लिये शोक करनेका कोई कारण नहीं है)।।”

मज्जेत् त्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धर्मा: प्रक्षयेयुर्विबुद्धा:।
सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हताः स्युः क्षात्रे त्यक्ते राजधर्मे पुराणे।।
(महाभारत-शान्तिपर्व ६३, २८)

“यदि दण्डनीति नष्ट हो जाय तो तीनों वेद रसातलको चले जायँ और वेदोंके नष्ट होनेसे समाजमें प्रचलित हुए सारे धर्मोका नाश हो जाय। पुरातन राजधर्म जिसे क्षात्रधर्म भी कहते हैं, यदि लुप्त हो जाय तो आश्रमोंके सम्पूर्ण धर्मोंका ही लोप हो जायगा।।”

क्षत्रिय मृत्यु


अधर्मः क्षत्रियस्यैष यच्छय्यामरणं भवेत्।
विसृजन् श्लेष्ममूत्राणि कृपणं परिदेवयन्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २३)

अविक्षतेन देहेन प्रलयं यॊऽधिगच्छति।
क्षत्रियॊ नास्य तत् कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २४)

न गृहे मरणं तात क्षत्रियाणां प्रशस्यते।
शौटीराणामशौटीर्यमधर्मं कृपणं च तत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २५)

खाटपर सोकर मरना क्षत्रियके लिये अधर्म है। जो क्षत्रिय कफ और मल-मूत्र छोड़ता तथा दु:खी होकर विलाप करता हुआ बिना घायल हुए शरीरसे मृत्युको प्राप्त हो जाता है, उसके इस कर्मकी प्राचीन धर्मको जानने-वाले विद्वान्‌ पुरुष प्रशंसा नहीं करते हैं।। क्योंकि तात! वीर क्षत्रियोंका घरमें मरण हो, यह उनके लिये प्रशंसाकी बात नहीं है। वीरोंके लिये यह कायरता और दीनता अधर्मकी बात है।।”
क्षत्रिय मृत्यु
रणेषु कदनं कृत्वा ज्ञातिभिः परिवारितः।
तीक्ष्णैः शस्त्रैःरभिक्लिष्टः क्षत्रियॊ मृत्युमर्हति।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २८)

शूरॊ हि काममन्युभ्यामाविष्टॊ युध्यते भृशम्।
हन्यमानानि गात्राणि परैर्नैवावबुध्यते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. २९)

स संख्ये निधनं प्राप्य प्रशस्तं लॊकपूजितम्।
स्वधर्मं विपुलं प्राप्य शक्रस्येति सलॊकताम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. ३०)

क्षत्रियको तो चाहिये कि अपने सजातीय बन्धुओंसे घिरकर समरांगणमें महान्‌ संहार मचाता हुआ तीखे शस्त्रोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर प्राणोंका परित्याग करे–वह ऐसी ही मृत्युके योग्य है।। शूरवीर क्षत्रिय विजयकी कामना और शत्रुके प्रति रोषसे युक्त हो बड़े वेगसे युद्ध करता है। शत्रुओंद्वारा क्षत-विक्षत किये जानेवाले अपने अंगोंकी उसे सुध-बुध नहीं रहती है।। वह युद्धमें लोकपूजित सर्वश्रेष्ठ मृत्यु एवं महान्‌ धर्मको पाकर इन्द्रलोकमें चला जाता है।।”
https://youtu.be/U8fiSX7zbRc?si=uzAsjjEtJRurQzpQ
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