व्यासपीठ और शासनतन्त्र में सैद्धांतिक सामञ्जस्य आवश्यक

“आज वेदविहीनविज्ञान के चलते विकासके गर्भ से विस्फोट हो रहा है। वास्तविकता यह है कि सैद्धांतिक धरातल पर भारत स्वतंत्र हुआ ही नहीं और इसके पीछे अंग्रेजोंकी कुटिलनीति थी। वे दुनियाभर में अपने कारोबार की विफलता से भारतसे अपना बोरिया-बिस्तर समेटने को विवश हुए पर साजिश रचकर उन्होंने भारतको मानसिक रूपसे गुलाम बनाकर छोड़ दिया।।”
“यदि हमारे यहां क्षात्रधर्म सुरक्षित होता और व्यासपीठ दिग्भ्रमित न होती तो कोई भी हमें कुचलनेका साहस नहीं कर सकता था। जिन लोगोंने हमपर आक्रमण करके विजयश्री प्राप्त की, उनको भी मालूम था कि क्षात्रधर्म हमारा शिथिल हुआ, और ब्राह्मण – क्षत्रियों का तालमेल बिखर गया, तब वो आक्रमण करनेमें समर्थ हुए। शासनतंत्र को तपोबलसे परिष्कृत करने की आवश्यकता है। नारदमुनि एवं आदि-शंकराचार्य को कौनसा शासकीय सहयोग प्राप्त हुआ था पर उन्होंने अपने तपोबलसे वैदिक सत्य-तथ्य को प्रतिष्ठापित किया।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
तदेतत् क्षत्रस्य क्षत्रं यद्धर्म:
धर्म ही क्षत्रिय (राजा)
का सबसे बड़ा क्षत्र (शक्ति) है।
धर्म राजाओंका भी राजा है। धार्मिक राजा ही राज्य
और प्रजाका सम्यक् रक्षण और पालन
करनेमें समर्थ सिद्ध होता है।
सदाचार, संयम और सद्भावसम्पन्न धर्म,
नीति और अध्यात्मका मर्मज्ञ राजा इन्द्रसदृश
पराक्रमी और अपराजित होता है।
(बृहदारण्यकोपनिषत् १. ४. १४)
सत्मेवानृशंसं च राजवृत्तं सनातनम्।
तस्मात् सत्यात्मकं राज्यं
सत्ये लोक: प्रतिष्ठित:।।
(वाल्मीकीय रामायण – अयोध्याकाण्ड १०९. १०)
“सत्य ही राजाओंकी अक्रूरतापूर्ण सनातन आचारसंहिता है;
अंतः राज्य सत्यात्मक है।
सत्यमें ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है।।”
दत्तमिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च।
वेदा: सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात् सत्यपरो भवेत्।।
(वाल्मीकीय रामायण – अयोध्याकाण्ड १०९. १४)
“दान, यज्ञ, होम,
तप तथा वेद
— इन सबका आधार सत्य ही है;
अतः सत्यपरायण होना चाहिए।।”
व्यासपीठ: शासनतन्त्र: च मध्ये परस्परं नियन्त्रणं भवेत्
“प्राचीन समयसे सत्ताके संचालन में राजगुरु की अहम भूमिका होती थी। किसी भी निर्णयसे पहले उनकी राय ली जाती थी, उनकाही फैसला अंतिम होता था। भटकाव की स्थितिमें राजा भी प्रायश्चितका भागी बनता था। बचपनसे ही गुरुओंके सानिध्यमें रख कर भावी राजाको नैतिकता, निर्णय व आत्मसंयम समेत सभी गुणों का पाठ पढ़ाया जाता था। वहीं व्यासपीठसे इतर हो शासनतन्त्र अपयश के भागी व पतनोन्मुख हुए। महाभारत युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने अर्जुन का मार्गदर्शन कर राह दिखायी और गुरु की महती भूमिका का निर्वाह किया।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती
राजाका योगक्षेम
प्राप्तुं वसुमतीं सर्वां सर्वशः सागराम्बराम्।।
(महाभारत– आदिपर्व १६९.७८)
“जो समुद्रसे घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वीपर अपना अधिकार चाहे, उसे पुरोहितकी आज्ञाके अधीन रहना चाहिए।।”
न हि केवलशौर्येण तापत्याभिजनेन च।
जयेद्ब्राह्मण: कश्चिद् भूमिं भूमिपति: क्वचित्।।
(महाभारत– आदिपर्व १६९.७९)
“तपतीनन्दन अर्जुन ! कोई भी राजा कहीं भी पुरोहितकी सहायता के बिना केवल अपने बल अथवा कुलीनताके भरोसे भूमिपर विजय नहीं प्राप्त करता।।”

योगक्षेमो हि राष्ट्रस्य राजन्यायत्त उच्यते।
योगक्षेमो हि राज्ञो हि समायत्त: पुरोहिते।।
(महाभारत– शान्तिपर्व ७४. १)
“राजन ! राष्ट्रका योगक्षेम राजाके अधीन बताया जाता है; परन्तु राजाका योगक्षेम पुरोहितके अधीन है।।”
यत्रादृष्टं भयं ब्रह्म प्रजानां शमयत्युत।
दृष्टं च राजा बाहुभ्यां तद् राज्यं सुखमेधते।।
(महाभारत– शान्तिपर्व ७४. २)
“जहाँ ब्राह्मण अपने तेजसे प्रजाके अदृष्ट भयका निवारण करता है और राजा अपने बाहुबलसे दृष्ट भयको दूर करता है, वह राज्य सुखसे उत्तरोत्तर उन्नति करता है।।”

तपो मन्त्रबलं नित्यं ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठितम्।
अस्त्रबाहुबलं नित्यं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम्।।
ताभ्यां सम्भूय कर्तव्यं प्रजानां परिपालनम्।
(महाभारत– शान्तिपर्व ७४. १४-१४.१/२)
“ब्राह्मणोंमें सदा तप तथा मन्त्रका बल प्रतिष्ठित रहता है और क्षत्रियोंमें अस्त्र और बाहुबल प्रतिष्ठित रहता है। अतः दोनोंको एक साथ मिलकर ही प्रजाका पालन करना चाहिये।।”
व्यासपीठ और शासनतन्त्रका शोधन

“एक ही मूल समस्या है, व्यासपीठ और शासनतन्त्र दोनोंका दिशाहीन होना। इस मूल समस्याका हल ना होनेसे विस्फोटक परिणाम सामने आ रहे हैं और इसीलिए इस मूल समस्याको सुधारना अत्यन्त आवश्यक है। इस मूल समस्या का हल है — व्यासपीठ और शासनतन्त्रका शोधन और दोनोंमें पारस्परिक सामञ्जस्य। इसलिए आदर्श राज्य की कामना करने वाले क्षत्रियों को सद्गुरू का आलंबन लेना चाहिये।”