सनातन शासनतन्त्र

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


धर्मनियन्त्रित शासनतन्त्र


सनातन शासनतंत्र

धर्मनियंत्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त सर्वहितप्रद सनातन शासनतंत्रकी स्थापना हमारा लक्ष्य है।

‘सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, सम्पन्न, सेवापरायण, स्वस्थ, और सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाजकी संरचना’ — राजनीतिकी मन्वादि धर्मशास्त्रसम्मत विश्वस्तरपर सर्वसम्मत सार्वभौम परिभाषा है।

अन्योंके हितका ध्यान रखते हुए हिंदुओंके अस्तित्व और आदर्शकी रक्षा, देशकी सुरक्षा और अखंडताके लिए कटिबद्धता हमारा व्रत है।

सनातन संस्कृतिके अनुरूप विकास


सनातनसंस्कृतिके अनुरूप शासनकालमें देवियाँ गृहमन्त्रालयके दायित्वका निर्वाह करती थीं। वे सर्वथा शीलसम्पन्न तथा पति, श्वसुर, पुत्र, पिता तथा भ्राताके द्वारा संपोषित और सुरक्षित थीं। वे सावित्री, सुमित्रा, कौशल्या, देवकी, अनसूया, सीता, गार्गी, मैत्रेयी, सुलभा, उभयभारती — सरीखी सिद्धा, सुशीला, विदुषी और योगिनी थीं।”

सनातन संस्कृतिके अनुरूप विकासको परिभाषित और क्रियान्वित करनेकी आवश्यकता है। वस्तुस्थिति यह है कि वैदिक महर्षियोंके द्वारा चिरपरीक्षित और प्रयुक्त विकासके प्रकल्प ही समीचीन हैं। उसकी उपेक्षा और तिलाञ्जलि पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवनसहित स्थावर-जङ्गम प्राणियोंके लिए अवश्य ही विघातक है।”
विकास
अन्न, जल, वस्त्र, आवास, शिक्षा, चिकित्सा, मार्ग, उत्सव – त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय, विवाहादिकी यथायोग्य व्यवस्था सुलभ करनेके लिए कला, विद्या, विज्ञान, श्रम, सामञ्जस्य और धन अपेक्षित है। तदर्थ हितैषी, हितज्ञ विशेषज्ञोंके परामर्शसे, परस्परके सहयोगसे प्राप्त सामग्री (सामूहिक श्रमदान) से अस्सी प्रतिशत क्षेत्रीय समस्याओंका समाधान सम्भव है। तदर्थ प्रयत्न प्रारम्भ करनेपर सोलह प्रतिशत क्षेत्रीय समस्याओंका समाधान विधायक, जिलापालादिके सम्भावित सहयोगसे सम्भव है। शेष चार प्रतिशत स्थानीय समस्याओंका समाधान सांसदादिके सौजन्यसे सम्भव है।”


— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १३९-१४१, १६४-१६५

राजधर्मका परिपालन


वेद सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वरके नि:श्वासकल्प हैं। उनके अविरुद्ध और अनुरूप मन्वादि धर्मशास्त्र हैं। वैदिक संविधानके तात्पर्यनिर्धारण तथा परिज्ञानके लिए शिक्षणसंस्थान और सत्सङ्ग तद्वत् न्यायपालिका अपेक्षित है। उनके क्रियान्वनके लिए कार्यपालिका और कार्यपालिकाकी सहायताके लिए सेना अपेक्षित है। इस तथ्यको हृदयङ्गमकर राजाके अनुरोधसे सभा, समिति तथा सेनाको परस्पर सद्भावपूर्ण सम्वादके द्वारा सैद्धान्तिक सामञ्जस्य साधकर राजधर्मका परिपालन करना चाहिए। — ‘सभ्यः सभां मे पाहि ये च सभ्याः सभासद:’ (अथर्ववेद १९. ५५. ५)।।

राजधर्मके परिपालनमें सहयोग करनेवाला सभा, समिति, सेना और सुरासंज्ञक ह्लादिनीसामग्रीसे सम्पन्न होता है। — ‘सभायाश्च वै स समितेश्च सेनायाश्च सुरायाश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद’ (अथर्ववेद १५. ९. ३)।

सदाचार, संयम और सद्भावसम्पन्न धर्म, नीति और अध्यात्मका मर्मज्ञ राजा इन्द्रसदृश पराक्रमी और अपराजित होता है। धर्म राजाओंका भी राजा है। धार्मिक राजा ही राज्य और प्रजाका सम्यक् रक्षण और पालन करनेमें समर्थ सिद्ध होता है। — ‘तदेतत् क्षत्रस्य क्षत्रं यद्धर्म:’ (बृहदारण्यकोपनिषत् १. ४. १४)


— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६६

सत्यपरायण राजन्


कुलीन: कुलसम्पन्नस्तितिक्षुर्दक्ष आत्मवान्।
शूरः कृतज्ञ: सत्यश्च श्रेयसः पार्थ लक्षणम्।।

(महाभारत — शान्तिपर्व ८३. १६)

“कुन्तीनन्दन! उत्तमकुलमें जन्म होना, सदा श्रेष्ठ कुलके सम्पर्कमें रहना, सहनशीलता, कार्यदक्षता, मनस्विता, शूरता, कृतज्ञता तथा सत्यभाषण — ये श्रेष्ठ पुरुषके लक्षण हैं।।”

सत्यमेवानृशंसं च राजवृत्तं सनातनम्।
तस्मात् सत्यात्मकं राज्यं सत्ये लोकः प्रतिष्ठित:।।

(वाल्मीकीय रामायण — अयोध्याकाण्ड १०९. १०)

सत्य ही राजाओंकी अक्रूरतापूर्ण सनातन आचारसंहिता है; अतः राज्य सत्यात्मक है। सत्यमें ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है।।”
सत्यपरायण राजन्
दत्तमिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च।
वेदा: सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात् सत्यपरो भवेत्।।

(वाल्मीकीय रामायण — अयोध्याकाण्ड १०९. १४)

दान, यज्ञ, होम, तप तथा वेद — इन सबका आधार सत्य ही है; अतः सत्यपरायण होना चाहिए।।”

सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च भूतानुकम्पां प्रियवादितां च।
द्विजातिदेवातिथिपूजनं च पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्त:।।

(वाल्मीकीय रामायण — अयोध्याकाण्ड १०९. ३१)

सत्य, धर्म, पराक्रम, समस्त प्राणियोंपर दया तथा प्रियवचन, तद्वत् देवताओं, अतिथियों और ब्राह्मणोंका पूजन — इन सबको सत्पुरुषोंने स्वर्गलोकका मार्ग बताया है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६६-१६७

नीतिशास्त्रविशारद राजन्


नयश्च विनयश्चौभौ यस्मिन् सत्यं च सुस्थितम्।
विक्रमश्च यथा दृष्ट: स राजा देशकालवित्।।

(वाल्मीकीय रामायण — किष्किन्धाकाण्ड १८. ८)

“जिसमें नय (नीति), विनय, सत्य और पराक्रमादि सब राजोचित गुण यथावत् सन्निहित देखे जायँ, वह राजा देश तथा कालका मर्मज्ञ मान्य है।।”

सर्वोपजीवकं लोकस्थितिकृन्नीतिशास्त्रकम्।
धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यत:।।


अतः सदा नीतिशास्त्रमभ्यसेद्यत्नतो नृप:।
यद्विज्ञानान्नृपाद्याश्च शत्रुजिल्लोकरञ्जकाः।।

(शुक्रनीति १. ५, ६)

सर्व उपकारक तथा लोकस्थितिमें हेतु नीतिशास्त्र ही है। कारण यह है कि विचारकुशल मनीषियोंने इसे धर्म, अर्थ, कामका मूल तथा मोक्षप्रद माना है।।”

“अत एव राजा यत्नपूर्वक सदा नीतिशास्त्रका अध्ययन और अनुशीलन करे। नीतिशास्त्रविशारद राजादि शत्रुओंपर विजय प्राप्त करते हैं और लोकरञ्जक सिद्ध होते हैं।।”

नीतिशास्त्रविशारद राजन्
नृपस्य परमो धर्म: प्रजानां परिपालनम्।
दुष्टनिग्रहं नित्यं न नीत्याऽतो विना ह्युभे।।

(शुक्रनीति १. १४)

दुष्टदमन और प्रजापालन — दोनों ही राजाके नित्य धर्म हैं और ये दोनों नीतिशास्त्रके ज्ञानके बिना सम्भव नहीं।।”

यत्र नीतिबले चोभे तत्र श्रीस्सर्वतोमुखी।।
(शुक्रनीति १. १७)

“जो नीति तथा शक्ति दोनोंसे सम्पन्न है, उसे सब ओरसे सब प्रकारकी श्री स्वतः सुलभ होती है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६७-१६८

अष्टवर्ग


कृषिर्वणिक्पथो दुर्गं सेतु: कुञ्जरबन्धनम्।।
खन्याकरबलादानं शून्यानां च निवेशनम्।
अष्टवर्गमिमं राजा साधुवृत्तोऽनुपालयेत्।।

(अग्निपुराण २३९. ४४-४५)

खेती, व्यापारियोंके उपयोगमें आने वाले स्थल, जलमार्ग, पर्वतादि, दुर्ग, सेतुबन्ध (नहर, बाँध आदि), हाथी आदिके पकड़नेके स्थान, सोनेचाँदी आदिकी खानें, वनमें उत्पन्न साखूशीशम आदिकी निकासीके स्थान तथा शून्य स्थलोंको बसानाआयके इन आठ द्वारोंको ‘अष्टवर्ग’ कहते हैं। सद्विचार तथा सदाचारसम्पन्न राजा इसकी निरन्तर रक्षा करे।।”

गुरुदेव

जलयान, स्थलयान तथा नभोमार्गसे चलनेवाले वायुयान ; जल, स्थल, तथा नभ ; अग्निसूर्यचन्द्र – नक्षत्र – विद्युत् ; पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, नद – निर्झर – समुद्र, पर्वत, वनस्पति, अन्न, पशु, यन्त्र, सुवर्णादि धातु तथा प्रजा, प्रज्ञा, आत्मविद्याविशारद आचार्य, देवीदेवता, यज्ञविद्याविशारद पुरोहित, स्त्री – पुत्र, परिकर और माता तथा पिता एवम् काल और धर्मका सदुपयोग सर्व सम्पदाका स्रोत है

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३५-२३६

दिशाहीन व्यापारतंत्रके अधीन शासनतन्त्र


सत्तालोलुपता तथा अदूरदर्शिताके कारण दिशाहीन शासनतन्त्रके अधीन व्यासतन्त्र तथा शिक्षातन्त्र, नीति और अध्यात्मविहीन दिशाहीन व्यापारतन्त्रके अधीन शासनतन्त्र भारत के पतनका प्रबल हेतु है। व्यापारतन्त्रको निगलनेके लिए उद्यत सेवा और श्रमके प्रति अनास्थान्वित श्रमिकतन्त्र भारत के अतिपतन का उपक्रम है।
दिशाहीन व्यापारतंत्र
भारतकी नैतिक विपन्नताका कारण उस संविधान (मनुस्मृति)का तिरस्कार है, जिसमें शिक्षा – रक्षा – कृषि – गोरक्ष्य – वाणिज्य – सेवा और कुटीर तथा लघु उद्योगको हर व्यक्ति तथा वर्गको सन्तुलितरूपसे सुलभ करानेकी अचूक विधा थी। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र संज्ञक चारों वर्णों की संख्याको आश्रमप्रथासे अपेक्षाके अनुरूप संतुलित रखनेकी क्षमता थी। जिसमें ब्रह्माधिष्ठित प्रकृतिप्रदत्त समस्त भेदभूमियोंके सदुपयोग और निर्भेद और निर्दोष परमात्मामें मनोयोगकी दिव्यता थी। जिसमें प्रवृत्तिका पर्यवसान निवृत्तिमें और निवृत्तिका पर्यवसान निर्वृत्ति (मुक्ति)में सुनिश्चित था। जिसकी आधारशिला देहके नाशसे जीवका अनाश और देहके भेदसे जीवमें अभेदकी वैदिकी गाथा थी।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सूक्तिसुधा” पृष्ठ संख्या ३७

वर्णव्यवस्था के व्यत्यास के फलस्वरूप सम्भावित विप्लव


सनातन वर्णव्यवस्थामें जन्मसे सबकी जीविका सुरक्षित है तथा वंशपरम्परागत जीविकोपार्जनकी दक्षतासे सम्पन्न जन्म भी जीविकोपार्जनमें उपयोगी है।”

नीति तथा अध्यात्मसमन्वित परम्पराप्राप्त शिक्षातन्त्रके अधीन शासनतन्त्र, शासनतन्त्र के अधीन वाणिज्यतन्त्र और सेवातन्त्र सर्वसुखप्रद है। जबकि श्रमिक – सेवकतन्त्रके अधीन वाणिज्यतन्त्र, वाणिज्यतन्त्रके अधीन शासनतन्त्र तथा शासनतन्त्रके अधीन शिक्षातन्त्रके कारण विप्लवपूर्ण वातावरण और विश्वयुद्धकी विभीषिका सुनिश्चित है। अतः वर्णव्यवस्थाके व्यत्यास (उलटफेर) के फलस्वरूप समप्राप्त तथा सम्भावित विप्लवको निरस्त करनेकी आवश्यकता है।”


— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १३७-१३८

रामराज्य (धर्मराज्य)


दशवर्षसहस्त्राणि दशवर्षशतानि च।
अयोध्याधिपतिर्भूत्वा रामो राज्यमकारयत्।।

(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ६१)

श्रीरामने अयोध्याके अधिपति होकर ग्यारह हजार वर्षोंतक राज्य किया।।”
रामराज्य
सन्तुष्टा: सर्वसिद्धार्था निर्भया: स्वैरचारिण:।
नरा: सत्यव्रताश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति।।

(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५७)

श्रीरामचन्द्र जब राज्य करते थे उस समय सब मनुष्य सन्तुष्ट, पूर्णकाम, निर्भय, स्वच्छन्द (स्वाधीन) और सत्यव्रती थे।।”

विधवा यस्य विषये नानाथाः काश्चनाभवत्।
सदैवासीत् पितृसमो रामो राज्यं यदन्वशात्।।

(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५२)

“उनके राज्यमें कोई विधवा और अनाथ नहीं हुई। श्रीरामचन्द्रने जबतक राज्यका शासन किया, तब तक वे अपनी प्रजाके लिए सदा ही पिताके समान कृपालु बने रहे।।”
रामराज्य
कालवर्षी च पर्जन्य: सस्यानि समपादयत्।
नित्यं सुभिक्षमेवासीद् रामे राज्यं प्रशासति।।

(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५३)

मेघ समयपर वर्षा करके खेतीको उत्तम ढङ्गसे सम्पन्न करता था अर्थात् उसे विकसित होने, फूलने तथा फलनेका अवसर देता था। रामजीके राज्यशासनकालमें सदा सुकाल ही रहता था, अर्थात् कभी अकाल नहीं पड़ता था।।”

प्राणिनो नाप्सु मज्जन्ति नान्यथा पावकोऽदहत्।
रूजाभयं न तत्रासीद् रामे राज्यं प्रशासति।।

(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५४)

रामजीके राज्यशासनकालमें कभी कोई प्राणी जलमें नहीं डूबते थे, आग अमर्यादितरूपसे कभी किसीको नहीं जलाती थी तथा किसीको रोगका भय नहीं था।”
रामराज्य
आसन् वर्षसहस्त्रिण्यस्तथा वर्षसहस्त्रकाः।
।।अरोगा: सर्वसिद्धार्था रामे राज्यं प्रशासति।।

(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५५)

श्रीरामचन्द्रजी जब राज्यका शासन करते थे, उन दिनों हजार वर्षतक जीनेवाली स्त्रियाँ और सहस्त्रों वर्षतक जीवित रहनेवाले पुरुष थे। किसीको कोई रोग नहीं सताता था, सभीके सारे मनोरथ सिद्ध होते थे।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७०-१७१