सनातन परम्पराप्राप्त विज्ञान सर्वोत्कृष्ट है
सनातन परम्पराप्राप्त कृषि, जलसंसाधन, भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव – त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय और विवाहादिका विज्ञान विश्वस्तरपर सर्वोत्कृष्ट है।
राजनीति की परिभाषा और स्वस्थ व्यूहरचना
जब इस यान्त्रिक युगमें भी सनातन वैदिक आर्य हिंदुओंका सनातन परम्पराप्राप्त कृषि, जलसंसाधन, भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव – त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय और विवाहादिका विज्ञान विश्वस्तरपर सर्वोत्कृष्ट है;
तब हमारी संस्कृतिके अनुसार स्वतन्त्र भारतमें भी शासनतन्त्र सुलभ न होना तथा सत्तालोलुप, अदूरदर्शी दिशाहीन शासनतन्त्रको सांस्कृतिक और सामाजिक किसी भी संघटनके द्वारा चुनौती प्राप्त न होना हमारे अस्तित्व और आदर्शके विलोपका मुख्य कारण और भीषण अभिशाप है।
अतः सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, सम्पन्न, सेवापरायण, स्वस्थ, और सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाजकी संरचना विश्वस्तरपर राजनीतिकी परिभाषा उद्घोषितकर उसे क्रियान्वित करनेके लिए स्वस्थ व्यूहरचना नितान्त अपेक्षित है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३९
धर्म और अर्थ नामक पुरुषार्थोंका विलोप
इस यान्त्रिक युगमें प्रगतिके नामपर धर्म और मोक्षप्रद ईश्वरको विकासका परिपन्थी माना जाता है। अत एव धर्म और मोक्ष नामक दो पुरुषार्थोंका त्याग यान्त्रिक युगका विशेष उपहार है। मद्य, द्यूत, हिंसा आदि अनर्थप्रभव आर्थिक परियोजनाओंके फलस्वरूप अर्थका पर्यवसान अनर्थमें परिलक्षित है। दरिद्रताके समस्त स्त्रोतोंको समृद्धिका स्त्रोत माननेके कारण आर्थिक विपन्नता सम्भावित तथा परिलक्षित है। अत एव यान्त्रिकयुगमें अर्थ नामक पुरुषार्थका विलोप सुनिश्चित है।
अश्लील मनोरंजन, मादक द्रव्य, कुल – शीलविहीन विवाह, देश – कालका अतिक्रमण, असंस्कृत जीवन और कुलधर्मविहीनतादि हेतुओंसे काम पुरुषार्थका विलोप सम्भावित तथा परिलक्षित है। प्रगतिके नामपर पुरुषार्थविहीन मानवजीवनकी संरचना भीषण अभिशाप और विचित्र विडम्बना है।
परमात्मा, पुण्य और पुण्यात्माको प्रगतिके नामपर परिपन्थी मानना – जीवन तथा जगत् को संतप्त करनेका भीषण अभियान है। परमात्माकी शक्ति प्रकृति, प्रकृतिके परिकर आकाश, वायु, तेज, जल तथा पृथ्वीको विकासके नामपर विकृत, दूषित तथा कुपित (क्षुब्ध) करना स्वयंके तथा सबके हितपर पानी फेरना है। पृथ्वीके जंगमरूप गोवंशको विकासके नामपर विकृत, दूषित तथा कुपित (क्षुब्ध) और विलुप्त करना पर्यावरणके लिए विघातक, सर्वपोषक यज्ञमय तथा योगमय जीवनका विलोपक है।
गंगादि नदियोंके भुव: आदि ऊर्ध्वलोक उद्गमस्थल हैं, भूमण्डल इनका प्रवाहस्थल है और अतलादि अधोलोक इनके अन्तर्धानस्थल हैं। अत एव गंगादि त्रिपथगा हैं। विकासके नामपर इन्हें विकृत, दूषित, कुपित (क्षुब्ध) और विलुप्त करनेका अभियान सर्वविनाशक भीषण अभिशाप है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३९-२४०
हिन्दु आदर्शोंका विलोप
सनातन वैदिक – आर्य – हिंदुओंका उदात्त सिद्धांत प्रायः ग्रन्थोतक सीमित रह गया है। कूटज्ञ मेकालेकी चलायी गयी शिक्षा और तदनुकूल जीविकापद्धतिने संयुक्त परिवारको प्रायः विखण्डित कर दिया है। संयुक्त परिवारके विखण्डित होनेके कारण सनातन कुलधर्म, जातिधर्म, वर्णधर्म, आश्रमधर्म, कुलदेवी, कुलदेवता, कुलपुरोहित, कुलवधू, कुलवर, कुलपुरुष, कुलाचार, कुलोचित जीविका तथा कुलीनताका द्रुतगतिसे विलोप हो रहा है।
सनातनसंस्कृतिमें सबको नीति तथा अध्यात्मकी शिक्षा सुलभ थी। वर्तमान परिपेक्ष्यमें नीति तथा अध्यात्मविहीन साक्षरताको प्रश्रय और प्रोत्साहन प्राप्त होनेपर भी परिश्रमके प्रति अनभिरुचि और न्यायपूर्वक जीविकोपार्जनके प्रति अनास्थाके कारण बेरोजगारी, आत्महत्यामें प्रवृत्ति, आक्रोश और चतुर्दिक् अराजकतापूर्ण वातावरण महामत्स्यन्यायको प्रोत्साहित कर रहा है।
आर्थिक विपन्नता, कामक्रोधकी किंकरता और लोभकी पराकाष्ठाने मनुष्योंको पिशाचतुल्य उन्मत्त बनाना प्रारम्भ किया है।
धन, मान, प्राण तथा परिजनमें समासक्त तथा पार्टी और पन्थोंमें विभक्त हिन्दु अपने अस्तित्व और आदर्शको एवम् भारतके महत्त्वको सुव्यवस्थित रखनेमें सर्वथा असमर्थ हैं।
सन्धि, विग्रह (युद्ध), यान (आक्रमण), आसन (आत्मरक्षा), द्वैधिभाव (कपट) और समाश्रय (मित्रोंसे सहयोग लाभकर शत्रुजय) — संज्ञक छह राजगुणरूप षड्यंत्रकारियोंद्वारा प्रयुक्त छलबलसमन्वित साम, दान, दण्ड, भेद, उपेक्षा, इन्द्रजाल, और मायाके विवश हिंदु हतप्रभ, मूर्छित तथा मृतप्राय हो चुका है।
सत्तालोलुपता और अदूरदर्शिताके कारण दिशाहीन शासनतन्त्र तथा व्यापारतन्त्रके वशीभूत हिन्दुओंके द्वारा ही हिन्दुओंके अस्तित्व और आदर्शका अपहरण द्रुतगतिसे हो रहा है।
क्लबके माध्यमसे अश्लील मनोरंजन तथा मादक द्रव्योंकी दासता पल रही है। क्लासके माध्यमसे शील एवम् सम्पत्तिका अपहरण हो रहा है। कोर्टके माध्यमसे शील, सम्पत्ति, स्नेह एवम् समयका अपहरण हो रहा है। विदेशी षड्यंत्रकारियोंके अग्रदूत, पृष्ठपोषक और यन्त्रभूत भारत के शासक हिन्दुओंके घातक सिद्ध हो रहे हैं।
दिशाहीन न्यायतन्त्र समय, स्नेह, शील, सम्पत्तिके शोषणका संस्थान सिद्ध है। नीति तथा अध्यात्मविहीन शिक्षा तथा शिक्षण — संस्थानोंका केवल धन, मानके लिए उपयोग एवम् विनियोग धर्मद्रोह और अराजकता का स्रोत है।
नगर तथा महानगर — परियोजनाके नामपर ग्राम, वन, भूधर (पर्वत), खनिज द्रव्योंका द्रुत गतिसे विलोप जनजीवनके लिए भीषण अभिशाप है। उन्मादपूर्ण जन – जीवन, घातक अस्त्र – शस्त्रों की बहुलता, सम्वाद और संचार साधनोंकी सघनता तथा क्षात्रधर्मविहीनताके कारण प्रत्येक व्यक्ति और संस्थान अरक्षित है। हाय धन, हाय जन, हाय मान, हाय प्राण, हाय परिजनतक सीमित जीवन मानवजीवनकी अपूर्वताका विघातक है।
धर्मच्युति, परिवारनियोजन, गर्भपात, गोवध, मेधा – रक्षा – वाणिज्य और श्रमशक्तिके अनर्गल दोहन तथा दुरुपयोग, तीर्थविलोप आदि दुश्चक्रके कारण सनातन – आर्य – हिन्दुओंका अस्तित्व तथा आदर्श तीव्रगतिसे विलुप्त हो रहा है। विकासके नामपर गोवंश, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभ, दानशील, गंगादि; तद्वत वन, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम, पुरी, सनातनशिक्षापद्धति, कृषि, कुटीर तथा लघु उद्योग, खनिज पदार्थ और सेवाप्रकल्पका विलोप, अराजक तत्त्वोंका राष्ट्रीयस्तरपर वर्चस्व तथा देशकी सीमाका संकोच, धर्म, अर्थ, काम, तथा मोक्ष – संज्ञक पुरुषार्थ चतुष्टयसे विहीन व्यक्ति और समाजका निर्माण नि:सन्देह विचारशीलोंको विह्वल बनानेवाला है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २४०-२४५
महायन्त्रप्रवर्तनम्
प्रकाश और प्रशस्त पथकी सुलभताके कारण रात्रिके कार्यका दिनमें तथा दिनके कार्यका रात्रिमें सम्पादनसे आलस्य, कर्कशता, आक्रोश, अराजकता तथा रुग्णता अनिवार्य है। वाहन तथा यन्त्रोंके सन्चालनके लिए विद्युत्, डीजल, पेट्रोल आदिके अत्यधिक उपयोगसे प्रज्ञाशक्ति और प्राणशक्तिकी मन्दता, पृथिव्यादि भूत चतुष्टयकी मलिनता, दैवी प्रकोप, गोवंश, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, अलुब्ध (निर्लोभ), दानशील, गंगादि, हिमालयादि, तीर्थादि दिव्य अभिव्यक्तियों तथा सुवर्णादि, चंदनादि दिव्य वस्तुओंका विलोप सुनिश्चित है।
महायन्त्रोंके आविष्कार और प्रचुर प्रयोगसे आध्यात्मिक उत्कर्षका विलोप ही नहीं; अपितु भौतिक उत्कर्षका अवरोध और अन्त भी सुनिश्चित है। कारण यह है कि देहात्मवाद और पंचभूतोंके अनर्गल दोहनवादका नाम भौतिकवाद है। देहात्मवादसे अध्यात्मवादका विलोप सुनिश्चित है तथा पंचभूतोंके अनर्गल दोहनसे भौतिक उत्कर्षका अवरोध और अन्त भी अनिवार्य है।
उक्त हेतुओंसे महायन्त्रोंके निर्माणको श्रीमन्वादि महर्षियोंने उपपातकोंमें परिगणित किया है — ‘महायन्त्रप्रवर्तनम्’ (मनुस्मृति ११.६३)।
दालमें नमक, मिर्च तथा मशालाके तुल्य एवम् आँखोंमें अंजनके तुल्य यन्त्रोंका सीमित तथा सुखद उपयोग ही श्रेयस्कर है। अभिप्राय यह है कि अपेक्षित जलवर्षक प्रजापालक देव, सहयोगी मनुष्य, पशु तथा यन्त्रके योगसे कृषि आदिका सम्पादन सनातन सिद्धान्त है। देवादिनिरपेक्ष केवल यन्त्रसापेक्ष कृषि आदिका सम्पादन देहात्मवाद विधायक, जडताका आधायक, पर्यावरणका विघातक, रोग तथा शोकका उद्दीपक तथा स्थावर – जंगम सर्वसत्त्वविघातक है।
स्रष्टा सर्वेश्वरने पुरुषार्थ चतुष्टयकी सिद्धिरूप जिस प्रयोजनसे सृष्टिकी संरचना की है तथा जिससे सर्वहित सुनिश्चित है, उसका ज्ञान प्राप्तकर तथा ध्यान रखकर ही जीवन तथा जगत् का उपयोग तथा विनियोग कर्त्तव्य और सुमंगल है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २४४-२४५
अन्त्यजों द्वारा ब्राह्मणोंका साथ छोड़ना
स्वयंको अवैदिक कहनेवाले जैन तथा बौद्धोंके शासन और वर्चस्वके समय भी अनुजकल्प अन्त्यजोंने ब्राह्मणादिका साथ नहीं छोड़ा। तद्वत् विधर्मियोंके शासनकालमें भी उन्होंने ब्राह्मणादिका साथ नहीं छोड़ा। परन्तु अंग्रेजोंकी दुरभिसन्धिके वशीभूत स्वयंको वैदिक तथा सुधारक महात्मा माननेवाले गिने – चुने दिशाहीन हिन्दुओंके चपेटमें पड़कर अन्त्यजोंने ब्राह्मणादिका साथ छोड़ दिया।
अहिंसादिकी दिशाहीन परिभाषाने सज्जनताके नामपर अन्यायसहिष्णुता, कायरता तथा शूरता और ओजस्विताके नामपर आतंकप्रिय उग्रवादको प्रश्रय दिया है; जो कि सनातनसंस्कृतिके सर्वथा विरूप है। सनातनसंस्कृतिमें सुशीलता, शूरता और सत्पुरुषोंकी अनुगमनशीलताके कारण ओजस्विता तथा अमोघदर्शितासे सम्पन्नता सज्जनता है। —
रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी।।
(रामचरितमानस १.१७.९.)
स्वतन्त्र भारतमें जैन, बौद्ध, सिक्ख, अन्त्यज अपने उद्गमस्रोतसे वियुक्त होकर अपने अस्तित्व तथा आदर्शको विलुप्त कर रहे हैं और ब्राह्मणादि इनसे विहीन होकर अँगहीन क्षीण हो रहे हैं। इस विसंगतिको विलुप्त करनेकी भावनासे परस्पर सद्भावपूर्ण सम्वादके द्वारा भ्रम तथा भूलका निवारण अपेक्षित है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २४५-२४६
स्वकर्मणा सिद्धिं विन्दति
सनातनधर्ममें फलचौर्य नहीं है। ब्राह्मणादिके सदृश शूद्रादि भी अपने – अपने कर्मोंका भगवत्समर्पण बुद्धिसे अनुष्ठान कर सिद्धि, सद्गति, और मुक्ति प्राप्त करनेमें अधिकृत हैं। यह तथ्य “स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धि: लभते नर: ।” (श्रीमद्भगवद्गीता १८.४५), “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।।” (श्रीमद्भगवद्गीता १८.४६), ‘स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुण: परिकीर्तित: । विपर्ययस्तु दोष: स्यादुभयोरेष निश्चय: ।।’ (श्रीमद्भागवत ११.२१.२) इन भगवद्वचनोंके अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है कि सनातनधर्ममें फलचौर्य नहीं है। अभिप्राय यह है कि अपने अधिकारकी सीमामें सम्प्राप्त कर्मोंके सम्पादनमें संलग्न व्यक्तिका सर्वविध उत्कर्ष सुनिश्चित है।
मानवजीवनका दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातलपर अद्भुत महत्त्व है। इसमें कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय तथा प्राणोंके सहित अन्त:करणका सम्यक् विकास है। यह कर्मायतन, भोगायतन तथा ज्ञानायतन होनेके कारण देवदुर्लभ मान्य है। इसमें धर्मसम्पादन, वैराग्य, भक्ति और भगवत्प्रबोधकी शक्ति सन्निहित है। अव एव स्त्री तथा शूद्रादिकी भी देवदुर्लभता निसर्गसिद्ध है।
मानवोचित स्नेह तथा सनातनसंस्कृतिके सर्वथा अनुरूप जीवनप्रणालीमें कुटीर तथा लघु उद्योगके सम्पादक शूद्रादिको वैश्य उचित लाभ देकर उन सामग्रियोंका उचित मूल्यपर विक्रय करते थे। वैश्य कृषि तथा गोपालनके द्वारा भी जीविकोपार्जन करते थे। क्षत्रिय सुरक्षा तथा धर्मयुद्धके द्वारा जीविकोपार्जन करते थे। ब्राह्मण अध्यापन, दान, यज्ञादि विविध अनुष्ठान और खेत – खलिहान तथा अनाजमण्डीमें अवशिष्ट अन्नके संचयसंज्ञक शिलोञ्छवृत्ति अयाचितवृत्तिसे, यज्ञ – दान – अतिथिसेवा – देवपितरपोषण – तर्पणादि दैनन्दिन कृत्यका निर्वाह करते थे। ब्रह्मचारी और सन्यासी भिक्षावृत्तिसे तथा वानप्रस्थ कन्द – मूल तथा फलके चयनसे या भिक्षावृत्तिसे जीवननिर्वाह करते थे।
उक्तरीतिसे सनातनसंस्कृतिमें सबकी जीविका जन्मसे आरक्षित थी।
विद्वेष और अदूरदर्शितापूर्ण आरक्षणपद्धतिमें उभयपक्षकी प्रतिभाकी हानि, प्रगतिकी हानि, आरक्षणमें अधिकृतकी अपेक्षा नौकरीकी कमीके कारण अप्रायोगिकता, प्रतिशोधकी भावना और राष्ट्रकी पतोन्मुखता, परतन्त्रता या विखण्डतारूप पाँच दोष सन्निहित हैं।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २४६-२४७
भोगापवर्गप्रदायक प्रकल्पका क्रियान्वयन
द्यूत, मद्य, हिंसादि, अनर्थपर्यवसायी अर्थ, मूर्च्छा और मृत्युपर्यवसायी काम; वर्णसंकरता तथा कर्मसंकरतामूलक धर्म और देहात्मभावित मोक्षकी गाथाने; तद्वत् वर्ण, वेष, विधि – निरपेक्ष कर्मकाण्ड, विवेक तथा वैराग्यनिरपेक्ष उपासनाकाण्ड, अहिंसा-सत्यादि-यमविरहित तथा शौचसन्तोषादि नियम – विरहित योग, विवेकवैराग्यादिनिरपेक्ष वेदान्त ; तद्वत् धर्मनिरपेक्ष शासनतन्त्रने पुरुषार्थविहीन मानवसमाजको प्रेय तथा श्रेय दोनोंसे वंचित बना दिया है।
जिन अर्थ और कामपर लट्टू होकर विश्वस्तरपर सामाजिक धरातलपर मनुष्योंने प्रबल बहुमतसे धर्म और मोक्षका परित्याग किया है, उन्हें मोक्षपर्यवसायी धर्मके बिना पुरुषार्थ बना पानेकी क्षमता न होनेके कारण पुरुषार्थविहीन मानवसमाजने स्वयंके और पृथिव्यादि पंचभूतोंके सहित अन्य प्राणियोंके विकृत तथा विलुप्त होनेका बानक बनाकर सबके हितपर पानी फेरनेका काम किया है।
उक्त हेतुओंसे वैदिक महर्षियोंके द्वारा चिर परीक्षित तथा प्रयुक्त भोगापवर्गप्रदायक प्रकल्पका क्रियान्वयन ही सर्वहितप्रद है।
दिव्य गन्धसमन्वित भूमण्डल, दिव्य रससमन्वित कूप – सरोवर – नद – निर्झर – शुद्ध सुविस्तृत सागर, दिव्य रूपसमन्वित तेज, दिव्य स्पर्शसमन्वित वायु, दिव्य शब्द समन्वित अनवरुद्ध अन्तरिक्ष (आकाश), शुद्ध ज्ञान – विज्ञान – गर्व – स्मरणसम्पन्न अन्त:करण, सुशिक्षित – सुसंस्कृत – सुरक्षित – सम्पन्न – सेवापरायण – स्वस्थ – सर्वहितमें प्रयुक्त तथा विनियुक्त जीवन सनातनसंस्कृतिका निसर्गसिद्ध उपहार है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २४७-२४८