राजमन्त्री

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


राजमन्त्री

मन्त्रतन्त्रार्पितप्रीतिर्देशकालोचितस्थिति:।
यश्च राज्ञि भवेद्भक्त: सोऽमात्य: पृथिवीपते:।।

(शाँर्गधरपद्धति: १३५१)

मन्त्र तथा तन्त्रके प्रति पूर्ण आस्थान्वित, देश तथा कालका मर्मज्ञ और तदनुकूल कृत्यका निर्वाहक एवम् जो राजाके प्रति भक्ति – समन्वित हो, वह राजमन्त्री होने योग्य है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७३

देशकालविधानज्ञान् राजमन्त्री


सम्बन्धिपुरुषैराप्तैरभिजातैः स्वदेशजैः।
अहार्यैरव्यभीचारैः सर्वशः सुपरीक्षितैः।।


यौना: श्रौतास्तथा मौलास्तथैवाप्यनहंकृताः।
कर्तव्या भूतिकामेन पुरुषेण बुभूषता।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. १९-२०)

“जिनके साथ कोई-न-कोई सम्बन्ध हो, जो अच्छे कुलमें उत्पन्न, विश्वासपात्र, स्वदेशी, घूस न खानेवाले तथा व्यभिचारदोषसे रहित हों, जिनकी सब प्रकारसे भलीभाँति परीक्षा ले ली गयी हो, जो उत्तम जातिवाले, वेदके मार्गपर चलनेवाले (श्रुतिसेतु के पालक हों), कई पीढ़ियोंसे राजकीय सेवा करनेवाले तथा अहंकारशून्य हों — ऐसे महानुभावोंको अपना उत्कर्ष चाहनेवाला ऐश्वर्यकामी पुरुष मन्त्री बनावे।।”
राजमन्त्री
हीनतेजोऽभिसंसृष्टो नैव जातु व्यवस्यति।
अवश्यं जनयत्येव सर्वकर्मसु संशयम्।।


एवमल्पश्रुतॊ मन्त्री कल्याणाभिजनॊऽप्युत।
धर्मार्थकामसंयुक्तॊ नालं मन्त्रं परीक्षितुम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. २५-२६)

तेजोहीन मन्त्रीके सम्पर्कमें रहनेवाला राजा कभी कर्तव्य और अकर्तव्यका निर्णय नहीं कर सकता। वैसा मन्त्री सभी कार्योमें अवश्य ही संशय उत्पन्न कर देता है।। इसी प्रकार जो मन्त्री उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेपर भी शास्त्रोंका बहुत कम ज्ञान रखता हो; वह धर्म, अर्थ और कामसे संयुक्त होकर भी गुप्त मन्त्रणाकी परीक्षा नहीं कर सकता।।”

तथैवानभिजातॊऽपि काममस्तु बहुश्रुत।
अनायक इवाचक्षुर्मुह्यत्यणुषु कर्मसु।।


यॊ वाप्यस्थिरसंकल्पॊ बुद्धिमानागतागमः।
उपायज्ञॊऽपि नालं स कर्म प्रापयितुं चिरम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. २७-२८)

“वैसे ही जो उत्तम कुलमें उत्पन्न नहीं है, वह भले ही अनेक शास्त्रोंका विद्वान्‌ हो, किंतु नायकरहित सैनिक तथा नेत्रहीन मनुष्यकी भाँति वह छोटे-छोटे कार्योंमें भी मोहित हो जाता है–कर्तव्याकर्तव्यका विवेक नहीं कर पाता।। जिसका संकल्प स्थिर नहीं है; वह बुद्धिमान, शास्त्रज्ञ और उपायोंका जानकार होनेपर भी किसी कार्यको दीर्घकालमें भी पूर्ण नहीं कर सकता।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७२-१७४

मन्त्रीगुण:


कृतज्ञं प्राज्ञमक्षुद्रं दृढ़भक्तिं जितेन्द्रियम्।
धर्मनित्यं स्थितं नीत्यं मन्त्रिणम् पूजयेन्नृप:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ५६)

राजाको उचित है कि वह कृतज्ञ, विद्वान्, महामना, राजाके प्रति दृढ़ भक्ति रखनेवाले, जितेन्द्रिय, नित्य धर्मपरायण और नीतिज्ञ मन्त्रीका आदर करे।।”

सनातन मन्त्रिमण्डल


चतुरॊ ब्राह्मणान् वैद्यान् प्रगल्भान् स्नातकाञशुचीन्।
क्षत्रियांश्च तथा चाष्टौ बलिन: शस्त्रपाणिन:।।


वैश्यान् वित्तेन सम्पन्नानेकविंशतिसंख्यया।
त्रींश्च शुद्रान् विनितांश्च शुचिन् कर्मणि पुर्वके।।


अष्टाभिश्च गुणैर्युक्तं सूतं पौराणिकं तथा।
पञ्चाशद्वर्षवयसं प्रगल्भमनसूयकम्।।


श्रुतिस्मृतिसमायुक्तं विनीतं समदर्शिनम्।
कार्ये विवदमानानां शक्तमर्थेष्वलॊलुपम्।।


वर्जितं चैव व्यसनैः सुघॊरैः सप्तभिर्भृशम।
अष्टानां मन्त्रिणां मध्ये मन्त्रं राजॊपधारयेत्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. ७-११)

वर्ण-व्यवस्था

राजाको चाहिये कि जो वेदविद्याके विद्वान्, निर्भीक, बाहर – भीतरसे शुद्ध एवम् स्नातक हों — ऐसे चार ब्राह्मण, शरीरसे बलवान्‌ तथा शस्त्रधारी आठ क्षत्रिय, धनधान्यसे सम्पन्न इक्कीस वैश्य, पवित्र आचार – विचारवाले तीन विनयशील शूद्र तथा अष्टगुणसम्पन्न पुराणविद्याविशारद एक सूतको मन्त्रिमण्डलमें सन्निहित करे। सेवापरायणता, हितोपदेश श्रवणसम्पन्नता, हितोपदेश – तात्पर्यग्रहणक्षमता, हितोपदेश धारणतत्परता, स्मृतिशीलता, कार्याकार्यपरिणामसमीक्षकता तथा कार्यसाधक प्रकारान्तरपरिशीलनदक्षता अर्थात् वितर्कसम्पन्नता, शिल्पादि कलाकुशलता और तत्त्वज्ञानसम्पन्नता — ये आठ गुण हैं। सूतकी आयु लगभग पचास वर्षकी हो तथा वह निर्भीक, दोषदृष्टिरहित, श्रुतिस्मृतिज्ञानसम्पन्न, विनयशील, समदर्शी, वादी-प्रतिवादीके विवादको निपटानेमें समर्थ, निर्लोभ एवम् सप्त दुर्व्यसनोंसे विमुक्त हो। शिकार, जुआ, परस्त्रीप्रसंग, मद्यपान – संज्ञक चतुर्विध कामज दोष तद्वत् मारना, गाली देना तथा दूसरेकी चीज दूषित करना — त्रिविध क्रोधज दुर्व्यसन हैं। उक्त रीति से कुल आठ (चार ब्राह्मण, एक क्षत्रिय, एक वैश्य, एक शूद्र एवम् एक सूत) मन्त्रियोंसे राजा गुप्त मन्त्रणा करे।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७४-१७५

राजसभासद


धर्मशास्त्रार्थकुशला: कुलीना: सत्यवादिन:।
समा: शत्रौ च मित्रे च नृपते: स्यु: सभासद:।।

(शाँर्गधरपद्धति: १३४३)

धर्मशास्त्रके तात्पर्यनिर्धारणमें कुशल, कुलीन, सत्यवादी तथा शत्रु और मित्रमें सम राजाके सभासद हों।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७२

अर्थमन्त्री


राजमन्त्री

येषां वैनयिकी बुद्धि: प्रकृतिश्चैव शोभना।
तेजो धैर्यं क्षमा शौचमनुराग: स्थितिर्धृति:।।

परिक्ष्य च गुणान् नित्यं प्रौढभावान् धुरन्धरान्।
पंच्चोपधाव्यतीतांश्च कुर्याद् राजार्थकारिण:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. २१-२२)

“जिनमें विनययुक्त बुद्धि, सुन्दर स्वभाव, तेज, धैर्य (बुद्धिमता), क्षमा, पवित्रता, प्रेम, धृति और स्थिरता हो — उनके इन गुणोंकी परीक्षा करके यदि वे राजकीय कार्यभारको सँभालनेमें प्रौढ़ तथा निष्कपट सिद्ध हों, तब राजा उनमेंसे पाँच व्यक्तियोंको चुनकर अर्थमन्त्री बनावे।।”