केवलात् पुनरादानात् कर्मणॊ नॊपपद्यते।
परामर्शॊ विशेषाणामश्रुतस्येह दुर्मतेः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. २९)
“जो दुर्मति है और जिसे शास्त्रोंका बिल्कुल बोध नहीं है, वह केवल मन्त्रीका कार्य हाथमें ले लेनेमात्रसे सफल नहीं हो सकता। विशेष कार्योंमें उसका दिया हुआ परामर्श युक्तिसङ्गत नहीं होता।।”
मन्त्रिण्यननुरक्ते तु विश्वासॊ नॊपपद्यते।
तस्मादननुरक्ताय नैव मन्त्रं प्रकाशयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ३०)
“जिस मन्त्रीका राजाके प्रति अनुराग न हो, उसपर विश्वास करना उचित नहीं है। अतः अनुरागरहित मन्त्रीके सामने अपने गुप्त विचारको प्रकट न करे।।”

व्यथयेद्धि स राजानं मन्त्रिभिः सहितॊऽनृजुः।
मारुतॊपहितच्छिद्रैः प्रविश्याग्निरिव द्रुमम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ३१)
“वह कपटी मन्त्री यदि गुप्त विचारोंको जान लेता है, तब अन्य मन्त्रियोंके साथ मिलकर राजाको उसी प्रकार पीड़ा देता है, जिस प्रकार आग वायुसे भरे हुए छिद्रोंमें घुसकर पूरे वृक्षको भस्म कर डालती है।।”
आगन्तुश्चानुरक्तॊऽपि काममस्तु बहुश्रुतः।
सत्कृतः संविभक्तॊ वा न मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ३८)
“जो कोई अनुरक्त, अनेक शास्त्रोंका विद्वान् और सबके द्वारा सम्मानित हो तथा जिसको भलीभाँति भेंट दी गयी हो, वह भी यदि नया आया हो तो गुप्त मन्त्रणा सुननेके योग्य नहीं है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७६-१७७
परामर्शॊ विशेषाणामश्रुतस्येह दुर्मतेः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. २९)
“जो दुर्मति है और जिसे शास्त्रोंका बिल्कुल बोध नहीं है, वह केवल मन्त्रीका कार्य हाथमें ले लेनेमात्रसे सफल नहीं हो सकता। विशेष कार्योंमें उसका दिया हुआ परामर्श युक्तिसङ्गत नहीं होता।।”
मन्त्रिण्यननुरक्ते तु विश्वासॊ नॊपपद्यते।
तस्मादननुरक्ताय नैव मन्त्रं प्रकाशयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ३०)
“जिस मन्त्रीका राजाके प्रति अनुराग न हो, उसपर विश्वास करना उचित नहीं है। अतः अनुरागरहित मन्त्रीके सामने अपने गुप्त विचारको प्रकट न करे।।”

व्यथयेद्धि स राजानं मन्त्रिभिः सहितॊऽनृजुः।
मारुतॊपहितच्छिद्रैः प्रविश्याग्निरिव द्रुमम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ३१)
“वह कपटी मन्त्री यदि गुप्त विचारोंको जान लेता है, तब अन्य मन्त्रियोंके साथ मिलकर राजाको उसी प्रकार पीड़ा देता है, जिस प्रकार आग वायुसे भरे हुए छिद्रोंमें घुसकर पूरे वृक्षको भस्म कर डालती है।।”
आगन्तुश्चानुरक्तॊऽपि काममस्तु बहुश्रुतः।
सत्कृतः संविभक्तॊ वा न मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ३८)
“जो कोई अनुरक्त, अनेक शास्त्रोंका विद्वान् और सबके द्वारा सम्मानित हो तथा जिसको भलीभाँति भेंट दी गयी हो, वह भी यदि नया आया हो तो गुप्त मन्त्रणा सुननेके योग्य नहीं है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७६-१७७
स मन्त्रं श्रोतुमर्हति
कृतप्रज्ञश्च मेधावी बुधॊ जानपदः शुचिः।
सर्वकर्मसु यः शुद्धः स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४१)
“जिसकी बुद्धि तीव्र तथा धारणा शक्ति प्रबल हो, जो अपने ही देशमें उत्पन्न हो, शुद्धाचरण और विद्वान् हो और सब तरहके कार्योंमें परीक्षा करनेपर निर्दोष सिद्ध हुआ हो, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”
ज्ञानविज्ञानसंपन्नः प्रकृतिज्ञः परात्मनॊः।
सुहृदात्मसमॊ राज्ञ: स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४२)
“जो ज्ञान-विज्ञानसम्पन्न स्वपक्ष तथा शत्रुपक्षके व्यक्तियोंकी प्रकृतिको परखनेवाला तथा राजाका आत्माके समान सुहृद् हो, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”

सत्यवाक् शीलसम्पन्नॊ गम्भीरः सत्रपॊ मृदुः।
पितृपैतामहॊ यः स्यात् स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४३)
“जो सत्यवादी, शीलवान्, गम्भीर, लज्जाशील, कोमल स्वभाववाला तथा पिता – पितामहादि वंशपरम्परासे राजवंशकी सेवा करनेवाला है, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”
संतुष्टः सम्मतः सत्यः शौटीरोद्वेष्यपापकः।
मन्त्रवित् कालविच्छूरः स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४४)
“जो सन्तोषी, सत्पुरुषोंद्वारा सम्मानित, सत्यपरायण, शूरवीर, पापसे द्वेष करनेवाला, राजकीय मन्त्रणाको समझनेवाला, समयकी पहचान रखनेवाला तथा शौर्यसम्पन्न है, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”

पौरजानपदा यस्मिन् विश्वासं धर्मतॊ गताः।
यॊद्धा नयविपश्चिच्च स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४६)
“नगर और जनपद – निवासी जिसपर धर्मतः विश्वास करते हों, जो दक्ष योद्धा तथा नीतिशास्त्रविशारद हो, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”
सर्वलॊकमिमं शक्तः सान्त्वेन कुरुते वशे।
तस्मै मन्त्रः प्रयॊक्तव्यॊ दण्डमाधित्सता नृप।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४५)
“राजन्! जो चिरकालतक दण्डधारण करनेकी इच्छा रखता हो, उसे अपना गुप्त मन्तव्य उसी व्यक्तिको बताना चाहिये, जो शक्तिशाली हो और सम्पूर्ण जगत् को समझा-बुझाकर राजाके हितकी भावनासे अपने वशमें कर सकता हो।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७७-१७८
सर्वकर्मसु यः शुद्धः स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४१)
“जिसकी बुद्धि तीव्र तथा धारणा शक्ति प्रबल हो, जो अपने ही देशमें उत्पन्न हो, शुद्धाचरण और विद्वान् हो और सब तरहके कार्योंमें परीक्षा करनेपर निर्दोष सिद्ध हुआ हो, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”
ज्ञानविज्ञानसंपन्नः प्रकृतिज्ञः परात्मनॊः।
सुहृदात्मसमॊ राज्ञ: स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४२)
“जो ज्ञान-विज्ञानसम्पन्न स्वपक्ष तथा शत्रुपक्षके व्यक्तियोंकी प्रकृतिको परखनेवाला तथा राजाका आत्माके समान सुहृद् हो, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”

सत्यवाक् शीलसम्पन्नॊ गम्भीरः सत्रपॊ मृदुः।
पितृपैतामहॊ यः स्यात् स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४३)
“जो सत्यवादी, शीलवान्, गम्भीर, लज्जाशील, कोमल स्वभाववाला तथा पिता – पितामहादि वंशपरम्परासे राजवंशकी सेवा करनेवाला है, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”
संतुष्टः सम्मतः सत्यः शौटीरोद्वेष्यपापकः।
मन्त्रवित् कालविच्छूरः स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४४)
“जो सन्तोषी, सत्पुरुषोंद्वारा सम्मानित, सत्यपरायण, शूरवीर, पापसे द्वेष करनेवाला, राजकीय मन्त्रणाको समझनेवाला, समयकी पहचान रखनेवाला तथा शौर्यसम्पन्न है, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”

पौरजानपदा यस्मिन् विश्वासं धर्मतॊ गताः।
यॊद्धा नयविपश्चिच्च स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४६)
“नगर और जनपद – निवासी जिसपर धर्मतः विश्वास करते हों, जो दक्ष योद्धा तथा नीतिशास्त्रविशारद हो, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।।”
सर्वलॊकमिमं शक्तः सान्त्वेन कुरुते वशे।
तस्मै मन्त्रः प्रयॊक्तव्यॊ दण्डमाधित्सता नृप।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४५)
“राजन्! जो चिरकालतक दण्डधारण करनेकी इच्छा रखता हो, उसे अपना गुप्त मन्तव्य उसी व्यक्तिको बताना चाहिये, जो शक्तिशाली हो और सम्पूर्ण जगत् को समझा-बुझाकर राजाके हितकी भावनासे अपने वशमें कर सकता हो।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७७-१७८
राजमन्त्र
स्वासु प्रकृतिषुच्छिद्रं लक्षयेरन् परस्य च।
मन्त्रिणां मन्त्रमूलं हि राज्ञॊ राष्ट्रं विवर्धते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४८)
“अपनी तथा शत्रुकी प्रकृतियोंमें जो दोष या दुर्बलता हो, उनपर मन्त्रियोंको दृष्टि रखनी चाहिये; क्योंकि मन्त्रियोंकी मन्त्रणा ही राजाके राष्ट्रकी जड़ है। उसीके आधारपर राज्यकी उन्नति होती है।।”
नास्यच्छिद्रं परः पश्येच्छिद्रेषु परमन्वियात्।
गूहेत् कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद् विवरमात्मनः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४९)
“राजा ऐसा प्रयत्न करे कि उसका छिद्र शत्रु न देख सके; परन्तु वह शत्रुकी सारी दुर्बलताओंको जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अङ्गोको समेटे रहता है, वैसे ही राजाको भी अपने गुप्त विचारों तथा छिद्रोंको छिपाये रखना चाहिये।।”

मन्त्रगूढा हि राज्यस्य मन्त्रिणॊ ये मनीषिणः।
मन्त्रसंहननॊ राजा मन्त्राङ्गानीतरे जना:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५०)
“जो बुद्धिमान् मन्त्री हैं, वे राज्यके गुप्त मन्त्रको छिपाये रखते हैं; क्योंकि मन्त्र ही राजाका कवच है और सदस्यादि अन्य मन्त्रणाके अङ्ग हैं।।”
राज्यं प्रणिधिमूलं हि मन्त्रसारं प्रचक्षते।
स्वामिनं त्वनुवर्तन्ते वृत्त्यर्थमिह मन्त्रिणः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५१)
“मनीषियोंका कथन है कि राज्यका मूल गुप्तचर है और उसका सार गुप्त मन्त्रणा है। मन्त्रिगण अपनी जीविकाके लिये राजाका अनुगमन करते हैं।।”

संविनीय मदक्रॊधौ मानमीर्ष्यां च निर्वृताः।
नित्यं पञ्चॊपधातीतैर्मन्त्रयेत् सह मन्त्रिभिः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५२)
“जो मद तथा क्रोधको जीतकर मान और ईष्यासे रहित हो गये हैं तथा जो कायिक, वाचिक, मानसिक, कर्मकृत और संकेतजनित — इन पाँचों प्रकार के छलोंसे उपराम हैं, ऐसे मन्त्रियोंके साथ ही राजाको गुप्त मन्त्रणा करनी चाहिये।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७८-१७९
मन्त्रिणां मन्त्रमूलं हि राज्ञॊ राष्ट्रं विवर्धते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४८)
“अपनी तथा शत्रुकी प्रकृतियोंमें जो दोष या दुर्बलता हो, उनपर मन्त्रियोंको दृष्टि रखनी चाहिये; क्योंकि मन्त्रियोंकी मन्त्रणा ही राजाके राष्ट्रकी जड़ है। उसीके आधारपर राज्यकी उन्नति होती है।।”
नास्यच्छिद्रं परः पश्येच्छिद्रेषु परमन्वियात्।
गूहेत् कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद् विवरमात्मनः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४९)
“राजा ऐसा प्रयत्न करे कि उसका छिद्र शत्रु न देख सके; परन्तु वह शत्रुकी सारी दुर्बलताओंको जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अङ्गोको समेटे रहता है, वैसे ही राजाको भी अपने गुप्त विचारों तथा छिद्रोंको छिपाये रखना चाहिये।।”

मन्त्रगूढा हि राज्यस्य मन्त्रिणॊ ये मनीषिणः।
मन्त्रसंहननॊ राजा मन्त्राङ्गानीतरे जना:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५०)
“जो बुद्धिमान् मन्त्री हैं, वे राज्यके गुप्त मन्त्रको छिपाये रखते हैं; क्योंकि मन्त्र ही राजाका कवच है और सदस्यादि अन्य मन्त्रणाके अङ्ग हैं।।”
राज्यं प्रणिधिमूलं हि मन्त्रसारं प्रचक्षते।
स्वामिनं त्वनुवर्तन्ते वृत्त्यर्थमिह मन्त्रिणः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५१)
“मनीषियोंका कथन है कि राज्यका मूल गुप्तचर है और उसका सार गुप्त मन्त्रणा है। मन्त्रिगण अपनी जीविकाके लिये राजाका अनुगमन करते हैं।।”

संविनीय मदक्रॊधौ मानमीर्ष्यां च निर्वृताः।
नित्यं पञ्चॊपधातीतैर्मन्त्रयेत् सह मन्त्रिभिः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५२)
“जो मद तथा क्रोधको जीतकर मान और ईष्यासे रहित हो गये हैं तथा जो कायिक, वाचिक, मानसिक, कर्मकृत और संकेतजनित — इन पाँचों प्रकार के छलोंसे उपराम हैं, ऐसे मन्त्रियोंके साथ ही राजाको गुप्त मन्त्रणा करनी चाहिये।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७८-१७९
गुप्तमन्त्रणास्थानम्
न वामनाः कुब्ज कृशा न खञ्जा नान्धो जड: स्त्री च नपुंसकं च।
न चात्र तिर्यक् च पुरॊ न पश्चान्नॊर्ध्वं न चाधः प्रचरेत् कथंचित्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५६)
“जहाँ गुप्त विचार किया जाता हो, वहाँ या उसके अगल – बगल, आगे – पीछे या ऊपर – नीचे भी किसी तरह बौने, कुबड़े, दुबले, लँगड़े, अन्धे, गूँगे, स्त्री और हीजड़े — ये न आने पावें।।”
बालखिल्य, अष्टावक्र, सुदामा, मदालसा, मन्दोदरी, तारा, गार्गी, द्रौपदी, बृहन्नला, धृष्टद्युम्नादि अपवादस्थलके अतिरिक्त सामान्यस्थलमें उक्त सिद्धान्त चरितार्थ है।

आरुह्य वा वेश्म तथैव शून्यं स्थलं प्रकाशं कुशकाशहीनम्।
वागङ्गदॊषान् परिहृत्य सर्वान् सम्मन्त्रयेत् कार्यमहीनकालम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५७)
“महलके ऊपरी मंजिलपर चढ़कर अथवा सूने एवं खुले हुए समतल मैदानमें जहाँ कुश – कास — घास-पात बढ़े हुए न हों, ऐसी जगह बैठकर वाणी और शरीरके सारे दोषोंका परित्याग करके उपयुक्त समयमें भावी कार्यके सम्बन्धमें गुप्त विचार करना चाहिये।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७९-१८०
न चात्र तिर्यक् च पुरॊ न पश्चान्नॊर्ध्वं न चाधः प्रचरेत् कथंचित्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५६)
“जहाँ गुप्त विचार किया जाता हो, वहाँ या उसके अगल – बगल, आगे – पीछे या ऊपर – नीचे भी किसी तरह बौने, कुबड़े, दुबले, लँगड़े, अन्धे, गूँगे, स्त्री और हीजड़े — ये न आने पावें।।”
बालखिल्य, अष्टावक्र, सुदामा, मदालसा, मन्दोदरी, तारा, गार्गी, द्रौपदी, बृहन्नला, धृष्टद्युम्नादि अपवादस्थलके अतिरिक्त सामान्यस्थलमें उक्त सिद्धान्त चरितार्थ है।

आरुह्य वा वेश्म तथैव शून्यं स्थलं प्रकाशं कुशकाशहीनम्।
वागङ्गदॊषान् परिहृत्य सर्वान् सम्मन्त्रयेत् कार्यमहीनकालम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५७)
“महलके ऊपरी मंजिलपर चढ़कर अथवा सूने एवं खुले हुए समतल मैदानमें जहाँ कुश – कास — घास-पात बढ़े हुए न हों, ऐसी जगह बैठकर वाणी और शरीरके सारे दोषोंका परित्याग करके उपयुक्त समयमें भावी कार्यके सम्बन्धमें गुप्त विचार करना चाहिये।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७९-१८०
मन्त्रिपरामर्श एवम् राजगुरु
धर्मार्थकामज्ञमुपेत्य पृच्छेद् युक्तॊ गुरुं ब्राह्मणमुत्तमार्थम्।
निष्ठा कृता तेन यदा सह: स्यात् तं मन्त्रमार्गं प्रणयेदसक्त:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५४)
“राजा सावधान होकर धर्म, अर्थ और कामके ज्ञाता ब्राह्मण राजगुरुकी सेवामें उत्तर प्राप्त करनेकी भावनासे अपने तथा मन्त्रियोंके मन्तव्यको निवेदित करे। उनके द्वारा प्राप्त निर्णयको सर्वसम्मतिसे स्वीकारकर उस विचारपद्धतिरूप मन्त्रमार्गको कार्यरूपमें परिणत करे।।”
तस्मात् सर्वैर्गुणैरेतैरुपपन्नाः सुपूजिताः।
मन्त्रिणः प्रकृतिज्ञाः स्युस्त्र्यवरा महदीप्सवः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४७)
“अतः जो यथोक्त सर्व गुणोंसे सम्पन्न, सबके द्वारा सम्मानित, प्रकृतिको परखनेवाले तथा महत्त्वाकाङ्क्षी (महान् पदकी इच्छा रखनेवाले) हों, ऐसे पुरुषोंको ही मन्त्रीपदपर नियुक्त करना चाहिये। राजाके मन्त्रियोंकी संख्या कम – से – कम तीन होनी चाहिये।।”

तेषां त्रयाणां विविधं विमर्शं विबुध्य चित्तं विनिवेश्य तत्र।
स्वनिश्चयं तं परनिश्चयं च निवेदयेदुत्तरमन्त्रकाले।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५३)
“राजा पहले सदा तीनों मन्त्रियोंकी पृथक् – पृथक् मन्त्रणा जानकर उसपर मनोयोगपूर्वक विचार करे। तत्पश्चात् कालान्तरमें निर्धारित मन्त्रणाके समय अपने तथा मन्त्रियोंके मन्तव्यको राजगुरुकी सेवामें निवेदित करे।।”
एवं सदा मन्त्रयितव्माहुर्ये मन्त्रतत्त्वार्थविनिश्चयज्ञाः।
तस्मात् तमेवं प्रणयेत् सदैव मन्त्रं प्रजासङ्ग्रहणे समर्थम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५५)
“मन्त्रतत्त्वके अर्थका निश्चयात्मक ज्ञान रखनेवाले विद्वान् कहते हैं कि सदा इसी तरह मन्त्रणा करे और जो विचार प्रजाको अपने अनुकूल बनानेमें अधिक प्रबल जान पड़े, सदा उसे ही काममें ले।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८०-१८१
निष्ठा कृता तेन यदा सह: स्यात् तं मन्त्रमार्गं प्रणयेदसक्त:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५४)
“राजा सावधान होकर धर्म, अर्थ और कामके ज्ञाता ब्राह्मण राजगुरुकी सेवामें उत्तर प्राप्त करनेकी भावनासे अपने तथा मन्त्रियोंके मन्तव्यको निवेदित करे। उनके द्वारा प्राप्त निर्णयको सर्वसम्मतिसे स्वीकारकर उस विचारपद्धतिरूप मन्त्रमार्गको कार्यरूपमें परिणत करे।।”
तस्मात् सर्वैर्गुणैरेतैरुपपन्नाः सुपूजिताः।
मन्त्रिणः प्रकृतिज्ञाः स्युस्त्र्यवरा महदीप्सवः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ४७)
“अतः जो यथोक्त सर्व गुणोंसे सम्पन्न, सबके द्वारा सम्मानित, प्रकृतिको परखनेवाले तथा महत्त्वाकाङ्क्षी (महान् पदकी इच्छा रखनेवाले) हों, ऐसे पुरुषोंको ही मन्त्रीपदपर नियुक्त करना चाहिये। राजाके मन्त्रियोंकी संख्या कम – से – कम तीन होनी चाहिये।।”

तेषां त्रयाणां विविधं विमर्शं विबुध्य चित्तं विनिवेश्य तत्र।
स्वनिश्चयं तं परनिश्चयं च निवेदयेदुत्तरमन्त्रकाले।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५३)
“राजा पहले सदा तीनों मन्त्रियोंकी पृथक् – पृथक् मन्त्रणा जानकर उसपर मनोयोगपूर्वक विचार करे। तत्पश्चात् कालान्तरमें निर्धारित मन्त्रणाके समय अपने तथा मन्त्रियोंके मन्तव्यको राजगुरुकी सेवामें निवेदित करे।।”
एवं सदा मन्त्रयितव्माहुर्ये मन्त्रतत्त्वार्थविनिश्चयज्ञाः।
तस्मात् तमेवं प्रणयेत् सदैव मन्त्रं प्रजासङ्ग्रहणे समर्थम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८३. ५५)
“मन्त्रतत्त्वके अर्थका निश्चयात्मक ज्ञान रखनेवाले विद्वान् कहते हैं कि सदा इसी तरह मन्त्रणा करे और जो विचार प्रजाको अपने अनुकूल बनानेमें अधिक प्रबल जान पड़े, सदा उसे ही काममें ले।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८०-१८१