राजतापस – राजगुरु
निवेदयेत् प्रयत्नेन तिष्ठेत् प्रह्वश्च सर्वदा।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. २६)
सर्वार्थत्यागिनं राजा कुले जातं बहुश्रुतम्।
पूजयेत् तादृशं दृष्ट्वा शयनाशनभॊजनैः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. २७)
“राजा अपने राज्यमें जो तपस्वी हों, उन्हें अपने शरीर-सम्बन्धी, सम्पूर्ण कार्यसम्बन्धी तथा राष्ट्रसम्बन्धी समाचार प्रयत्नपूर्वक बताया करे और उनके सामने सदा विनीतभावसे रहे।। जिसने सम्पूर्ण स्वार्थोका परित्याग कर दिया है, ऐसे कुलीन तथा बहुश्रुत विद्वान् तपस्वीको देखकर राजा शय्या, आसन और भोजन देकर उसका सम्मान करे।।”

तस्मिन् कुर्वीत विश्वासं राजा कस्यान्चिदापदि।
तापसेषु हि विश्वासमपि कुर्वन्ति दस्यवः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. २८)
तस्मिन् निधीनादधीत प्रज्ञां पर्याददीत च।
न चाप्यभीक्ष्णं सेवेत भृशं वा प्रतिपूजयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. २९)
“कैसी भी आपत्तिका समय क्यों न हो? राजाको तपस्वीपर विश्वास करना ही चाहिये; कारण यह है कि चोर और डाकू भी तपस्वी महात्माओंपर विश्वास करते ही हैं ।। राजा उस तपस्वीके निकट अपने धनकी निधियोंको समर्पित करे और उनसे परामर्श भी लिया करे; परन्तु न अधिक प्रकट सम्पर्क करे, न अधिक प्रकट सम्मान ही करे। अभिप्राय यह है कि सन्निकटता, निधिसमर्पण तथा सम्मानकी गोपनीयताका ध्यान अवश्य रक्खे।।”

अन्यः कार्यः स्वराष्ट्रेषु परराष्ट्रेषु चापरः।
अटवीषु परः कार्यः सामन्तनगरेष्वपि।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ३०)
तेषु सत्कारमानाभ्यां संविभागांश्च कारयेत्।
परराष्ट्राटवीस्थेषु यथा स्वविषये तथा।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ३१)
ते कस्यान्चिदवस्थायां शरणं शरणार्थिने।
राज्ञे दद्युर्यथाकामं तापसाः संशितव्रताः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. ३२)
“राजा अपने राज्यमें, दूसरोंके राज्योंमें, जंगलोंमें तथा अपने अधीन राजाओंके नगरोंमें भी भिन्न – भिन्न तपस्वीको अपना सुहृद् बनाये रक्खे। उन सबको सत्कार और सम्मानके साथ आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करे। जैसे अपने राज्यके तपस्वीका आदर करे, वैसे ही दूसरे राज्यों तथा जंगलोंमें रहनेवाले तापसोंका भी सम्मान करना चाहिये।। वे उत्तम व्रतका पालन करनेवाले तपस्वी शरणार्थी राजाको किसी भी अवस्थामें इच्छानुसार शरण दे सकते हैं।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८७-१८९
राजवैद्य

आर्यशीलगुणोपेत एष वैद्यो विधीयते।।
(चाणक्यनीतिशतकम् १०३)
“आयुर्वेदमें जिसने अभ्यास किया हो, सबका प्रियदर्शन हो, आर्योचित शीलगुणसे सम्पन्न हो, ऐसा राजवैद्य विहित है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८५
क्रियायोग
अखिल वेद और वेदज्ञोंके आचार – विचार धर्मके मूल हैं।
सर्व प्राणियोंपर दया, क्षमा, दुःखसे सन्तप्त प्राणीकी रक्षा, सबके प्रति ईर्ष्याका अभाव, बाह्याभ्यन्तर शुद्धि, अनायास सुलभ स्वभावसिद्ध कार्यका माङ्गलिक आचार – विचारसे सम्पादन,
न्यायपूर्वक उपार्जित सम्पत्तिसे आर्त्तोंकी सेवामें कृपणताका परिचय न देना तथा पर द्रव्य और पर स्त्रीमें सदा अस्पृहा – पुराणज्ञ पुरुषोंद्वारा प्रतिपादित ये आठ प्रकारके आत्मगुण वेदज्ञ मनीषियोंमें प्रधानरूपसे सदा विद्यमान रहते हैं।
यही ज्ञानयोगका साधक क्रियायोग है।-
अष्टावात्मगुणास्तस्मिन् प्रधानत्वेन संस्थिता:।
दया सर्वेषु भूतेषु क्षान्ती रक्षाऽ ऽ तुरस्य तु।।
(मत्स्यपुराण ५२. ८)
अनसूया तथा लोके शौचमन्तर्बहिर्द्विजा:।
अनायासेषु कार्येषु मङ्गलाचारसेवनम्।।
(मत्स्यपुराण ५२. ९)
न च द्रव्येषु कार्पण्यमार्तेषूपार्जितेषु च।
तथास्पृहा परद्रव्ये परस्त्रीषु च सर्वदा।।
(मत्स्यपुराण ५२. १०)
अष्टावात्मगुणा: प्रोक्त्ता: पुराणस्य तु कोविदै:।
अयमेव क्रियायोगो ज्ञानयोगस्य साधक:।।
(मत्स्यपुराण ५२. ११)
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “राजधर्म” पृष्ठ संख्या ५२
आचार्यम् आदरं ददातु
यॊगक्षेमं च वृत्तिं च नित्यमेव प्रकल्पयेत।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. २४)
आश्रमेषु यथाकालं चैलभाजनभॊजनम्।
सदैवॊपहरेद् राजा सत्कृत्याभ्यच् र्य मान्य च।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. २५)
“राजा दीन, अनाथ, वृद्ध तथा विधवा स्त्रियोंके योगक्षेम एवम् जीविकाका सदा ही प्रबन्ध करे।। राजा आश्रमोंमें यथासमय वस्त्र, बर्तन और भोजनादि सामग्री सदा ही भेजा करे, तथा सबको सत्कार, पूजन एवं सम्मानपूर्वक वे वस्तुएँ अर्पित करे।।”

सत्कृताश्च प्रयत्नेन आचार्यर्त्विकपुरॊहिताः।
महेष्वासाः स्थपतयः सांवत्सरचिकित्सकाः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८६. १६)
“आचार्य, ऋत्विज, पुरोहित और महान् धनुर्धरोंका तथा घर बनानेवालोंका, वर्षफल बतानेवाले ज्यौतिषियोंका और वैद्योंका यत्नपूर्वक सत्कार करे।।”
कुलशीलगुणोपेत: धर्माध्यक्ष

कुलशीलगुणोपेत: सर्वधर्मपरायण:।
प्रवीण: प्रेक्षणाध्यक्षो धर्माध्यक्षो विधीयते।।
(चाणक्यनीतिशतकम् १०२)
“जो कुल तथा शीलगुणसे सम्पन्न हो, सामान्य तथा विशेषसंज्ञक तद्वत् कुलाचारादिसंज्ञक और प्रस्थान तथा मतान्तररूप सर्वधर्ममर्मज्ञ हो, देशकालादिके अनुरूप कर्त्तव्य – निर्धारणमें कुशल हो एवम् धर्मानूरूप क्रिया – कलापके प्रेक्षकोंमें भी श्रेष्ठ हो, ऐसा व्यक्ति धर्माध्यक्षके पदपर प्रतिष्ठित करने योग्य है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८४-१८५