राजगुण

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


इन्द्रात्प्रभुत्वं ज्वलनात्प्रतापं क्रोधो यमाद्वैश्रवणाच्च वित्तम्।
पराक्रमं रामजनार्दनाभ्यामादाय राज्ञ: क्रियते स्वरूपम्।।

(सुभाषितरत्नभाण्डागारम् १४२. १४)

इन्द्रसे प्रभुत्व, अग्निसे प्रताप, यमसे क्रोध, कुबेरसे धन और श्रीराम तथा श्रीविष्णुसे पराक्रम ग्रहणकर राजाका स्वरूप निर्मित होता है।।”
राजगुण
पात्रे त्यागी गुणे रागी भोगी परजनै: सह।
भावबोद्धा रणे योद्धा प्रभु: पञ्चगुणो भवेत्।।

(प्रसङ्गाभरणम् )

पात्रको देयका दान देनेवाला, सद्गुणमें प्रीति करनेवाला, सगे – सम्बन्धी तथा अन्योंके साथ भोग्य वस्तुओंका उपभोग करनेवाला, मनोभावको परखनेवाला और रणके अवसरपर युद्ध करनेवाला पाँच गुणसम्पन्न राजा होता है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७०

महाभारते राजानाम् सप्तगुणाः


माता पिता गुरुर्गोप्ता वह्निर्वैश्रवणो यम:।
सप्त राज्ञो गुणानेतान् मनुराह प्रजापति:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १०३)

पिता हि राजा राष्ट्रस्य प्रजानां योऽनुकम्पन:।
तस्मिन् मिथ्याविनीतो हि तिर्यग् गच्छति मानव:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १०४)

“प्रजापति मनुने राजाके सात गुण बताये हैं, और उन्हींके अनुसार उसे माता, पिता, गुरु, रक्षक, अग्नि, कुबेर और यमकी उपमा दी है।। जो राजा प्रजापर सदा कृपा रखता है, वह अपने राष्ट्रके लिये पिताके समान है। उसके प्रति जो मिथ्याभाव प्रदर्शित करता है, वह मनुष्य दूसरे जन्ममें पशु-पक्षीकी योनिमें जाता है।।”

गुणवान राजा
सम्भावयति मातेव दीनमप्युपपद्यते।
दहत्यग्निरिवानिष्टान् यमयन्नसतो यम:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १०५)

इश्टेषु विसृजन्नअर्थान् कुबेर इव कामद:।
गुरुर्धर्मोपदेशेन गोप्ता च परिपालयन्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १०६)

“राजा दीन-दुःखियोंकी भी सुधि लेता है और सबका पालन करता है; अतः माताके समान है। अपने और प्रजाके अप्रिय जनोंको वह जलाता रहता है; अत एव अग्निके समान है। दुष्टोंका दमन करके उन्हें संयममें रखता है, इसलिये वह यम कहा गया है।। प्रियजनोंको खुले हाथ धन देता है और उनकी कामना पूर्ण करता है, अत एव राजा कुबेरके समान है। धर्मका उपदेश करनेके कारण वह गुरु है और सबका संरक्षण करनेके कारण रक्षक है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२६

अर्थशास्त्र — राजन्स्य चतुर्विधाः गुणाः

१. आभिगामिक गुण — आभिगामिक का अर्थ है- राजा अपनी प्रजाको आकर्षित करने वाला हो। राजा उच्च-कुलीन, दैवीय गुण-सम्पन्न, बुद्धिमान, धर्मात्मा, सत्यभाषी, कृतज्ञ, दानी, दृढ़-बुद्धि, विनयशील, अनुशासनशील तथा संयमी और पड़ोसी राजाओंको नियंत्रित करनेकी क्षमता रखने वाला हो, ताकि प्रजा स्वयमेव राजाके प्रति आकृष्ट हो।।

२. प्रज्ञा गुण — राजा विवेक, तर्क, विवेचन, समालोचन, तत्वज्ञान, आदि गुणोंसे सम्पन्न यथार्थवादी होना चाहिए।।

३. उत्साह गुण — शौर्य, शीघ्रता, निपुणतातत्परताके गुण राजाको उत्साही बनाते हैं।।

४. आत्म-सम्पन्न गुण — स्मृतिवान, बलवान, दूरदर्शी, त्याग, संयम, संधि में दक्ष, काम-क्रोध-लोभ-मोह-चुगलखोरी से रहित आदि गुण राजा में होने चाहिए।।

चाणक्य
— चाणक्य अर्थशास्त्र

प्रजा-रक्षक विराट्


निग्रहेण च पापानां साधूनां संग्रहेण च।
यज्ञैर्दानैश्च राजानॊ भवन्ति शुचयॊऽमलाः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. ३)

यॊ भूतानि धनाक्रान्त्या वधात् कलेशाच्च रक्षति।
दस्युभ्यः प्राणदानात् स धनदः सुखदॊ विराट्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. ८)

ब्राह्मणार्थे समुत्पन्ने यॊऽरिभि: सृत्य युध्यति।
आत्मानं यूपमुत्सृज्य स यज्ञॊऽनन्तदक्षिणः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १०)
प्रजा-रक्षक विराट्
पापियोंको दण्ड देने और सत्पुरुषोंको आदरपूर्वक अपनानेसे तथा यज्ञोंका अनुष्ठान और दान करनेसे राजा लोग सब प्रकारके दोषोंसे छूटकर निर्मल एवं शुद्ध हो जाते हैं।। जो राजा समस्त प्रजाको धनक्षय, प्राणनाश और दु:खोंसे बचाता है, लुटेरोंसे रक्षा करके जीवन-दान देता है, वह प्रजाके लिये धन और सुख देनेवाला परमेश्वर माना गया है।। ब्राह्मणकी रक्षाका अवसर आनेपर जो आगे बढ़कर शत्रुओंके साथ युद्ध छेड़ देता है और अपने शरीरको यूपकी भाँति निछावर कर देता है, उसका वह त्याग अनन्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञके ही तुल्य है।।”

आभिगामिक राजगुणः


कुलीनता, सत्त्वसम्पन्नता (समतासम्पन्नता), युवावस्था, शीलसम्पन्नता, दाक्षिण्य (सर्वहितशीलता), शीघ्रकारिता (उचित अवसरपर उचित निर्णयकी क्षमता), अविसम्वादिता (सुसंगतभाषण), सत्य, शीलनिधि विद्यावृद्धोंकी सेवा, कृतज्ञता, दैवसम्पन्नता (प्रतिकूल प्रारब्धके शोधन अनुकूलके वर्द्धनकी क्षमता), प्रज्ञा, अक्षुद्रपरिवारता (प्रशस्तपरिजन – सम्पादनशीलता), शक्यसामन्तता (चतुर्दिक् राजाओंको प्रमुदित तथा प्रभावित रखनेकी क्षमता), दृढ़भक्तिता (देव-द्विज-गुरु-प्राज्ञोंमें अडिग आस्था), दीर्घदर्शिता (देश – काल – व्यक्तिके सम्बन्धमें पारदर्शिता), उत्साह, शुद्धचित्तता, आलस्य – अभिमान – आसक्ति – स्वार्थान्धताविरहितता तथा सिद्धि – असिद्धिमें समचित्तता, परोत्कर्षसहिष्णुता, सत्य – प्रिय – हित तथा उद्वेगविहीन मृदु तथा मित वचनशीलता, स्थिरसम्बन्धनिर्वाहकता, चतुरश्रता (सज्जनसमादरशीलता), परीक्षितपरामर्शसेवनशीलता तथा दम – दया-दाननिपुणतादि सद्गुणोंसे राजा समन्वित हो।।
गुणवान राजा
वह विराट्, हिरण्यगर्भ तथा अन्तर्यामीकी उपासनाके अमोघ प्रभावसे अन्योंकी वेदनाको हृदयंगम करने और निवारण करनेमें उद्यत रह कर अपने अन्तर्यामित्वको विकसित करनेवाला हो। राजा राष्ट्रकी मेधाशक्ति, रक्षाशक्ति, वाणिज्यशक्ति और श्रमशक्तिका उचित प्रयोक्ता हो। वह इन चारों शक्तियोंके अनर्गल दोहन तथा दुरुपयोगसे राष्ट्रको सुदूर रखनेमें समर्थ हों।

लोभ, भय, कोरी भावुकता तथा अविवेक ; तद्वत् अहंकार, आलस्य, आसक्ति और स्वार्थान्धताके वशीभूत स्वयं न हो तथा उसके परामर्शदाता भी इन दुर्गुणोंके वशीभूत न हों। वह द्यूत, मद्य, मृगयादि दुर्व्यसनोंके चपेटसे मुक्त हो। उसके आचार्य, सखा तथा सेवक विनम्र और विवेकी हों।

वह नीति तथा प्रीति, स्वार्थ और परमार्थ, स्वच्छता एवम् शुद्धि, मेधा तथा श्रम, विद्या और कला, दया और विवेक ; तद्वत् कर्म एवम् उपासनाके साहचर्यसे निज जीवन तथा राज्यके संचालनमें दक्ष हो। वह स्वयं स्त्रैण न हो तथा स्त्रीलम्पटोंके सम्पर्कसे सुदूर हो। उसकी प्रत्येक गतिविधि समष्टि हितकी भावनासे भावित हो। उसके परामर्शदाता सामनीतिका दान, दण्ड, भेद, उपेक्षा, माया तथा इन्द्रजालके रूपमें उपयोग करनेमें निपुण हों।

गुणवान राजा
इन्द्रियजयरूप विनयसम्पन्न राजा शास्त्रनिष्ठा तथा शास्त्रानुशीलनके अमोघ प्रभावसे अद्भुत प्रज्ञा प्राप्त करे। वह श्रवणकी इच्छा (श्रवण), ग्रहण (मनन), धारण (निदिध्यासन), विवेकविज्ञानसम्पन्नता, ऊह (वितर्क), अपोह (अयुक्तयुक्तिका त्याग) तथा वस्तुस्वभावनिर्धारणात्मक तत्त्वज्ञानरूप प्रज्ञाके आठ गुणोंसे युक्त हो।
‘शुश्रूषाश्रवणग्रहणधारणविज्ञानोहापोहतत्त्वाभिनिवेशा: प्रज्ञागुणा:’ (कौटिल्य— अर्थशास्त्र ६.१.९६)

विनय तथा शास्त्रविज्ञानसम्पन्न राजाका स्व और पर — मण्डलकी श्री (लक्ष्मी) प्रसन्न होकर अवश्य वरण करती है।

राजा छठे भागरूप न्यायोपार्जित धनको न्यायोचित ढंगसे बढ़ावे। स्वजन तथा परजनसे उसकी रक्षा करे। उसका सत्पात्रमें नियोजन (यथायोग्य वितरण) करे।


— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३४

न तस्य भ्रमते राज्यम्


यस्तु रञ्जयते राजा पौरजानपदान् गुणै:।
न तस्य भ्रमते राज्यं स्वयं धर्मानुपालनात्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १०७)

“जो राजा अपने गुणोंसे नगर और जनपदके लोगोंको प्रसन्न रखता है, उसका राज्य कभी डावाँडोल नहीं होता; कारण यह है कि वह स्वयं प्रजारञ्जनरूप निज धर्मका निरन्तर पालन करता रहता है।।”

स्वयं समुपजानन् हि पौरजानपदार्चनम्।
स सुखं प्रेक्षते राजा इह लोके परत्र च।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १०८)

“जो राजा स्वयं नगर और गाँवोंके लोगोंका सम्मान करना जानता है, वह इहलोक तथा परलोकमें सर्वत्र सुख – ही – सुख देखता है।।”
न तस्य भ्रमते राज्यम्
नित्योद्विग्ना: प्रजा यस्य करभारप्रपीडिता:।
अनर्थैर्विप्रलुप्यन्ते स गच्छति पराभवम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १०९)

“जिस राजाकी प्रजा सर्वदा करके भारसे पीड़ित रहनेके कारण नित्य उद्विग्न रहती है तथा विविध अनर्थ उसे सताते रहते हैं; वह पराभवको प्राप्त होता है।।”

प्रजा यस्य विवर्धन्ते सरसीव महोत्पलम्।
स सर्वफलभाग् राजा स्वर्गलोके महीयते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. ११०)

“जिसकी प्रजा सरोवरके कमलोंके समान विकास एवं वृद्धिको प्राप्त होती रहती है, वह सब प्रकारके पुण्यफलोंका भागी होता है और स्वर्गलोकमें भी सम्मान पाता है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२७-२२८

य: स पार्थिवतस्कर:


बलिषड्भागमुद्धृत्य बलिं समुपयोजयेत्।
न रक्षति प्रजा: सम्यक् य: स पार्थिवतस्कर:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १००)

“जो प्रजाकी आयका छठा भाग कररूपसे ग्रहण करके उसका उपभोग करता है और प्रजाका भलीभाँति पालन नहीं करता, वह राजाओंमें तस्कर है।।”

दत्त्वाभयं यः स्वयमेव राजा न तत् प्रमाणं कुरुतेऽर्थलोभात्।
स सर्वलोकादुपलभ्य पापं सोऽधर्मबुद्धिर्निरयं प्रयाति।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १०१)

“जो प्रजाको अभयदान देकर धनके लोभसे स्वयं ही उसका पालन नहीं कर सकता, वह पापबुद्धि राजा सारे जगत्‌का पाप बटोरकर नरकमें जाता है।।”
हरे कृष्ण
दत्त्वाभयं स्वयं राजा प्रमाणं कुरुते यदि।
स सर्वसुखकृज्ज्ञेय: प्रजा धर्मेण पालयन्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. १०२)

“जो प्रजाको अभयदान देकर प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते हुए स्वयं ही अपनी प्रतिज्ञाको सत्य सिद्ध कर देता है, वह राजा सबको सुख देनेवाला समझा जाता है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२५-२२७