राजधर्म – श्रेष्ठ धर्म

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


राजधर्म
सर्वे धर्मा राजधर्मप्रधाना: सर्वे वर्णा: पाल्यमाना भवन्ति।
सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजं-स्त्यागं धर्मं चाहुरग्य्रं पुराणम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६३. २७)

“सब धर्मोंमें राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सब वर्णोंका पालन होता है। राजन् ! राजधर्ममें धन – मान – प्राण – परिजन सब प्रकार के त्याग का समावेश है। ऋषिगण त्यागको सर्वश्रेष्ठ तथा प्राचीन धर्म बताते हैं।।”

राजनीति, राजधर्म, दण्डनीति, अर्थनीति और क्षात्रधर्म – ये पाँचो एकार्थक हैं।


राजा राम भगवान
युद्धमें अपने शरीरकी आहुति देना, समस्त प्राणियोंपर दया करना, लोकव्यवहारका ज्ञान प्राप्त करना, प्रजाकी रक्षा करना, विषादग्रस्त एवं पीड़ित मनुष्योंको दुःख और कष्टसे छुड़ाना — ये सब बातें राजाओंके क्षात्रधर्ममें ही विद्यमान हैं।

जो लोग काम, क्रोधमें फँसकर उच्छृंखल हो गये हैं, वे भी राजाके भयसे ही पाप नहीं कर पाते हैं, तथा जो सब प्रकारके धर्मोंका पालन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुष हैं वे राजासे सुरक्षित हो सदाचारका सेवन करते हुए धर्मका सदुपदेश करते हैं।

राजाओंसे राजधर्मके द्वारा पुत्रकी भाँति पालित होनेवाले जगतके सम्पूर्ण प्राणी निर्भय विचरते हैं, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार संसारमें क्षात्रधर्म ही सब धर्मोसे श्रेष्ठ सनातन, नित्य, अविनाशी, मोक्षतक पहुँचानेवाला सर्वतोमुखी है।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६४-वाँ अध्याय)

राजधर्म


बाह्वायत्तं क्षत्रियैर्मानवानां लॊकश्रेष्ठं धर्ममासेवमानैः।
सर्वे धर्माः सॊपधर्मास्त्रयाणां राज्ञॊ धर्मादिति वेदाच्छृणॊमि।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६३, २४)

“राजन! राजधर्म बाहुबलके अधीन होता है। वह क्षत्रियके लिये जगतका श्रेष्ठतम धर्म है, उसका सेवन करनेवाले क्षत्रिय मानवमात्रकी रक्षा करते हैं। अतः तीनों वर्णोंके उपधर्मोंसहित जो अन्यान्य समस्त धर्म हैं — वे राजधर्मसे ही सुरक्षित रह सकते हैं; यह मैंने वेद-शास्त्रसे सुना है।।”

सर्वे त्यागा राजधर्मेषु दृष्टाः सर्वा दीक्षा राजधर्मेषु चॊक्ताः।
सर्वा विद्या राजधर्मेषु युक्ताः सर्वे लॊका राजधर्मे प्रविष्टाः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६३, २९)

राजाके धर्मोंमें सारे त्यागोंका दर्शन होता है, राजधर्मोंमें सारी दीक्षाओंका प्रतिपादन हो जाता है, राजधर्ममें सम्पूर्ण विद्याओंका संयोग सुलभ है तथा राजधर्ममें सम्पूर्ण लोकोंका समावेश हो जाता है।।”
राजधर्म
त्रिवर्गॊ हि समासक्तॊ राजधर्मेषु कौरव।
मॊक्षधर्मश्च विस्पष्टः सकलॊऽत्र समाहितः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५६, ४)

“कुरुनन्दन! राजाके धर्मोंमें धर्म, अर्थ और काम तीनोंका समावेश है, और यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण मोक्षधर्म भी राजधर्ममें निहित है।।”

यथा हि रश्मयॊऽशवस्य द्विरदस्याङ्कुशॊ यथा।
नरेन्द्रधर्मॊ लॊकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५६, ५)

“जैसे घोड़ोंको काबूमें रखनेके लिये लगाम और हाथीको वशमें करनेके लिये अकुंश है, उसी प्रकार समस्त संसारको मर्यादाके भीतर रखनेके लिये राजधर्म आवश्यक है; वह उसके लिये प्रग्रह अर्थात् उसको नियन्त्रित करनेमें समर्थ माना गया है।।”

उदयन् हि यथा सूर्यॊनाशयत्यशुभं तम:।
राजधर्मास्तथालॊक्यां निक्षिपन्त्यशुभां गतिम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५६, ७)

“जैसे सूर्यदेव उदय होते ही घोर अन्धकारका नाश कर देते हैं, उसी प्रकार राजधर्म मनुष्योंके अशुभ आचरणोंका, जो उन्हें पुण्य लोकोंसे वञ्चित कर देते हैं, निवारण करता है।।”

राजधर्म की स्थापना ही हर क्षत्रिय का स्वधर्म है।



सर्वश्रेष्ठधर्म राजधर्म


आदिदेव भगवान्‌ विष्णुसे तो पहले राजधर्म ही प्रवृत्त हुआ है। अन्य सभी धर्म उसीके अंग हैं और उसके बाद प्रकट हुए हैं। जो सैनिक शक्तिसे सम्पन्न राजा नहीं हैं, वे धर्मपरायण होनेपर भी दूसरोंको अनायास ही धर्मविषयक परम गतिकी प्राप्ति नहीं करा सकते।”

“नरेश्वर! जैसे हाथीके पदचिन्हमें सभी प्राणियोंके पदचिन्ह विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सब धर्मोंको सभी अवस्थाओंमें राजधर्मके भीतर ही समाविष्ट हुआ समझो। सभी धर्मोंमें राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्णोंका पालन होता है। राजन्! राजधर्मोंमें सभी प्रकारके त्यागका समावेश है और ऋषिगण त्यागको सर्वश्रेष्ठ एवम् प्राचीन धर्म बताते हैं। क्षात्रधर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। शेष धर्म असंख्य हैं और उनका फल भी विनाशशील है। इस क्षात्रधर्ममें सभी धर्मोका समावेश हो जाता है, इसलिये इसी धर्मको श्रेष्ठ कहते है।”

राजधर्म
“पूर्वकालमें भगवान्‌ विष्णुने क्षात्रधर्मके द्वारा ही शत्रुओंका दमन करके देवताओं तथा अमिततेजस्वी समस्त ऋषियोंकी रक्षा की थी। यदि वे अप्रमेय भगवान्‌ श्रीहरि समस्त शत्रुरूप असुरोंका संहार नहीं करते तो न कहीं ब्राह्मगोंका पता लगता, न जगतके आदिस्रष्टा ब्रद्माजी ही दिखायी देते। न यह धर्म रहता और न आदि धर्मका ही पता लग सकता था।”

देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ आदिदेव भगवान्‌ विष्णु असुरों-सहित इस पृथ्वीको अपने बल और पराक्रमसे जीत नहीं लेते तो ब्राह्मणोंका नाश हो जानेसे चारों वर्ण और चारों आश्रमोंके सभी धर्मोका लोप हो जाता। वे सदासे चले आनेवाले धर्म सैकड़ों बार नष्ट हो चुके हैं, परंतु क्षात्रधर्मने उनका पुनः उद्धार एवं प्रसार किया है। युग-युगमें आदिधर्म (क्षात्रधर्म)-की प्रवृत्ति हुई है; इसलिये इस क्षात्रधर्मको लोकमें सबसे श्रेष्ठ बताते हैं।”

(महाभारत – शान्तिपर्व ६४-वाँ अध्याय)

क्षात्रधर्म


अल्पाश्रयानल्पफलान् वदन्ति धर्मानन्यान् धर्मविदॊ मनुष्याः।
महाश्रयं बहुकल्याणरूपं क्षात्रं धर्मं नेतरं प्राहुरार्याः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६३, २६)

“धर्मके ज्ञाता आर्य पुरुषोंका कथन है कि अन्य समस्त धर्मोंका आश्रय तो अल्प है ही, फल भी अल्प ही है। परंतु क्षात्रधर्मका आश्रय भी महान्‌ है और उसके फल भी बहुसंख्यक एवं परमकल्याणरूप हैं, अत: इसके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है।।”

क्षत्रियाणां महाराज संग्रामे निधनं मतम्।
विशिष्टं बहुभिर्यज्ञैः क्षत्रधर्ममनुस्मर।।
(महाभारत – शान्तिपर्व २२. ३)

“महाराज ! आप क्षत्रियधर्मको स्मरण तो कीजिये, क्षत्रियोंके लिये संग्राममें मर जाना तो बहुसंख्यक यज्ञोंसे भी बढ़कर माना गया है।।”
राजधर्म
ब्राह्मणानां तपस्त्यागः प्रेत्य धर्मविधिः स्मृत:।
क्षत्रियाणां च निधनं संग्रामे विहितं प्रभॊ।।
(महाभारत – शान्तिपर्व २२. ४)

“प्रभो ! तप और त्याग ब्राह्मणोंके धर्म हैं, जो मृत्युके पश्चात् परलोक में धर्मजनित फल देनेवाले हैं; क्षत्रियोंके लिये संग्राममै प्राप्त हुई मृत्यु ही पारलौकिक पुण्यफलकी प्राप्ति करानेवाली है।।”

क्षात्रधर्मॊ महारौद्रः शस्त्रनित्य इति स्मृत:।
वधश्च भरतश्रेष्ठ काले शस्त्रेण संयुगे।।
(महाभारत – शान्तिपर्व २२. ५)

“भरतश्रेष्ठ ! क्षत्रियोंका धर्म बड़ा भयंकर है। उसमें सदा शस्त्रसे ही काम पड़ता है और समय आनेपर युद्धमें शस्त्रद्वारा उनका वध भी हो जाता है (अतः उनके लिये शोक करनेका कोई कारण नहीं है)।।”

मज्जेत् त्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धर्मा: प्रक्षयेयुर्विबुद्धा:।
सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हताः स्युः क्षात्रे त्यक्ते राजधर्मे पुराणे।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६३, २८)

“यदि दण्डनीति नष्ट हो जाय तो तीनों वेद रसातलको चले जायँ और वेदोंके नष्ट होनेसे समाजमें प्रचलित हुए सारे धर्मोका नाश हो जाय। पुरातन राजधर्म जिसे क्षात्रधर्म भी कहते हैं, यदि लुप्त हो जाय तो आश्रमोंके सम्पूर्ण धर्मोंका ही लोप हो जायगा।।”

सर्वधर्मसम्पन्न क्षात्रधर्म


क्षात्रधर्म सब धर्मोमें श्रेष्ठ और शक्तिशाली है। यह सभी धर्मोसे सम्पन्न बताया गया है। लोकहितैषी उदार पुरुषोंको सदा इस क्षात्रधर्मका ही पालन करना चाहिये। यदि इसका पालन नहीं किया जायगा तो प्रजाका नाश हो जायगा। समस्त प्राणियोंपर दया करनेवाले राजाको उचित है कि वह क्षात्रधर्मके कार्योंको ही श्रेष्ठ धर्म समझे। वह पृथ्वीका संस्कार करावे, राजसूय-अश्वमेधादि यज्ञोंमें अवभूथस्नान करे, भिक्षाका आश्रय न ले, प्रजाका पालन करे और संग्रामभूमिमें शरीरको त्याग दे।”

ऋषि-मुनि त्यागको ही श्रेष्ठ बताते हैं। उसमें भी युद्धमें राजालोग जो अपने शरीरका त्याग करते हैं, वह सबसे श्रेष्ठ त्याग है। समस्त वर्णोमें स्थित हुए जो ये धर्म हैं, उन्हें क्षत्रियोंको उन्नतिके शिखरपर पहुँचाना चाहिये। यही क्षत्रियधर्म है, इसीलिये राजधर्म श्रेष्ठ है। दूसरे धर्म इस प्रकार श्रेष्ठ नहीं हैं। मेरे मतमें वीर क्षत्रियोंके धर्मोमें बल और पराक्रमकी प्रधानता है।”

राजधर्म
“जनसाधारणके लिये व्यवहार आरम्भ होनेपर राजा प्रिय और अप्रियकी भावनाका प्रयत्नपूर्वक परित्याग करे। भिन्न-भिन्न उपायों, नियमों, पुरुषार्थों तथा सम्पूर्ण उद्योगोंके द्वारा चारों वर्णोकी स्थापना एवं रक्षा करनेके कारण क्षात्रधर्म एवं गृहस्थ-आश्रमको ही सबसे श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण धर्मोंसे सम्पन्न बताया गया है; क्योंकि सभी वर्णोके लोग उस क्षात्रधर्मके सहयोगसे ही अपने-अपने धर्मका पालन करते हैं।”

क्षत्रियधर्मके न होनेसे उन सब धर्मोका प्रयोजन विपरीत होता है; ऐसा कहते हैं। जो लोग सदा अर्थसाधनमें ही आसक्त होकर मर्यादा छोड़ बैठते हैं, उन मनुष्योंको पशु कहा गया है। क्षत्रिय-धर्म अर्थकी प्राप्ति करानेके साथ-साथ उत्तम नीतिका ज्ञान प्रदान करता है; इसलिये वह आश्रम-धर्मोसे भी श्रेष्ठ है।”

राजधर्म
“जब राजाकी दुष्टताके कारण दण्डनीति नष्ट हो जाती है और राजधर्म तिरस्कृत हो जाता है, तब सभी प्राणी मोहवश कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक खो बैठते हैं। जब महामनस्वी राजालोग दण्डनीतिके द्वारा पापीको पाप करनेसे रोकते रहते हैं, तब सत्स्वरूप परमोत्कृष्ट सनातन धर्मका हास नहीं होता है।”

“जो मनुष्य सम्पूर्ण लोकोंके गुरुस्वरूप राजाका अपमान करता है, उसके किये दान, होम और श्राद्ध कभी सफल नहीं होते हैं। राजा मनुष्योंका अधिपति, सनातन देवस्वरूप तथा धर्मकी इच्छा रखनेवाला होता है। देवता भी उसका अपमान नहीं करते हैं। भगवान्‌ प्रजापतिने जब इस सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि की थी, उस समय लोगोंको सत्कर्ममें लगाने और दुष्कर्मसे निवृत्त करनेके लिये उन्होंने धर्मरक्षाके हेतु क्षात्रबलको प्रतिष्ठित करनेकी अभिलाषा की थी।”

“जो पुरुष प्रवृत्त धर्मकी गतिका अपनी बुद्धिसे विचार करता है, वही मेरे लिये माननीय और पूजनीय है; क्योंकि उसीमें क्षात्रधर्म प्रतिष्ठित है।”

(महाभारत – शान्तिपर्व ६५-वाँ अध्याय)
जो धर्म प्रत्यक्ष है, अधिक सुखमय है, आत्माके साक्षित्वसे युक्त है, छलरहित है तथा सर्वलोकहितकारी है, वह धर्म क्षत्रियोंमें प्रतिष्ठित है। इस लोकमें प्रजावर्गको प्रसन्न रखना ही राजाओंका सनातन धर्म है। सत्यकी रक्षा और व्यवहारकी सरलता ही राजोचित कर्तव्य है।

रक्षा लोकस्य धारिणी


राजानं प्रथमं विन्देत् ततो भार्यां ततो धनम्।
राजन्यसति लोकस्य कुतो भार्या कुतो धनम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ४१)

तद्राज्ये राज्यकामानां नान्यो धर्म: सनातन:।
ऋते रक्षां तु विस्पष्टां रक्षा लोकस्य धारिणी।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ४२)

“मनुष्य पहले राजाको प्राप्त करे। उसके बाद पत्नीका परिग्रह और धनका संग्रह करे। लोकरक्षक राजाके न होनेपर कैसे भार्या सुरक्षित रहेगी और किस तरह धनकी रक्षा हो सकेगी ?।। राज्य चाहनेवाले राजाओंके लिए राज्यमें प्रजाओंकी भलीभाँति रक्षाको छोड़कर अन्य कोई सनातन धर्म नहीं है। रक्षा ही लोकको धारण करनेवाली है।।”

राजधर्म

भगवान कृष्ण
यथा जीवाः प्राकृतैर्वध्यमाना धर्मश्रुतानामुपपीडनाय।
एवं धर्मा राजधर्मैर्वियुक्ताः संचिन्वन्तो नाद्रियन्ते स्वधर्मम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६३, ३०)

“व्याध आदि नीच प्रकृतिके मनुष्योंद्वारा मारे जाते हुए पशु-पक्षी आदि जीव जिस प्रकार घातकके धर्मका विनाश करनेवाले होते हैं, उसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष यदि राजधर्मसे रहित हो जायँ तो धर्मका अनुसंधान करते हुए भी वे चोर-डाकुओंके उत्पातसे स्वधर्मके प्रति आदरका भाव नहीं रख पाते हैं और इस प्रकार जगत्‌की हानिमें कारण बन जाते हैं (अत: राजधर्म सबसे श्रेष्ठ है)।।”
धर्मे स्थिता सत्त्ववीर्या धर्मसेतुवटारका।
त्यागवाताध्वगा शीघ्रा नौस्तं संतारयिष्यति।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ६६, ३७)

राजधर्म एक नौकाके समान है। वह नौका धर्मरूपी समुद्रमें स्थित है। सत्त्वगुण ही उस नौकाका संचालन करनेवाला बल (कर्णधार) है, धर्मशास्त्र ही उसे बाँधनेवाली रस्सी है, त्यागरूपी वायुका सहारा पाकर वह मार्गपर शीघ्रतापूर्वक चलती है, वह नाव ही राजाको संसारसमुद्रसे पार कर देगी।।”