सङ्घे शक्ति: कलौयुगे

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते

जय गणेश
श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

"लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, गणेश, कार्तिकेय,
शिव, ब्रह्मा एवम् इन्द्रादि देवोंको तथा
वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ।।"


कलियुगमें संघमें शक्ति सन्निहित है


त्रैतायां मन्त्र शक्तिश्च ज्ञानशक्ति कृते युगे।
द्वापरे युद्ध शक्तिश्च संघे शक्ति कलौयुगे।।

संघे शक्ति कलौयुगे
सत्ययुगमें ज्ञान शक्ति, त्रेतामें मन्त्र शक्ति तथा द्वापरमें युद्ध शक्ति का बल था। किन्तु कलियुगमें सङ्गठनकी शक्ति ही प्रधान है।।”

संवाद, सेवा और सेना तीनोंका अनुशासित स्वरूप ही सङ्गठन है। यह आदर्श-स्वरूप ही राष्ट्रहितमें संलग्न व्यक्ति तथा सङ्गठनका लक्षण है।


— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सङ्घे शक्ति: कलौ युगे”

संघटनकी कुंजी


विघटन-ही-विघटन
आज कुटुम्ब, राष्ट्र तथा विश्वमें विघटन-ही-विघटन है। ‘अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग’ सर्वत्र आज यही दिखलायी दे रहा है। जहाँ देखो, वहीं ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, कलह, संघर्षका साम्राज्य है। इनके प्रशमनके आधुनिक सभी उपाय विफल हो रहे हैं।
विघटन-ही-विघटन
यह तो हुई विघटनकी बात। अब जहाँ ‘सङ्घे शक्ति: कलौयुगे” की बात आजकल बहुत होती है, वहाँ भी संघटनकी योजनाएँ कैसे सफल हो, इस विषयमें सभी परेशान हैं। वास्तवमें जो संघटनपर रातों-दिन व्याख्यान दे और लेख लिख रहे हैं, जो स्वयं प्रांत, समाज, राष्ट्रके संघटनपर जमीन-आसमानके कुलाबे एक क्रिया करते हैं, उनके स्वाभाविक स्वार्थसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी काम प्रायः विघटनके मूल होते हैं। सौहार्द, सामञ्जस्य, सौमनस्य, मनुष्यत्वकी बातें वहींतक होती हैं, जहाँतक उनके निजी स्वार्थमें बाधा नहीं आती। फिर बाहरकी तो बात ही दूसरी है, पहले उनके घरोंमें ही कितना संघटन है ? कुटुम्बियों, बन्धु-वर्गों, स्त्री, पुत्र, माता-पितामें क्या सौहार्द है ? यदि नहीं तो बाहर कैसे होगा ?
सौहार्दका अभाव
वस्तुतः यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है कि व्यक्तियोंके सुधार बिना सामूहिक सुधार हो जायगा। यह सच है कि राष्ट्र, प्रान्त, समाजके वातावरणका प्रभाव व्यक्तियोंपर पड़ता है, पर व्यक्तियोंके ही समूहको तो समाज, राष्ट्र आदि कहा जाता है। यदि सभी व्यक्ति आत्मसुधारकी ओर ध्यान न देकर केवल समूह-सुधारके लिये प्रयत्नशील होंगे तो क्या स्वप्नमें भी वैयक्तिक या सामूहिक सुधार हो सकता है ? कुछ व्यक्तियोंके समूहको कुटुम्ब, कुछ कुटुम्बके समूहको ग्राम या नगर कहा जाता है और उनके समूहको ही प्रान्त एवम् राष्ट्र कहा जाता है। अतः जबतक वैयक्तिक, सामूहिक दोनों ही सुधारकी ओर ध्यान न दिया जाय, तबतक सफलताका स्वप्न देखना बेकार है। इसीलिए भगवान् मनु इस राष्ट्रिय, सामाजिक व्यवस्थाको ही लक्ष्यमें रखकर कौटुम्बिक, सामाजिक व्यवस्थापर जोर देते हैं और कुटुम्बपतिको वैयक्तिक नियन्त्रणके लिये यह बतलाते हैं कि धर्मबुद्धिसे ऐसा नियन्त्रण करे कि जिससे कुटुम्ब और समाजके विघटनका मूल विवाद ही न उठने पाये।
कुटुम्ब
असहिष्णुता, अक्षमता, स्वार्थपरायणता आदि दोष ही विवाद और कटुता फैलाकर विघटन करते हैं। मनुका कहना है कि प्रति व्यक्तिको चाहिये कि वह ऋत्विक्, पुरोहित, आचार्य, मातुल, अतिथि, आश्रित, बालक, बूढ़े, रोगी, वैद्य, जातिवालों, सम्बन्धी, बान्धव, माता, पिता, बहन, भाई, पुत्र, स्त्री, बेटी तथा नौकर-चाकरोंके साथ विवाद न करे। ——

ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितै:।
बालवृद्धातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवै:।।

(मनुस्मृति ४. १७९)

मातापितृभ्यां जामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया।
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्।।

(मनुस्मृति ४. १८०)
कुटुम्ब
अगर उपर्युक्त व्यक्तियोंमें एक व्यक्तिके चलते विवाद और विघटन न हुआ तो कौन कह सकता है कि ‘उसीके दृष्टान्तसे दूसरे भी वैसा कर एक महासंघटनका सूत्रपात न करेंगे ? पर सहवाससे खटपट होना स्वाभाविक है। राग, रोष, ईर्ष्या, मद, मोह आदि बड़े-बड़े योग्योंके मनमें भी विकार, अपराग पैदा कर देते हैं। संघर्षसे बचना तो बड़ा कठिन है, स्वार्थोंके सम्बन्धसे पिता-पुत्रादिमें भी विवाद खड़ा होता है, फिर दूसरोंमें तो कहना ही क्या ? अतएव मनु इसे धर्म बतलाकर इसके पालनसे परलोक-सिद्धि बतलाते हैं। धार्मिक पुरुष कठिन-से-कठिन कष्ट सहकर भी धर्मको बचाते हैं। धर्म-बुद्धिसे एक सम्राट् भी अपने गुरुका सेवक बनता है। उनके किये हुए अपमानोंको श्रद्धासे सहन करता है और उसके मनमें विकारका लेश भी नहीं आता। इसलिए मनुका कहना है कि इनके साथ झगड़ा बचाकर गृहस्थ सब पापोंसे छूट जाता है। ——

एतैर्विवादान् सन्त्यज्य सर्वपापै: प्रमुच्यते।
एभिर्जितैश्च जयति सर्वांल्लोकानिमान् गृही।।

(मनुस्मृति ४. १८१)
परिवार
कुटुम्बमें विघटन, वैमनस्यसे नैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक सभी प्रकारका पतन और पातक हो सकता है। पर उपर्युक्त लोगोंसे झगड़ा टालनेमें ये विषय उपस्थित ही नहीं होते। अतः समाजके संघटन, धारण-पोषणमें कोई बाधा नहीं पड़ती। धर्मके ही सम्बन्धसे बालक, बूढ़े, दुर्बल रोगियोंके आग्रहों, बातों और चिड़चिड़ापनको सहना पड़ता है, जो भौतिक और स्वार्थ-दृष्टिके संघटनमें असम्भव है। ज्येष्ठ भ्राताको पिताके समान और भार्या तथा पुत्रको अपना शरीर समझकर उनसे विवाद बचाना चाहिये। दासवर्गको अपनी छायामें और कन्याको परम दयाका पात्र जानकर उन सबका सहन करना चाहिये।

भ्राता ज्येष्ठ: सम: पित्रा भार्या पुत्र: स्वका तनु:।।
छाया स्वो दासवर्गश्च दुहिता कृपणं परम्।
तस्मादेतैरधिक्षिप्त: सहेतासञ्ज्वर: सदा।।

(मनुस्मृति ४. १८४)
जननायक
वास्तवमें इस तरह जो अपने सहवासियोंद्वारा अपनी निन्दा सह लेगा, वही व्यापक संघटनका अधिकारी होगा। किसी भी समाज या राष्ट्रको वशमें लानेके लिये बड़ी सहिष्णुता तथा स्वार्थ-त्यागकी अपेक्षा है। अपने कुटुम्बको कुटुम्ब बनानेके बाद ही प्राणी वसुधाको कुटुम्ब बना सकता है। जिसका अपने कुटुम्बमें ही सहयोग नहीं, जो अपने कुटुम्बके ही अधिक्षेपोंको नहीं सह सकता, वह दूसरोंके अधिक्षेपोंको कैसे सहेगा और कैसे उनके लिए स्वार्थ त्याग करेगा ?

उस व्यक्तिकी शक्तिका कोई मुकाबला नहीं जिसके पास शक्तिके साथ सहनशक्ति भी हो!

अधिक क्या ? दैहिक संघटन भी कम चमत्कारपूर्ण नहीं है। हस्त, पाद, मुख, नेत्रादि एक-दूसरेकी विपत्तियोंमें कैसे भाग लेते हैं ? पलकें, हाथ आदि नेत्रकी सारी विपत्तिको स्वयं लेना चाहती हैं। पैरमें काँटा लगनेपर नेत्र देखनेको उतावले हो उठते हैं; हाथ निकालनेको और मुँह फूँकनेको प्रस्तुत हो उठता है। देहीकी तो बात ही निराली है। यदि कहीं अपने दाँतोंसे जीभ कट जाय तो क्या दाँत पत्थरसे तोड़ डाले जायँ ? एक अंगसे दूसरे अंगपर आघात हो तो क्या देही उसे काट दे ? वह तो यही समझता है कि सब मेरे ही हैं। इस दृष्टिसे सर्वत्र व्यापक अनन्त एक आत्माको देखनेवाला पुरुष तो सब देहोंको अपना ही अंग समझता है, फिर अपनी देहपर प्रहार करनेवालेको क्या करे; क्योंकि वह भी तो अपना ही है। ——

‘जिह्वां क्वचित् सन्दशति स्वदद्भिस्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत्।’
(श्रीमद्भागवत ११. २३. ५१)

सब अपना ही कुटुम्ब है या अपना ही अंग या स्वरूप है’, इस दृष्टिसे समाज और राष्ट्र एवम् विश्वका हित चाहना बड़ी ऊँची बात है। बिना ऐसे भावोंके क्या संघटन सम्भव है ?
संगठित समाज
यद्यपि समाजका आधार व्यक्ति है, तथापि बिना संघटनके समाज नहीं बनता। संगठित व्यक्तियोंका प्रथम समाज कुटुम्ब ही है। उसके संचालनमें जिन गुणोंकी आवश्यकता होती है, वास्तवमें राष्ट्रके संचालनमें भी उन्हीं गुणोंकी आवश्यकता होती है। कुटुम्बमें भिन्न स्वार्थोंका संघर्ष है। किसी-न-किसी तरह उसमें सामञ्जस्य स्थापित करना छोटे, बड़े, बूढ़े, स्त्री, पुत्र, कलत्र सबको सन्तुष्ट रखना, नीतिद्वारा काम निकालना, किसीके साथ अन्याय न होने देना, अनुशासन और स्वतन्त्रताका उचित अनुपातमें मेल मिलाये रखना, सबको स्नेहके सूत्रमें बाँध रखना और घरके भीतर-बाहर शान्ति बनाये रखना जटिल समस्या है। राष्ट्रके संचालनमें भी ऐसी ही समस्याओंका पग-पगपर सामना करना पड़ता है। अतः जिसने कुटुम्ब-संचालनमें सफलता पा ली, वही राष्ट्र-संघटनमें भी सफल हो सकता है। इसीलिए शास्त्रोंमें कुटुम्बकी रक्षापर बड़ा जोर दिया गया है और सहिष्णुता, उदारता, क्षमता, आज्ञापालन, सौहार्द, सौमनस्य आदि गुणोंकी बड़ी आवश्यकता बतलायी गयी है। कुटुम्बमें जो वास्तवमें एक छोटा-मोटा राष्ट्र ही है, जब तक समान-मन, समान-उद्देश्य नहीं बनता एवम् जबतक स्नेहसूत्रमें सब बँध नहीं जाते, तबतक किसी प्रकारका अभ्युदय असम्भव है।

— धर्मसम्राट् पूज्य स्वामीश्री करपात्रीजी महाराज द्वारा लिखित
पुस्तक “मार्क्सवाद और रामराज्य” पृष्ठ संख्या ४०० – ४०३, ४०४, ४०५

धर्मसङ्घ – पीठपरिषद्के प्रकल्प


धर्मसम्राट

•   शैक्षिक और वैज्ञानिक संस्थानोंका सनातन – वैदिकविधासे सञ्चालन

•   सनातन – वैदिकविधासे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षसंज्ञक पुरुषार्थ चतुष्टयकी सिद्धि

•   यज्ञसाधक और पृथ्वीके धारक गोवंश, गङ्गा, मठ – मन्दिर, विप्र, वेद, सती, सत्यशील, दानशील और निर्लोभ मनीषियोंका सर्वविध संरक्षण

•   वेदविज्ञानसम्मत अभ्युदयनि:श्रेयसप्रद विकासके क्रियान्वनकी भावनासे ऊर्जाके स्रोत पृथ्वी, पानी, प्रकाश और पवनके मौलिक स्वरूपका संरक्षण

•   महायन्त्रोंके प्रचुर प्रयोगसे संप्राप्त विभीषिकाका संयमन

•   दिशाहीन व्यापारतन्त्रका दूरीकरण

•   सत्तालोलुपता और अदूरदर्शिताके चपेटसे विमुक्त शासनतन्त्र

•   शिक्षा, रक्षा, न्याय, विवाह, संयुक्त परिवार, कृषि, गौरक्ष्य, वाणिज्य, सेवा और उद्योगकी वेदविज्ञानसम्मत सनातन – विधाका क्रियान्वन

•   सर्वहितसंरक्षण


— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सङ्घे शक्ति: कलौ युगे” पृष्ठ संख्या ८-९

सनातन सन्तसमितिका प्रकल्प


सन्त
सनातन – वैदिक – आर्य – सिद्धान्त का दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातल पर अर्थात् श्रुति, युक्ति तथा अनुभूतिके आधारपर विश्वस्तरपर ख्यापन

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सङ्घे शक्ति: कलौ युगे” पृष्ठ संख्या १०

राष्ट्रोत्कर्ष अभियानका प्रकल्प


राष्ट्रोत्कर्ष अभियान
कृषि, गौरक्ष्य, वाणिज्य और कुटीर तथा लघु उद्योगका
सनातन वैदिक विधासे क्रियान्वन

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सङ्घे शक्ति: कलौ युगे” पृष्ठ संख्या १०

हिन्दूराष्ट्रसङ्घका प्रकल्प


हिन्दूराष्ट्रसङ्घ
अन्योंके हितका ध्यान रखते हुए हिन्दुओंके अस्तित्व और आदर्शकी रक्षा, देशकी सुरक्षा और अखण्डताके लिए कटिबद्धता

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सङ्घे शक्ति: कलौ युगे” पृष्ठ संख्या ११

आदित्यवाहिनीका प्रकल्प


आदित्यवाहिनी
शूरता, सुशीलता, ओजस्विता और अमोघदर्शिताके सहित रक्षा तथा सेवाप्रकल्पका क्रियान्वन

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सङ्घे शक्ति: कलौ युगे” पृष्ठ संख्या ११

आनन्दवाहिनीका प्रकल्प


आनन्दवाहिनी
मातृशक्तिकी सहभागितासे सुशिक्षित, सुसंस्कृत, सुरक्षित, सम्पन्न, सेवापरायण और स्वस्थ परिवार और समाजकी संरचना

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सङ्घे शक्ति: कलौ युगे” पृष्ठ संख्या १२

रामराज्यपरिषद्का प्रकल्प


रामराज्यपरिषद्
सनातन परम्पराप्राप्त व्यासपीठके स्वस्थ मार्गदर्शनमें धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त सर्वहितप्रद सनातन शासनतन्त्रकी स्थापना

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “सङ्घे शक्ति: कलौ युगे” पृष्ठ संख्या १३

संघे शक्ति कलौयुगे


हिताय सर्वलोकानां निग्रहाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय प्रणम्य परमेश्वरम् ।। १ ।।


ग्रामे ग्रामे सभा कार्या ग्रामे ग्रामे कथा शुभा ।
पाठशाला मल्लशाला प्रतिपर्वमहोत्सव: ।। २ ।।


अनाथा विधवा रक्ष्या मन्दिराणि तथा च गौ: ।
धर्म्यं संघटनं कृत्वा देयं दानं च तद्धितम्।। ३ ।।


स्त्रीणां समादर: कार्य: दुःखितेषु दया तथा ।
अहिंसका न हन्तव्या आततायी वधार्हण: ।। ४ ।।


अभयं सत्यमस्तेयं ब्रह्मचयर्यं धृति: क्षमा ।
सेव्यं सदाऽमृतमिव स्त्रीभिश्च पुरुषैस्तथा ।। ५ ।।


कर्मणां फलमस्तीति विस्मर्तव्यं न जातुचित् ।
भवेत्पुन: पुनर्जन्म मोक्षस्तदनुसारत: ।। ६ ।।


स्मर्तव्य: सततं विष्णु: सर्वभूतेष्ववस्थित: ।
एक एवाद्वितियो य: शोकपापहर; शिव: ।। ७ ।।


पवित्राणां प्रवित्रं यो मङ्गलानाञ्च मङ्गलम् ।
दैवतं देवतानां च लोकानां योऽव्यय: पिता ।। ८ ।।


उत्तम: सर्वधर्माणां हिन्दूधर्मोऽयमुच्यते ।
रक्ष्य: प्रचारणीयश्च सर्वभूतहिते रतै: ।। ९ ।।

(स्वर्गीय महामना पंडित श्रीमदनमोहनमालवीयकृतो हिन्दूधर्मोपदेश:)

मदन मोहन मालवीय

परमेश्वरको प्रणाम करके सब प्राणियोंके हितके लिए दुष्टोंको दबाने और दण्ड देनेके लिए तथा धर्मकी स्थापनाके लिए धर्मके अनुसार संघटन करके गाँव-गाँवमें सभा करनी चाहिये।। गाँव-गाँवमें श्रीहरिकी मंगलमयी कथा करनी चाहिये। गाँव-गाँवमें पाठशाला और अखाड़ा खोलना चाहिये। पर्व-पर्वपर मिलकर महोत्सव मनाना चाहिये।। सभीको मिलकर अनाथोंकी, मन्दिरोंकी और लोकमाता गौकी रक्षा करनी चाहिये। इन सब कार्यों के लिए दान देना चाहिये।।”

स्त्रियोंका सम्मान करना चाहिये। दुःखियोंपर दया करनी चाहिये। उनको नहीं मारना चाहिये जो अहिंसक हों। शासनतन्त्रसे दण्डितकरना या मारना उनको चाहिये जो आततायी हों, अर्थात् जो स्त्रियोंपर या किसी दूसरेके धन या प्राणपर बल, विष, शस्त्रादिके द्वारा आघात करते हों, जो किसीके घरमें आग लगाते हों; ऐसे लोगोंको मारे बिना यदि अपना या दूसरोंका शील, प्राण या धन न बच सकें तो उनको मारना धर्म है।।”

स्त्रियों और पुरुषोंको भी अभय, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, धैर्य (धीरज) और क्षमाका अमृतके समान वर्णाश्रमधर्मके अनुसार सदा सेवन करना चाहिये।। इस बातको कभी न भूलना चाहिये कि भले कर्मोंका फल भला और बुरे कर्मोंका फल बुरा अवश्य होता है तथा कर्मोंके अनुसार ही प्राणीको बार-बार जन्म लेना पड़ता है। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि फलाशाको त्यागकर भगवदर्थ स्वकर्मानुष्ठानसे अन्त:करणकी शुद्धिके अनन्तर अनात्मवस्तुओंसे विविक्त आत्माके ज्ञानसे मोक्ष मिलता है।।”

“उस सर्वव्यापक भगवान् विष्णुका सदा स्मरण करना चाहिये, जिसके समान दूसरा कोई नहीं है। जो एक ही अद्वितीय है। जो दुःख और पापका हरण करनेवाला शिवस्वरूप है, जो सभी पवित्र वस्तुओंसे अधिक पवित्र है। जो मङ्गलोंका भी मङ्गल है, जो सब देवताओंका देवता और समस्त संसारका एक अविनाशी पिता है।। उक्त तथ्योंका प्रतिपादक सब धर्मोंका उपजीव्य एवम् उद्गमस्थान होनेसे दैवासुरस्वभावसिद्ध आचार-विचाररूप अन्यसब धर्मोंसे उत्तम सनातनशास्त्रसिद्ध भोग-मोक्षप्रद यह हिन्दूधर्म कहा जाता है। सब प्राणियोंका हित चाहते हुए धर्मकी रक्षा और इसका प्रचार करना हमारा धर्म है।।”


— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्दसरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीति और अध्यात्म” पृष्ठ संख्या १५९-१६०

मित्रैः सह साझां कुर्वन्तु