कलियुगमें संघमें शक्ति सन्निहित है
त्रैतायां मन्त्र शक्तिश्च ज्ञानशक्ति कृते युगे।
द्वापरे युद्ध शक्तिश्च संघे शक्ति कलौयुगे।।
“सत्ययुगमें ज्ञान शक्ति, त्रेतामें मन्त्र शक्ति तथा द्वापरमें युद्ध शक्ति का बल था। किन्तु कलियुगमें संगठनकी शक्ति ही प्रधान है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “संघे शक्ति कलौयुगे”
संघे शक्ति कलौयुगे
हिताय सर्वलोकानां निग्रहाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय प्रणम्य परमेश्वरम् ।। १ ।।
ग्रामे ग्रामे सभा कार्या ग्रामे ग्रामे कथा शुभा ।
पाठशाला मल्लशाला प्रतिपर्वमहोत्सव: ।। २ ।।
अनाथा विधवा रक्ष्या मन्दिराणि तथा च गौ: ।
धर्म्यं संघटनं कृत्वा देयं दानं च तद्धितम्।। ३ ।।
स्त्रीणां समादर: कार्य: दुःखितेषु दया तथा ।
अहिंसका न हन्तव्या आततायी वधार्हण: ।। ४ ।।
अभयं सत्यमस्तेयं ब्रह्मचयर्यं धृति: क्षमा ।
सेव्यं सदाऽमृतमिव स्त्रीभिश्च पुरुषैस्तथा ।। ५ ।।
कर्मणां फलमस्तीति विस्मर्तव्यं न जातुचित् ।
भवेत्पुन: पुनर्जन्म मोक्षस्तदनुसारत: ।। ६ ।।
स्मर्तव्य: सततं विष्णु: सर्वभूतेष्ववस्थित: ।
एक एवाद्वितियो य: शोकपापहर; शिव: ।। ७ ।।
पवित्राणां प्रवित्रं यो मङ्गलानाञ्च मङ्गलम् ।
दैवतं देवतानां च लोकानां योऽव्यय: पिता ।। ८ ।।
उत्तम: सर्वधर्माणां हिन्दूधर्मोऽयमुच्यते ।
रक्ष्य: प्रचारणीयश्च सर्वभूतहिते रतै: ।। ९ ।।
(स्वर्गीय महामना पंडित श्रीमदनमोहनमालवीयकृतो हिन्दूधर्मोपदेश:)
“परमेश्वरको प्रणाम करके सब प्राणियोंके हितके लिए दुष्टोंको दबाने और दण्ड देनेके लिए तथा धर्मकी स्थापनाके लिए धर्मके अनुसार संघटन करके गाँव-गाँवमें सभा करनी चाहिये।। गाँव-गाँवमें श्रीहरिकी मंगलमयी कथा करनी चाहिये। गाँव-गाँवमें पाठशाला और अखाड़ा खोलना चाहिये। पर्व-पर्वपर मिलकर महोत्सव मनाना चाहिये।। सभीको मिलकर अनाथोंकी, मन्दिरोंकी और लोकमाता गौकी रक्षा करनी चाहिये। इन सब कार्यों के लिए दान देना चाहिये।।”
“स्त्रियोंका सम्मान करना चाहिये। दुःखियोंपर दया करनी चाहिये। उनको नहीं मारना चाहिये जो अहिंसक हों। शासनतन्त्रसे दण्डितकरना या मारना उनको चाहिये जो आततायी हों, अर्थात् जो स्त्रियोंपर या किसी दूसरेके धन या प्राणपर बल, विष, शस्त्रादिके द्वारा आघात करते हों, जो किसीके घरमें आग लगाते हों; ऐसे लोगोंको मारे बिना यदि अपना या दूसरोंका शील, प्राण या धन न बच सकें तो उनको मारना धर्म है।।”
“स्त्रियों और पुरुषोंको भी अभय, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, धैर्य (धीरज) और क्षमाका अमृतके समान वर्णाश्रमधर्मके अनुसार सदा सेवन करना चाहिये।। इस बातको कभी न भूलना चाहिये कि भले कर्मोंका फल भला और बुरे कर्मोंका फल बुरा अवश्य होता है तथा कर्मोंके अनुसार ही प्राणीको बार-बार जन्म लेना पड़ता है। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि फलाशाको त्यागकर भगवदर्थ स्वकर्मानुष्ठानसे अन्त:करणकी शुद्धिके अनन्तर अनात्मवस्तुओंसे विविक्त आत्माके ज्ञानसे मोक्ष मिलता है।।”
“उस सर्वव्यापक भगवान् विष्णुका सदा स्मरण करना चाहिये, जिसके समान दूसरा कोई नहीं है। जो एक ही अद्वितीय है। जो दुःख और पापका हरण करनेवाला शिवस्वरूप है, जो सभी पवित्र वस्तुओंसे अधिक पवित्र है। जो मङ्गलोंका भी मङ्गल है, जो सब देवताओंका देवता और समस्त संसारका एक अविनाशी पिता है।।
उक्त तथ्योंका प्रतिपादक सब धर्मोंका उपजीव्य एवम् उद्गमस्थान होनेसे दैवासुरस्वभावसिद्ध आचार-विचाररूप अन्यसब धर्मोंसे उत्तम सनातनशास्त्रसिद्ध भोग-मोक्षप्रद यह हिन्दूधर्म कहा जाता है। सब प्राणियोंका हित चाहते हुए धर्मकी रक्षा और इसका प्रचार करना हमारा धर्म है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीति और अध्यात्म” पृष्ठ संख्या १५९-१६०