धर्माध्यक्ष एवम् राजपुरोहित

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


कुलशीलगुणोपेत: धर्माध्यक्ष


धर्माध्यक्ष

कुलशीलगुणोपेत: सर्वधर्मपरायण:।
प्रवीण: प्रेक्षणाध्यक्षो धर्माध्यक्षो विधीयते।।

(चाणक्यनीतिशतकम् १०२)

“जो कुल तथा शीलगुणसे सम्पन्न हो, सामान्य तथा विशेषसंज्ञक तद्वत कुलाचारादिसंज्ञक और प्रस्थान तथा मतान्तररूप सर्वधर्ममर्मज्ञ हो, देशकालादिके अनुरूप कर्त्तव्य – निर्धारणमें कुशल हो एवम् धर्मानुरूप क्रिया – कलापके प्रेक्षकोंमें भी श्रेष्ठ हों, ऐसा व्यक्ति धर्माध्यक्षके पदपर प्रतिष्ठित करने योग्य है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८४-१८५

वेदवेदांगतत्वज्ञो राजपुरोहित:


वेदे षडंगे निरता: शुचय: सत्यवादिन:।
धर्मात्मन: कृतात्मान: स्युर्नृपाणां पुरोहिता:।।

(महाभारत– आदिपर्व १६९.७५)

“जो छहों अंगोंसहित वेदके स्वाध्यायमें तत्पर, पवित्र, सत्यवादी, धर्मात्मा और संयमी हों, ऐसे ही ब्राह्मण राजाके पुरोहित होने चाहिये।।”

वेदवेदांगतत्वज्ञो जपहोमपरायण:।
आशीर्वादपरो नित्यमेष राजपुरोहित:।।

(प्रसंगाभरणम् १६)

वेदवेदांगके तत्वज्ञ, जप तथा होमके परायण, नित्य आशीर्वादमें तत्पर — यह राजपुरोहितका स्वरूप है।।”

राजपुरोहित

जयश्च नियतो राज्ञ: स्वर्गश्च तदनंतरम्।
यस्य स्याद् धर्मविद् वाग्मी पुरोधा: शीलवान् शुचि:।।

(महाभारत– आदिपर्व १६९.७६)

“जिसके यहाँ धर्मज्ञ वक्ता, शीलवान् और शुद्धाचरणसम्पन्न ब्राह्मण पुरोहित हो, उस राजाको इस लोकमें निश्चय ही विजय प्राप्त होती है और देहत्यागके पश्चात् उसे स्वर्ग मिलता है।।”

लाभं लब्धुमलब्धं व लब्धं वा परिरक्षितुम्।
पुरोहितं प्रकुर्वित राजा गुणसमन्वितम्।।

(महाभारत– आदिपर्व १६९.७७)

राजाको किसी अप्राप्त निधिको प्राप्त करने अथवा उपलब्ध निधिकी रक्षा करनेके लिये गुणवान् ब्राह्मणको पुरोहित बनाना चाहिये।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८३

शुक्राचार्य उवाच


उच्छिष्ट: स भवेद् राजा यस्य नास्ति पुरोहित:।
रक्षसामसूराणां च पिशाचोरगपक्षिणाम्।
शत्रुणां च भवेद् वध्यो यस्य नास्ति पुरोहित:।।


“जिस राजाके पास पुरोहित नहीं है, वह उच्छिष्ट (अपवित्र) हो जाता है। जिसके पास पुरोहित नहीं है, वह राजा राक्षसों, असुरों, पिशाचों, नागों, पक्षियोंका तथा शत्रुओंका वध्य होता है।।”

ब्रूयात् कार्याणि सततं महोत्पातानि यानि च।
इष्टमङ्गलयुक्तानि तथाऽऽन्त:पुरिकाणि च।।


गीतनृत्ताधिकारेषु सम्मतेषु महीपते:।
कर्तव्यं करणीयं वै वैश्वदेवबलिस्तथा।।


पुरोहितको चाहिये कि राजाके लिये जो सदा आवश्यक कर्तव्य हों, जो-जो बड़े बड़े उत्पात होने-वाले हों, जो अभीष्ट तथा माङ्गलिक कृत्य हों तथा जो अन्तःपुरसे सम्बन्ध रखनेवाले वृत्तान्त हों, वे सब राजाको बतावे।। राजाको प्रिय लगनेवाले जो गीत और नृत्यसम्बन्धी कार्य हों, उनमें करनेयोग्य कर्तव्यका पुरोहित निर्देश करे, बलिवैश्वदेवकर्मका सम्पादन करे।।”
Chanakya
नक्षत्रस्यानुकूल्येन य: संजातो नरेश्वर:।
राजशास्त्रविनीतश्च श्रेयान् राज्ञ: पुरोहित:।।


अथान्यानां निमित्तानामुत्पातानामथार्थवित्।
शत्रुपक्षक्षयज्ञश्च श्रेयान् संज्ञ: पुरोहित:।।


“जो राजा अनुकूल नक्षत्रमें उत्पन्न हुआ है तथा राजशास्त्रकी पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर चुका है, उससे भी श्रेष्ठ उसका पुरोहित होना चाहिये।। जो भिन्न-भिन्न प्रकारके निमित्तों और उत्पातोंका रहस्य जानता हो तथा शत्रुपक्षके विनाशकी प्रणालीका भी जानकार हो, ऐसा श्रेष्ठतम पुरुष राजाका पुरोहित होना चाहिये।।”

ब्रह्मक्षत्रं हि सर्वेषां वर्णानां मूलमुच्यते


धर्मात्मा मन्त्रविद् येषां राज्ञां राजन् पुरॊहितः।
राजा चैवंगुणॊ येषां कुशलं तेषु सर्वशः।
तेषामर्थश्च कामश्च धर्मश्चेति विनिश्चय:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७३. २)

“राजन्‌! जिन राजाओंका पुरोहित धर्मात्मा एवं सलाह देनेमें कुशल होता है और जिनका राजा भी ऐसे ही गुणोंसे सम्पन्न (धर्मपरायण एवं गुप्त बातोंका जाननेवाला) होता है, उन राजा और प्रजाओंका सब प्रकारसे भला होता है।।”
धर्माध्यक्ष
उभौ प्रजा वर्धयतॊ देवान् सर्वान् सुतान् पितॄन्।
भवेयातां स्थितौ धर्मे श्रद्धेयौ सुतपस्विनौ।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७३. ३)

परस्परस्य सुहृदौ विहितौ समचेतसौ।
ब्रह्मक्षत्रस्य सम्मानात् प्रजा सुखमवाप्नुयात्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७३. ४)

“यदि राजा और पुरोहित धर्मनिष्ठ, श्रद्धेय तथा तपस्वी हों, एक-दूसरेके प्रति सौहार्द रखते हों और समान हृदयवाले हों तो वे दोनों मिलकर प्रजाकी वृद्धि करते हैं तथा सम्पूर्ण देवताओं एवं पितरोंको तृप्त करके पुत्र और प्रजावर्गको भी अभ्युदयशील बनाते हैं। ऐसे ब्राह्मण (पुरोहित) और क्षत्रिय (राजा) का सम्मान करनेसे प्रजाको सुखकी प्राप्ति होती है।।”

विमाननात् तयॊरेव प्रजा नश्येयुरेव हि।
ब्रह्मक्षत्रं हि सर्वेषां वर्णानां मूलमुच्यते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७३. ५)

“उन दोनोंका अनादर करनेसे प्रजाका विनाश ही होता है, क्योंकि ब्राह्मण और क्षत्रिय सभी वर्णोंके मूल कहे जाते हैं।।”

ब्रह्म क्षत्रं परस्परं सम्बन्धः


विद्धं राष्ट्रं क्षत्रियस्य भवति ब्रह्म क्षत्रं यत्र विरुद्धयतीह।
अन्वग्बलं दस्यवस्तद् भजन्ते तथा वर्णं तत्र विदन्ति सन्तः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७३. ८)

नैषां ब्रह्म च वर्धते नॊत पुत्रा न गर्गरॊ मथ्यते नॊ यजन्ते।
नैषां पुत्रा वेदमधीयते च यदा ब्रह्म क्षत्रियाः संत्यजन्ति।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७३. ९)

नैषांमर्थो वर्धते जातु गेहे नाधीयते सुप्रजा नॊ यजन्ते।
अपध्वस्ता दस्युभूता भवन्ति ये ब्राह्मणान् क्षत्रिया: संत्यजन्ति।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७३. १०)

“राजन! श्रेष्ठ पुरुष इस बातको जानते हैं कि संसारमें जहाँ ब्राह्मण क्षत्रियसे विरोध करता है, वहाँ क्षत्रियका राज्य छिन्न-भिन्न हो जाता है और लुटेरे दल-बलके साथ आकर उसपर अधिकार जमा लेते हैं तथा वहाँ निवास करनेवाले सभी वर्णके लोगोंको अपने अधीन कर लेते हैं।। जब क्षत्रिय ब्राह्मणको त्याग देते हैं, तब उनका वेदाध्ययन आगे नहीं बढ़ता, उनके पुत्रोंकी भी वृद्धि नहीं होती, उनके यहाँ दही-दूधका मटका नहीं मथा जाता और न वे यज्ञ ही कर पाते हैं। इतना ही नहीं, उन ब्राह्मणोंके पुत्रोंका वेदाध्ययन भी नहीं हो पाता।। जो क्षत्रिय ब्राह्मणोंको त्याग देते हैं, उनके घरमें कभी धनकी वृद्धि नहीं होती। उनकी संतानें न तो पढ़ती हैं और न यज्ञ ही करती हैं। वे पदभ्रष्ट होकर डाकुओंकी भाँति लूटपाट करने लगते हैं।।”
वाल्मीकि जी और लवकुश
एतौ हि नित्यं संयुक्तावितरेतरधारणे।
क्षत्रं वै ब्रह्मणॊ यॊनिर्यॊनिः क्षत्रस्य वै द्विजाः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७३. ११)

उभावेतौ नित्यमभिप्रपन्नौ सम्प्रापतुर्महतीं सम्प्रतिष्ठाम्।
तयॊः संधिर्भिद्यते चेत् पुराणस्ततः सर्वं भवति हि संप्रमूढम्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७३. १२)

“वे दोनों ब्राह्मण और क्षत्रिय सदा एक-दूसरेसे मिलकर रहें, तभी वे एक-दूसरेकी रक्षा करनेमें समर्थ होते हैं। ब्राह्मणकी उन्नतिका आधार क्षत्रिय होता है और क्षत्रियकी उन्नतिका आधार ब्राह्मण।। ये दोनों जातियाँ जब सदा एक-दूसरेके आश्रित होकर रहती हैं, तब बड़ी भारी प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं और यदि इनकी प्राचीन कालसे चली आती हुई मैत्री टूट जाती है, तो सारा जगत्‌ मोहग्रस्त एवं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है।।”

राजा और पुरोहित में सामंजस्य


पुरोहितमते तिष्ठेद् य इच्छेद् भूतिमात्मन:।
प्राप्तुं वसुमतीं सर्वां सर्वशः सागराम्बराम्।।

(महाभारत – आदिपर्व १६९.७८)

न हि केवलशौर्येण तापत्याभिजनेन च।
जयेद्ब्राह्मण: कश्चिद् भूमिं भूमिपति: क्वचित्।।

(महाभारत – आदिपर्व १६९.७९)

“जो समुद्रसे घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वीपर अपना अधिकार चाहे, उसे पुरोहितकी आज्ञाके अधीन रहना चाहिए।। तपतीनन्दन अर्जुन ! कोई भी राजा कहीं भी पुरोहितकी सहायता के बिना केवल अपने बल अथवा कुलीनताके भरोसे भूमिपर विजय नहीं प्राप्त करता।।”
आचार्य
योगक्षेमो हि राष्ट्रस्य राजन्यायत्त उच्यते।
योगक्षेमो हि राज्ञो हि समायत्त: पुरोहिते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७४. १)

यत्रादृष्टं भयं ब्रह्म प्रजानां शमयत्युत।
दृष्टं च राजा बाहुभ्यां तद् राज्यं सुखमेधते।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७४. २)

“राजन ! राष्ट्रका योगक्षेम राजाके अधीन बताया जाता है; परन्तु राजाका योगक्षेम पुरोहितके अधीन है।। जहाँ ब्राह्मण अपने तेजसे प्रजाके अदृष्ट भयका निवारण करता है और राजा अपने बाहुबलसे दृष्ट भयको दूर करता है, वह राज्य सुखसे उत्तरोत्तर उन्नति करता है।।”

क्षत्रिय भगवान राम

तपो मन्त्रबलं नित्यं ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठितम्।
अस्त्रबाहुबलं नित्यं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम्।।
ताभ्यां सम्भूय कर्तव्यं प्रजानां परिपालनम्।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७४. १४-१४.१/२)

ब्राह्मणोंमें सदा तप तथा मन्त्रका बल प्रतिष्ठित रहता है और क्षत्रियोंमें अस्त्र और बाहुबल प्रतिष्ठित रहता है। अतः दोनोंको एक साथ मिलकर ही प्रजाका पालन करना चाहिये।।”

ये च राष्ट्रोपरोधेन वृद्धिं कुर्वन्ति केचन।
तदैव तेऽनुमार्यन्ते कुणपे क़ृमयो यथा।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ७४. १४-१४.१/२)

“जो राष्ट्रको हानि पहुँचाकर अपनी उन्नतिके लिये प्रयत्न करते हैं, वे मुर्दोंमें पड़े हुए कीड़ोंके समान उसी समय नष्ट हो जाते हैं।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८३-१८४

राज्याभिषेकपूर्वं पुरोहितस्य चयनम्


मिथॊभेदाद् ब्राह्मणक्षत्रियाणां प्रजा दुःखं दुःसहं चाविशन्ति।
एवं ज्ञात्वा कार्य एवेह नित्यं पुरॊहितॊ नैकविद्यॊ नृपेण।।

(महाभारत– शान्तिपर्व ७३. २८)

तं चैवान्वभिषिच्येत तथा धर्मॊ विधीयते।
अग्र्यॊ हि ब्राह्मणः प्रोक्तः सर्वस्यैवेह धर्मतः।।

(महाभारत– शान्तिपर्व ७३. २९)

ब्राह्मण और क्षत्रियोंमें परस्पर फूट होनेसे प्रजाको दुःसह दुःख उठाना पड़ता है। इन सब बातोंको समझ-बूझकर राजाको चाहिये कि वह सदाके लिये एक सदाचारी बहुज्ञ पुरोहित बना ही ले।। राजा पहले पुरोहितका वरण कर ले। उसके बाद अपना अभिषेक करावे। ऐसा करनेसे ही धर्मका पालन होता है; क्‍योंकि धर्मके अनुसार ब्राह्मण यहाँ सबसे श्रेष्ठ बताया गया है।।”

पूर्वं हि ब्राह्मण: सृष्टिरिति ब्रह्मविदॊ विदुः।
जयेष्ठेनाभिजनेनास्य प्राप्तं पूर्वं यदुत्तरम्।।

(महाभारत– शान्तिपर्व ७३. ३०)

वेदवेत्ता विद्वानोंका यह मत है कि सबसे पहले ब्राह्मणकी ही सृष्टि हुई है; अतः ज्येष्ठ तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेके कारण प्रत्येक उत्कृष्ट वस्तुपर सबसे पहले ब्राह्मणका ही अधिकार होता है।।”
आचार्य
तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च ब्राह्मणः प्रसृताग्रभुक्।
सर्वं श्रेष्ठं विशिष्टं च निवेद्यं तस्य धर्मतः।।

अवश्यमेव कर्तव्यं राज्ञा बलवतापि हि।
(महाभारत– शान्तिपर्व ७३. ३१-३१(१/२))

“इसलिये ब्राह्मण सब वर्णोका सम्माननीय और पूजनीय है। वही भोजनके लिये प्रस्तुत की हुई सब वस्तुओंको सबसे पहले भोगनेका अधिकारी है। सभी श्रेष्ठ और उत्तम पदार्थोंको धर्मके अनुसार पहले ब्राह्मणकी सेवामें ही निवेदित करना चाहिये।। बलवान्‌ राजाको भी अवश्य ऐसा ही करना चाहिये।”

ब्रह्म वर्धयति क्षत्रं क्षत्रतॊ ब्रह्म वर्धते।
एवम् राज्ञा विशेषण पूज्या वै ब्राह्मणा: सदा।।

(राज्ञ: सर्वस्य चान्यस्य स्वामी राजपुरोहित:)
(महाभारत– शान्तिपर्व ७३. ३२)

ब्राह्मण क्षत्रियको बढ़ाता है और क्षत्रियसे ब्राह्मणकी उन्नति होती है। अतः राजाको विशेषरूपसे सदा ही ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये; क्योंकि राजपुरोहित राजाका तथा अन्य सब लोगोंका भी स्वामी है।।”