भारतवैभव

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


भारते जन्मस्य महत्त्वम्


गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।।

(श्रीविष्णुपुराण २.३.२४)

देवगण भी निरन्तर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्गके मार्गभूत भारतभूखण्डमें जन्म लिया है, वे पुरुष हम देवताओंकी अपेक्षा भी अधिक धन्य हैं।।”
भारत
अहो भुव: सप्तसमुद्रवत्या द्वीपेषु वर्षेष्वधिपुण्यमेतत्।
गायन्ति यत्रत्यजना मुरारे: कर्माणि भद्राण्यवतारवन्ति।।

(श्रीमद्भागवत ५.६.१३)

“अहो! सात समुद्रोंवाली पृथ्वीके समस्त द्वीप और वर्षोंमें यह भारतवर्ष बड़ी ही पुण्यभूमि है; क्योंकि यहाँके निवासी श्रीहरिके मंगलमय अवतारचरित्रोंका गान करते हैं।।”
मन्दिर
अहो अमीषां किमकारि शोभनं प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरि:।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि न:।।

(श्रीमद्भागवत ५.१९.२१)

“अहा! जिन जीवोंने भारतवर्षमें श्रीहरिकी सेवाके योग्य मनुष्यजन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा कौन – सा पुण्य किया है? अथवा इनपर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं? इस परम सौभाग्यके लिये तो निरन्तर हम देववृन्द भी तरसते रहते हैं।।”

किं दुष्करैर्न: क्रतुभिस्तपोव्रतैर्दानादिर्भिर्वा द्युजयेन फल्गुना।
न यत्र नारायणपादपंकजस्मृति: प्रमुष्टातिशयेन्द्रियोत्सवात्।।

(श्रीमद्भागवत ५.१९.२२)

“हमें बड़े कठोर यज्ञ, तप, व्रत तथा दानादि करके जो यह तुच्छ स्वर्गका अधिकार प्राप्त हुआ है — इससे लाभ ही क्या है? यहाँ तो इन्द्रियोंकी भोगोंकी अधिकताके कारण स्मृतिशक्ति छिन जाती है, अतः कभी श्रीमन्नारायणके चरणकमलोंकी स्मृति होती ही नहीं।।”
वाराणसी
कल्पायुषां स्थानज्यात्पुनर्भवात् क्षणायुषां भारतभूजयो वरम्।
क्षणेन मत् र्येन कृतं मनस्विन: सन्न्स्य संयान्त्यभयं पदं हरे:।।

(श्रीमद्भागवत ५.१९.२३)

स्वर्ग ही नहीं, बल्कि जहाँके निवासियोंकी एक – एक कल्पकी आयु होती है; तथापि जहाँसे संसारचक्रमें पुन: लौटना पड़ता है, उन मह: आदि लोकोंकी अपेक्षा भी भारतभूमिमें अल्पायु होकर जन्म लेना अच्छा है। कारण यह है कि यहाँ धीर पुरुष एक क्षणमें ही अपने इस मर्त्य शरीरसे किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीहरिको समर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर लेता है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ६७-६९

तद्भारतम्


उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:।।

(श्रीविष्णुपुराण २.३.१, ब्रह्मपुराण १९.१)

“जो समुद्रके उत्तर और हिमालयके दक्षिणमें स्थित है, वह भारत कहलाता है। उसमें भरतकी सन्तान बसी हुई है।।”

नवयोजनसाहस्त्रो विस्तारोऽस्य महामुने।
कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गं च गच्छताम्।।

(श्रीविष्णुपुराण २.३.२, ब्रह्मपुराण १९.२)

“महामुने! इसका विस्तार नौ हजार योजन (1 योजन चार कोस या आठ मील) है। यह स्वर्ग तथा अपवर्ग (मोक्ष) प्राप्त करनेवालोंकी कर्मभूमि है।।”
तद्भारतम्
भरणाच्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते।
निरुक्तवचनाच्चैव वर्षं तद् भारतं स्मृतम्।।

(वायुपुराण उपो. १०.४५.७६)

प्रजाका भरण करनेके कारण मनुको भरत कहा जाता है। प्रजाभरणरूप निरुक्तवचनके अनुसार ही वह देश ‘भारत‘ कहा गया।।”
तद्भारतम्
षोडशतमे हि राजा दुष्यन्तश्च कृते युगे।
शकुन्तलायां भरतस्तन्नाम्नैतत्तु भारतम्।।

(वायुपुराण ९९.५५)

वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तरके सोलहवें कृतयुगमें शाकुन्तल भरत थे। उन्होंने प्रजाका विशेषरूपसे भरण किया था। उन्हींके नामसे यह देश ‘भारत‘ कहा गया।।”

तद्भारतम्
भरताद् भारती कीर्तिर्येनेदं भारतं क़ुलम्।
अपरे ये च पूर्वे वै भारता इति विश्रुता:।।

(महाभारत — आदिपर्व ७४. १३१)

सोमवंशसमुद्भूत दुष्यन्तनन्दन भरतसे ही भूमिका नाम भारती तथा भूखण्डका नामभारत’ हुआ। उन्हींसे यह कौरववंश भरतवंशके नामसे प्रसिद्ध हुआ। उनके बाद उस वंशमें पूर्व तथा पश्चात् जो राजा हुए हैं, वे भरतवंशी होनेके कारण भारत कहे जाते हैं।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ६९-७१

बुद्धिप्रवर्तक सूर्यतेज


कर्माण्यसंकल्पित तत्फलानि सन्न्स्य विष्णौ परमात्मभूते।
अवाप्य तां कर्म महीमनन्ते तस्मिल्लयं ये त्वमला: प्रयान्ति।।

(श्रीविष्णुपुराण २.३.२५)

“जो इस कर्मभूमिमें जन्म लेकर फलाकांक्षासे रहित अपने कर्मोंको परमात्मस्वरूप श्रीविष्णुको अर्पण करनेके फलस्वरूप निर्मल होकर उन अनन्तमें लीन हो जाते हैं, वे अवश्य ही धन्य हैं।।
बुद्धिप्रवर्तक सूर्यतेज
वे उदित हुए सूर्यमण्डलमें सूर्यसम्बन्धिनी ऋचाओंद्वारा ज्योतिर्मय परम पुरुष भगवान् श्रीमन्नारायणकी आराधना करते हुए इस प्रकार कहते हैं—”

परोरज: सवितुर्जातवेदो देवस्य भर्गो मनसेदं जजान।
सुरेतसाद: पुनराविश्य चष्टे हंसं गृध्राणं नृषद्रिंगिरामिम:।।

(श्रीमद्भागवत ५.७.१४)

सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् कर्मफलदायक स्वप्रकाश सर्वेश्वर सूर्यका तेज प्रकृतिसे परे है। उसीने संकल्पद्वारा इस सृष्टिकी संरचना की है। वही अन्तर्यामीरूपसे इसमें प्रविष्ट होकर अपनी चित् – शक्तिद्वारा सर्वविध प्राणियोंकी रक्षा करता है। हम उस बुद्धिप्रवर्तक तेजकी शरण हैं।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ६९-७०

भारतमद्भूतम्


प्रियव्रतो नाम सुतो मनो: स्वायम्भुवस्य च।
तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिर्ऋषभस्तत्सुत: स्मृत:।।


तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया।
अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम्।।

(श्रीमद्भागवत ११.२.१५-१६)

स्वायम्भुव मनुके एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रतके आग्नीघ्र, आग्नीघ्रके नाभि और नाभिके पुत्र हुए ऋषभ।। शास्त्रोंने उन्हें वासुदेवका अंश कहा है। मोक्षधर्मका उपदेश करनेके लिए उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र वेदोंके पारदर्शी विद्वान् थे।।”
अद्भुत भारत
तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायण:।
विख्यातं वर्षमेतद् यन्नाम्ना भारतमद्भूतम्।।

(श्रीमद्भागवत ११.२.१७)

“उनमें ज्येष्ठ थे भरत। वे नारायणपरायण थे। उन्हींके नामसे प्रसिद्ध यह भूमिखण्ड जो पहले अजनाभवर्ष कहलाता था, भारतवर्ष कहलाया। यह ‘भारतअद्भुत है।।”

कालभेदसे नामकरणकी संगति मान्य है।


— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ७१-७२

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी


जननी जन्मभूमिश्च जाह्नवी च जनार्दन:।
जनक: पञ्चमश्चैव जकारा: पञ्च दुर्लभा:।।

(सुभाषितरत्नभाण्डागार १५७.१७०)

जननी (माता), जन्मभूमि, जाह्नवी (गङ्गा), जनार्दन और पाँचवे जनक (पिता)— ये पाँचों जकार दुर्लभ हैं।।”
जन्मभूमि
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
(श्रीरामभद्रवचन)

“जननी और जन्मभूमि स्वर्गसे भी गौरवशालिनी है।।”

“किसी भी व्यक्ति तथा वस्तुकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहृति देश और कालके अधीन है। स्थावर और जङ्गम विविध प्राणियोंकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहृतिके लिए अपेक्षित देश पृथ्वी हैकर्मप्रधान तथा भोगप्रधान द्विविध भूभाग लोक – वेद उभयसम्मत है। मर्त्यलोकमें कर्मप्रधान भूभाग भारत विश्वहृदय है। कर्मका पर्यवसान भोग, योग, तथा मोक्षमें सम्भव है। भुव:, स्व: आदि ऊर्ध्वलोक भोगप्रधान हैं। सत्यम् – संज्ञक ब्रह्मलोक भोग, योग तथा मोक्षका समवाय है। कर्मप्रधान भूभाग भारतमें वर्णाश्रमधर्म, भागवतधर्म तथा मोक्षधर्मसंस्थापनार्थ सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वरका अवतार होता है। कर्मायतन, भोगायतन तथा ज्ञानायतन मानवजीवनका उपयोग और विनियोग जन्म – मृत्युकी अनादि, अनन्त और अजरत्रपरम्पराके आत्यन्तिक उच्छेदमें कर्त्तव्य है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या ७१-७२