आदर्श राजा

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


राजन् किम्भावेन भवेत्?


आदर्श राजा

सनातनधर्ममें आदर्श शासक वही मान्य है, जिसके जनपद (शासनक्षेत्र) में कोई चोर, मदिरादि प्राणघातक और प्रज्ञापहारक पदार्थोंका सेवन करनेवाला, स्वेच्छाचारी एवम् यज्ञ-अध्ययन तथा दानरूप धर्मस्कंधोंसे विहीन मानव न हो।

सनातनधर्ममें प्रजापालक राजतन्त्र उज्जवल और प्रखर राष्ट्रवाद का पोषक होता है। उसकी तुलनामें सत्तालोलुप और अदूरदर्शी तथा उन्मादी नेताओं के द्वारा उत्पीड़ित प्रजातंत्र अत्यंत दुर्बल सिद्ध होता है। लोकरंजनमें निपुण शासक लोकतन्त्रका प्रबल पोषक होता है।

राजाको सदा ही दानशील, यज्ञशील, उपवास तथा तपस्यामें तत्पर एवं प्रजापालनमें संलग्न रहना चाहिये।
— शान्तिपर्व, महाभारत

रक्षणं सवभूतानामिति क्षात्र परं मतम्।


क्षत्रियके लिये सबसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है समस्त प्राणियोंकी रक्षा करना।

दान, व्रत, ब्रह्मचर्य, शास्त्रोक्तरीतिसे वेदाध्ययन, इंद्रियनिग्रह, शांति, समस्त प्राणियोंपर दया, चित्तका संयम, कोमलता, दूसरोंके धन लेनेकी इच्छाका त्याग, प्राणियोंका मनसे भी अहित न करना, माता-पिता की सेवा, देवता, अतिथि, और गुरुओंकी पूजा (सत्कार), दया, पवित्रता, इंद्रियोंका सदा संयम और शुभ कर्मोंका प्रसार – यह श्रेष्ठ पुरुषोंका बर्ताव कहलाता है। इनके अनुष्ठानसे धर्म समुत्पन्न और सुपुष्ट होता है, जो सदा प्रजावर्गका पालन-पोषण रक्षण करता है।

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “राजधर्म” पृष्ठ संख्या

क्षत्रियः कः भवति?


प्रजाका रंजन करनेके कारण शासक राजा कहा जाता है। ब्राह्मणोपलक्षित प्रजावर्गको क्षत (पीड़ित) होने से त्राण करनेवाला होनेके कारण वह क्षत्रिय कहा जाता है।

राजाको इंद्रके समान अभीष्ट वर्षक, सूर्यके समान करग्राहक, वायुके तुल्य प्रज्ञाकी प्रशस्तता तथा गुप्तचरकी दक्षतासे सर्वत्र गतिशील सर्ववित्, यम के समान दमनशील तथा दण्डपाणि, वरुणतुल्य पाशप्रद पाशहस्त, चंद्रतुल्य आह्लादप्रद, अग्नितुल्य प्रतापी, धरित्रीतुल्य धारक अर्थात् इंद्रव्रत, सूर्यव्रत, वायुव्रत, यमव्रत, वरुणव्रत, चंद्रव्रत, अग्निव्रत, पार्थिवव्रत होना चाहिये।

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “राजधर्म” पृष्ठ संख्या २५

आदर्श राजा

राजा मूलं त्रिवर्गस्य


विद्या शौर्यं च दाक्षयं च बलं धैर्यं च पंचमम्।
मित्राणि सहजान्याहुर्वर्तयन्तीह तैर्बुधा:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. ८५)

विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल, और पाँचवाँ धैर्य – मनुष्य के स्वाभाविक मित्र बताए गए हैं। विद्वान् उनके द्वारा ही इस जगत् में सब कार्य करते हैं।।”

सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो यत्र निर्वृति:।
तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. ९६)

पत्नी वही अच्छी है, जो प्रियवचन बोले। पुत्र वही अच्छा है, जिससे सुख मिले। मित्र वही श्रेष्ठ है जिसपर विश्वास बना रहे और देश वही उत्तम है, जहाँ जीविका चल सके।।”
आदर्श राजा
यत्र नास्ति बलात्कार: स राजा तीव्रशासन:।
भीरेव नास्ति सम्बन्धो दरिद्रं यो बुभूषते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. ९७)

उग्र शासनवाला राजा वही श्रेष्ठ है, जिसके राज्यमें बलात्कार ना हो, किसी प्रकारका भय ना हो और जो दरिद्रका पालन करना चाहता हो; अर्थात् प्रजाके साथ जिसका पाल्य – पालक सम्बन्ध सुनिश्चित हो।।”

भार्या देषोऽथ मित्राणि पुत्रसम्बन्धिबान्धवा:।
एते सर्वे गुणवति धर्मनेत्रे महीपतौ।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. ९८)

“जिस देशका राजा गुणवान्‌ और धर्मपरायण होता है, वहाँ स्त्री, पुत्र, मित्र, सम्बन्धी तथा देश सब अत्युत्तम गुणसे सम्पन्न होते हैं।।”

अधर्मज्ञस्य विलयं प्रजा गच्छन्ति निग्रहात्।
राजा मूलं त्रिवर्गस्य स्वप्रमत्तोऽनुपालयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १३९. ९९)

“जो राजा धर्मको नहीं जानता, उसके अत्याचारसे प्रजाका नाश हो जाता है। राजा ही धर्म, अर्थ और काम – इन तीनोंका मूल है। अतः उसे पूर्ण सावधान रहकर निरन्तर अपनी प्रजाका पालन करना चाहिये।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २२४

प्रजा-रक्षक विराट्


निग्रहेण च पापानां साधूनां संग्रहेण च।
यज्ञैर्दानैश्च राजानॊ भवन्ति शुचयॊऽमलाः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. ३)

यॊ भूतानि धनाक्रान्त्या वधात् कलेशाच्च रक्षति।
दस्युभ्यः प्राणदानात् स धनदः सुखदॊ विराट्।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. ८)

ब्राह्मणार्थे समुत्पन्ने यॊऽरिभि: सृत्य युध्यति।
आत्मानं यूपमुत्सृज्य स यज्ञॊऽनन्तदक्षिणः।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ९७. १०)
प्रजा-रक्षक विराट्
पापियोंको दण्ड देने और सत्पुरुषोंको आदरपूर्वक अपनानेसे तथा यज्ञोंका अनुष्ठान और दान करनेसे राजा लोग सब प्रकारके दोषोंसे छूटकर निर्मल एवं शुद्ध हो जाते हैं।। जो राजा समस्त प्रजाको धनक्षय, प्राणनाश और दु:खोंसे बचाता है, लुटेरोंसे रक्षा करके जीवन-दान देता है, वह प्रजाके लिये धन और सुख देनेवाला परमेश्वर माना गया है।। ब्राह्मणकी रक्षाका अवसर आनेपर जो आगे बढ़कर शत्रुओंके साथ युद्ध छेड़ देता है और अपने शरीरको यूपकी भाँति निछावर कर देता है, उसका वह त्याग अनन्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञके ही तुल्य है।।”

स राजा राजसत्तम:


प्राज्ञस्त्यागगुणोपेत : पररन्ध्रेषु तत्पर:।
सुदर्श: सर्ववर्णानां नयापनयवित् तथा।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ३०)

क्षिप्रकारी जितक्रोध: सुप्रसादो महामना:।
अरोषप्रकृतिर्युक्त: क्रियावानविकत्थन:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ३१)

आरब्धान्येव कार्याणि सुपर्यवसितानि च।
यस्य राज्ञ: प्रदिश्यन्ति स राजा राजसत्तम:।।

(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ३२)
आदर्श राजा
“जो बुद्धिमान, त्यागी, शत्रुओंकी दुर्बलता जाननेके प्रयत्नमें तत्पर, देखनेमें सुन्दर, सब वर्णों के न्याय और अन्याय को समझनेवाला, शीघ्र कार्य करनेमें समर्थ, क्रोधपर विजय प्राप्त करनेवाला, आश्रितोंपर कृपा करनेवाला, महामनस्वी, कोमल स्वभावसे सम्पन्न, समाहित, कर्मठ तथा आत्मप्रशंसा से सुदूर रहनेवाला और जिस राजाके सब कार्य सुव्यवस्थितरूपसे समयपर सम्पन्न होते हैं; वह समस्त राजाओं में श्रेष्ठ है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३१-२३२

श्रीरामानुरोध


राजा राम भगवान
भूयो भूयो भाविनो भूमिपाला नत्वा नत्वा याचते रामचन्द्र:।
सामन्योऽयं धर्मसेतुर्नराणां काले काले पालनीयो भवद्भि:।।
(स्कन्दपुराण – धर्मारण्यखण्ड ३४.३८)

भावी राजाओं ! रामचन्द्र आपको पुन: – पुन: नमस्कार करके यह याचना करता है कि मनुष्योंके लिये जो यह वेदादि शास्त्रसम्मत वर्णाश्रमधर्मके अनुपालन से क्रमिक उत्कर्षको प्राप्त यम – नियमादिरूप सामान्य धर्मसेतु है, वह अपने – अपने समयमें आपके द्वारा अवश्य ही पालनीय है।।”

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३८
यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्य स्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्म:।
मायाचारो मायया वाधितव्य: साध्वाचार: साधुना प्रत्युपेय:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १०९. ३०)
आदर्श राजा
“जो मनुष्य जिसके साथ जैसा व्यवहार करे, उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार करना चाहिये; यह धर्म (न्याय) है। माया (कपट) – पूर्ण आचरण करनेवालेको वैसे ही आचरणके द्वारा दबाना उचित है और सदाचारीको सदाचारके द्वारा ही अपनाना उचित है।।“

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “राजधर्म” पृष्ठ संख्या ४२

कालज्ञाता पार्थिवानां वरिष्ठ:


यबालोऽप्यबाल: स्थविरो रिपुर्य: सदा प्रमत्तं पुरुषं निहन्यात्।
कालेनान्यस्तस्य मूलं हरेत कालज्ञाता पार्थिवानां वरिष्ठ:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १२०. ३९)

शत्रु बाल, युवक अथवा वृद्ध ही क्यों न हो, सदा सावधान न रहनेवाले मनुष्यका नाश कर डालता है। अन्य कोई धनसम्पन्न शत्रु अनुकूल समयका सहयोग पाकर राजाकी जड़ उखाड़ सकता है। अत एव जो समयको जानता है, वही राजाओं में श्रेष्ठ है।।“

— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३०