आदर्श आचार्य

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


आदर्श आचार्य
चंद्रमा मनके अधिदैव हैं। उनके अनुग्रह से संयत मनवाले तपस्वी तथा मनस्वी द्विज चंद्रदेव को ही अपना राजा मानते हैं। उन द्विजों के द्वारा उपदिष्ट तथा अभिषिक्त क्षत्रिय दंडाधिकारी होते हैं। ब्राह्मणों में सन्निहित नीति तथा क्षत्रियों में प्रतिष्ठित शक्तिके साहचर्य और सामंजस्यसे सर्वहित सुनिश्चहित है। इस तथ्य का प्रकाश स्वयं भगवत्पाद श्रीशंकराचार्यके शब्दोंमें इस प्रकार है।-
“तानाचार्योपदेशांश्च राजदंडाँश्च पालयेत्।
तस्मादाचार्यराजानावनवद्यौ न निन्दयेत्।।”

(महानुशासनम २४)
शील, संयम तथा वेदार्थविज्ञानसम्पन्न आचार्य के उपदेश और उसका उल्लंघन करनेवालोंके लिए अर्थात् उन्मार्गगामी अराजक तत्त्वोंके लिए राजदण्ड प्रजापालक हैं। अत एव आचार्य और राजा माननीय हैं; इनकी निंदा न करे।।”

“आचार्यवृन्द इष्टकी प्राप्ति करानेवाले धर्मका ही उपदेश करते हैं। अनिष्ट फलप्रद अधर्मका उपदेश आचार्यगण नहीं करते।।”

“जो वृद्ध, निर्लोभ, संयमी तथा आत्मज्ञ, दम्भहीन, परम विनीत, मृदु – स्वभाव होते हैं; उन्हें ‘आचार्य‘ कहा जाता है।।”

धर्ममर्यादाके निरन्तर परिपालन और धर्मसेतुके परिरक्षणका मुख्य दायित्व पूज्यभगवत्पाद श्रीशंकराचार्यने ब्राह्मणों, श्रीपद्मपाद – हस्तामलक – सुरेश्वर – तोटक संज्ञक चतुराम्नाय चतुष्पीठके मान्य श्रीमज्जगद्गुरुओं एवम् श्रीभट्टपादके द्वारा सुशिक्षित तथा श्रीभगवत्पादके द्वारा अधिष्ठित सुधन्वादि नरेशोंको सौंपा था। –
“सुधन्वा हि महाराजस्तदन्ये च नरेश्वरा:।
धर्म्मपारम्परीमेतां पालयन्तु निरंतरम्।।”

(महानुशासनम १७)