अथर्ववेदके ‘सोऽरज्यत ततो राजन्योऽजायत’ (१५. ८. १), ‘स विश: सबन्धूनन्नमन्नाद्यमभ्युदतिष्ठत्’ (१५. ८. २), ‘स विशोऽनु व्यऽचलत्’ (१५. ९. १), ‘तं सभा च समितिश्च सेना च सुरा चानुऽव्यचलत्’ (१५. ९. २) आदि वचनोंके अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है कि प्रजाको प्रमुदित करनेवाला राष्ट्राधिपति राजा प्रजाको बाह्याभ्यन्तर सत्ता, स्फूर्ति और स्नेहप्रदायक सदा उद्दीप्त दिव्यालोक है।
उसमें पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन और आकाश ; तद्वत् ब्रह्मा – विष्णु – शिव – शक्ति – गणपति, बृहस्पति – इन्द्र – सोम – सूर्य – अग्नि – वरुण – यम – अश्विनी
और कुबेरादिसदृश उत्पत्ति – स्थिति – संह्रति – निग्रह ( / तिरोधान) और अनुग्रहशक्तियोंका सन्निवेश है।
पृथ्वी और अग्निसदृश ब्रह्मबलसम्पन्न बृहस्पतितुल्य आचार्य तथा द्युलोक और आदित्यसदृश क्षत्रबलसम्पन्न इन्द्रतुल्य राजाके सौजन्यसे प्रजाको उन्नत जीवन, प्रकाश और उल्लासकी समुपलब्धि सुनिश्चित है।
प्रजासे पोषित राजा प्रजाका सर्वविध परिपोषक सिद्ध होता है। सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वरसे रञ्जित प्रजा राजाका उद्भवस्थान है। स्थावर-जङ्गमसंज्ञक सर्वविध प्रजाको परम्पराप्राप्त निसर्गसिद्ध अन्नादि भोग्यसामग्रियोंसे तथा उसे पचानेमें समर्थ अद्भुत पाचनशक्तिसे सम्पन्नकर उसके सर्वविध कल्याणमें
संलग्न सभा, समिति, सेना और सुरासंज्ञक ह्लादिनीशक्तिसे सम्पन्न पृथु तथा पवनसदृश परिपोषक शासकका अद्भुत महत्त्व हृदयङ्गम करने योग्य है।
धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त सर्वहितप्रद सनातन शासनतन्त्रकी स्थापनाके बिना सबका समुचित पोषण असम्भव है।
सत्य, सत्सङ्ग, स्वाध्याय, सर्वहितकी भावना, स्नेह, सहानुभूति, संयम, दया, दान, शौचाचार, माता – पिता – देव – पितर – आचार्य – अतिथि – आर्त्त – आश्रित – सत्कार, समयोचित आचार, प्राप्त सामग्रीका सदुपयोग, प्राप्त विवेकका समादर, आलस्य – अहङ्कार – अनुदारता – दु:शीलता तथा दुर्व्यसनसे विहीन जीवन, ईश्वरप्रणिधान, यज्ञमय तथा योगमय जीवन लक्ष्मीकी स्थिर प्रतिष्ठा है।
भूमि, जल, अग्नि, वायु, सत्पुरुष, काल, स्वकर्म तथा दया, दान, संयम लक्ष्मीके धारक संस्थान हैं। इनके समादरसे श्रीसम्पन्नता सम्भव है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६१, १६५
सम्राट क्षत्रियॊ भूपतिर्नृपः

य एभि: स्तूयते शब्दैः कस्तं नार्चितुमर्हति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ५४)
“भोज, विराट, सम्राट, क्षत्रिय, भूपति और नृप–इन शब्दोंद्वारा जिस राजाकी स्तुति की जाती है, उस प्रजापालक नरेशकी पूजा कौन नहीं करेगा?।।”
राजधर्मका परिपालन
वेद सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वरके नि:श्वासकल्प हैं। उनके अविरुद्ध और अनुरूप मन्वादि धर्मशास्त्र हैं। वैदिक संविधानके तात्पर्यनिर्धारण तथा परिज्ञानके लिए शिक्षणसंस्थान और सत्सङ्ग तद्वत् न्यायपालिका अपेक्षित है। उनके क्रियान्वनके लिए कार्यपालिका और कार्यपालिकाकी सहायताके लिए सेना अपेक्षित है। इस तथ्यको हृदयङ्गमकर राजाके अनुरोधसे सभा, समिति तथा सेनाको परस्पर सद्भावपूर्ण सम्वादके द्वारा सैद्धान्तिक सामञ्जस्य साधकर राजधर्मका परिपालन करना चाहिए।
— ‘सभ्यः सभां मे पाहि ये च सभ्याः सभासद:’ (अथर्ववेद १९. ५५. ५)।।
राजधर्मके परिपालनमें सहयोग करनेवाला सभा, समिति, सेना और सुरासंज्ञक ह्लादिनीसामग्रीसे सम्पन्न होता है। —
‘सभायाश्च वै स समितेश्च सेनायाश्च सुरायाश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद’ (अथर्ववेद १५. ९. ३)।
सदाचार, संयम और सद्भावसम्पन्न धर्म, नीति और अध्यात्मका मर्मज्ञ राजा इन्द्रसदृश पराक्रमी और अपराजित होता है। धर्म राजाओंका भी राजा है। धार्मिक राजा ही राज्य और प्रजाका सम्यक् रक्षण और पालन करनेमें समर्थ सिद्ध होता है।
— ‘तदेतत् क्षत्रस्य क्षत्रं यद्धर्म:’ (बृहदारण्यकोपनिषत् १. ४. १४)
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६६
राज्ञा विहिना न भवन्ति देशा देशैर्विहिना न नृपा भवन्ति
यदा पश्यति चारेण सर्वभूतानि भूमिपः।
क्षेमं च कृत्वा व्रजति तदा भवति भास्करः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४३)
अशुचींश्च यदा क्रुद्धः क्षिणॊति शतशॊ नरान्।
सपुत्रपौत्रान् सामात्यांस्तदा भवति सॊऽन्तकः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४४)
यदा तवधार्मिकान् सर्वांस्तीक्ष्णैर्दण्डैर्नियच्छति।
धार्मिकांश्चानुगृह्णाति भवत्यथ यमस्तदा।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४५)
“जब राजा गुप्तचरोंद्वारा समस्त प्रजाओंकी देख-भाल करता है और उन सबकी रक्षा करता हुआ चलता है, तब वह सूर्यरूप होता है।।
जब राजा कुपित होकर अशुद्धाचारी सैकड़ों मनुष्योंका उनके पुत्र, पौत्र और मन्त्रियोंसहित संहार कर डालता है, तब वह मृत्युरूप होता है।।
जब वह कठोर दण्डके द्वारा समस्त अधार्मिक पुरुषोंको काबूमें करके सन्मार्गपर लाता है और धर्मात्माओंपर अनुग्रह करता है, उस समय वह यमराज माना जाता है।।”
यदा तु धनधाराभिस्तर्पयत्युपकारिणः।
आच्छिनत्ति च रत्नानि विविधान्यपकारिणाम।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४६)
श्रियं ददाति कस्मैचित् कस्माच्चिदपकर्षति।
तदा वैश्रवणॊ राजा लॊके भवति भूमिपः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४७)
“जब राजा उपकारी पुरुषोंको धनरूपी जलकी धाराओंसे तृप्त करता है और अपकार करनेवाले दुष्टोंके नाना प्रकारके रत्नोंको छीन लेता है, किसी राज्यहितैषीको धन देता है तो किसी (राज्यविद्रोही) के धनका अपहरण कर लेता है, उस समय वह पृथिवीपालक नरेश इस संसारमें कुबेर समझा जाता है।।”
राजा प्रगल्भं कुरुते मनुष्यं राजा कृशं वै कुरुते मनुष्यम्।
राजाभिपन्नस्य कुतः सुखानि राजाभ्युपेतं सुखिनं करॊति।।
(राजा प्रजानां प्रथमं शरीरं प्रजाश्च राज्ञोऽप्रतिमं शरीरम्।
राज्ञा विहिना न भवन्ति देशा देशैर्विहिना न नृपा भवन्ति।।)
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, ५८)
“राजा मनुष्यको धृष्ट एवं सबल बनाता है और राजा ही उसे दुर्बल कर देता है। राजाके रोषका शिकार बने हुए मनुष्यको कैसे सुख मिल सकता है? राजा अपने शरणागतको सुखी बना देता है।।
(राजा प्रजाओंका प्रथम अथवा प्रधान शरीर है। प्रजा भी राजाका अनुपम शरीर है। राजाके बिना देश और वहाँके निवासी नहीं रह सकते और देशों तथा देशवासियोंके बिना राजा भी नहीं रह सकते हैं)।।”
राजा प्रजानां हृदयं गरीयॊ गतिः प्रतिष्ठा सुखमुत्तमं च।
समाश्रिता लॊकमिमं परं च जयन्ति सम्यक् पुरुषा नरेन्द्र।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, ५९)
नराधिपश्चाप्यनुशिष्य मेदिनीं दमेन सत्येन च सौहृदेन।
महद्भिरिष्ट्वा क्रतुभिर्महायशा स्त्रिविष्टपे स्थानमुपैति शाश्वतम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, ६०)
“राजा प्रजाका गुरुतर हृदय, गति, प्रतिष्ठा और उत्तम सुख है। नरेन्द्र! राजाका आश्रय लेनेवाले मनुष्य इस लोक और परलोकपर भी पूर्णतः विजय पा लेते हैं।।
राजा भी इन्द्रियसंयम, सत्य और सौहार्दके साथ इस पृथ्वीका भलीभाँति शासन करके बड़े-बड़े यज्ञोंके अनुष्ठानद्वारा महान् यशका भागी हो स्वर्गलोकमें सनातन स्थान प्राप्त कर लेता है।।”
सत्यपरायण राजन्
कुलीन: कुलसम्पन्नस्तितिक्षुर्दक्ष आत्मवान्।
शूरः कृतज्ञ: सत्यश्च श्रेयसः पार्थ लक्षणम्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व ८३. १६)
“कुन्तीनन्दन! उत्तमकुलमें जन्म होना, सदा श्रेष्ठ कुलके सम्पर्कमें रहना, सहनशीलता, कार्यदक्षता, मनस्विता, शूरता, कृतज्ञता तथा सत्यभाषण — ये श्रेष्ठ पुरुषके लक्षण हैं।।”
सत्यमेवानृशंसं च राजवृत्तं सनातनम्।
तस्मात् सत्यात्मकं राज्यं सत्ये लोकः प्रतिष्ठित:।।
(वाल्मीकीय रामायण — अयोध्याकाण्ड १०९. १०)
“सत्य ही राजाओंकी अक्रूरतापूर्ण सनातन आचारसंहिता है; अतः राज्य सत्यात्मक है। सत्यमें ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है।।”
दत्तमिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च।
वेदा: सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात् सत्यपरो भवेत्।।
(वाल्मीकीय रामायण — अयोध्याकाण्ड १०९. १४)
“दान, यज्ञ, होम, तप तथा वेद — इन सबका आधार सत्य ही है; अतः सत्यपरायण होना चाहिए।।”
सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च भूतानुकम्पां प्रियवादितां च।
द्विजातिदेवातिथिपूजनं च पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्त:।।
(वाल्मीकीय रामायण — अयोध्याकाण्ड १०९. ३१)
“सत्य, धर्म, पराक्रम, समस्त प्राणियोंपर दया तथा प्रियवचन, तद्वत् देवताओं, अतिथियों और ब्राह्मणोंका पूजन — इन सबको सत्पुरुषोंने स्वर्गलोकका मार्ग बताया है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६६-१६७
नीतिशास्त्रविशारद राजन्
नयश्च विनयश्चौभौ यस्मिन् सत्यं च सुस्थितम्।
विक्रमश्च यथा दृष्ट: स राजा देशकालवित्।।
(वाल्मीकीय रामायण — किष्किन्धाकाण्ड १८. ८)
“जिसमें नय (नीति), विनय, सत्य और पराक्रमादि सब राजोचित गुण यथावत् सन्निहित देखे जायँ, वह राजा देश तथा कालका मर्मज्ञ मान्य है।।”
सर्वोपजीवकं लोकस्थितिकृन्नीतिशास्त्रकम्।
धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यत:।।
अतः सदा नीतिशास्त्रमभ्यसेद्यत्नतो नृप:।
यद्विज्ञानान्नृपाद्याश्च शत्रुजिल्लोकरञ्जकाः।।
(शुक्रनीति १. ५, ६)
“सर्व उपकारक तथा लोकस्थितिमें हेतु नीतिशास्त्र ही है। कारण यह है कि विचारकुशल मनीषियोंने इसे धर्म, अर्थ, कामका मूल तथा मोक्षप्रद माना है।।”
“अत एव राजा यत्नपूर्वक सदा नीतिशास्त्रका अध्ययन और अनुशीलन करे। नीतिशास्त्रविशारद राजादि शत्रुओंपर विजय प्राप्त करते हैं और लोकरञ्जक सिद्ध होते हैं।।”
नृपस्य परमो धर्म: प्रजानां परिपालनम्।
दुष्टनिग्रहं नित्यं न नीत्याऽतो विना ह्युभे।।
(शुक्रनीति १. १४)
“दुष्टदमन और प्रजापालन — दोनों ही राजाके नित्य धर्म हैं और ये दोनों नीतिशास्त्रके ज्ञानके बिना सम्भव नहीं।।”
यत्र नीतिबले चोभे तत्र श्रीस्सर्वतोमुखी।।
(शुक्रनीति १. १७)
“जो नीति तथा शक्ति दोनोंसे सम्पन्न है, उसे सब ओरसे सब प्रकारकी श्री स्वतः सुलभ होती है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १६७-१६८
इन्द्रात्प्रभुत्वं ज्वलनात्प्रतापं क्रोधो यमाद्वैश्रवणाच्च वित्तम्।
पराक्रमं रामजनार्दनाभ्यामादाय राज्ञ: क्रियते स्वरूपम्।।
(सुभाषितरत्नभाण्डागारम् १४२. १४)
“इन्द्रसे प्रभुत्व, अग्निसे प्रताप, यमसे क्रोध, कुबेरसे धन और श्रीराम तथा श्रीविष्णुसे पराक्रम ग्रहणकर राजाका स्वरूप निर्मित होता है।।”
पात्रे त्यागी गुणे रागी भोगी परजनै: सह।
भावबोद्धा रणे योद्धा प्रभु: पञ्चगुणो भवेत्।।
(प्रसङ्गाभरणम् ४)
“पात्रको देयका दान देनेवाला, सद्गुणमें प्रीति करनेवाला, सगे – सम्बन्धी तथा अन्योंके साथ भोग्य वस्तुओंका उपभोग करनेवाला, मनोभावको परखनेवाला और रणके अवसरपर युद्ध करनेवाला पाँच गुणसम्पन्न राजा होता है।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७०
रामराज्य (धर्मराज्य)
दशवर्षसहस्त्राणि दशवर्षशतानि च।
अयोध्याधिपतिर्भूत्वा रामो राज्यमकारयत्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ६१)
“श्रीरामने अयोध्याके अधिपति होकर ग्यारह हजार वर्षोंतक राज्य किया।।”
सन्तुष्टा: सर्वसिद्धार्था निर्भया: स्वैरचारिण:।
नरा: सत्यव्रताश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५७)
“श्रीरामचन्द्र जब राज्य करते थे उस समय सब मनुष्य सन्तुष्ट, पूर्णकाम, निर्भय, स्वच्छन्द (स्वाधीन) और सत्यव्रती थे।।”
विधवा यस्य विषये नानाथाः काश्चनाभवत्।
सदैवासीत् पितृसमो रामो राज्यं यदन्वशात्।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५२)
“उनके राज्यमें कोई विधवा और अनाथ नहीं हुई। श्रीरामचन्द्रने जबतक राज्यका शासन किया, तब तक वे अपनी प्रजाके लिए सदा ही पिताके समान कृपालु बने रहे।।”
कालवर्षी च पर्जन्य: सस्यानि समपादयत्।
नित्यं सुभिक्षमेवासीद् रामे राज्यं प्रशासति।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५३)
“मेघ समयपर वर्षा करके खेतीको उत्तम ढङ्गसे सम्पन्न करता था अर्थात् उसे विकसित होने, फूलने तथा फलनेका अवसर देता था। रामजीके राज्य – शासन – कालमें सदा सुकाल ही रहता था, अर्थात् कभी अकाल नहीं पड़ता था।।”
प्राणिनो नाप्सु मज्जन्ति नान्यथा पावकोऽदहत्।
रूजाभयं न तत्रासीद् रामे राज्यं प्रशासति।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५४)
“रामजीके राज्य – शासन – कालमें कभी कोई प्राणी जलमें नहीं डूबते थे, आग अमर्यादितरूपसे कभी किसीको नहीं जलाती थी तथा किसीको रोगका भय नहीं था।”
आसन् वर्षसहस्त्रिण्यस्तथा वर्षसहस्त्रकाः।
।।अरोगा: सर्वसिद्धार्था रामे राज्यं प्रशासति।।
(महाभारत — शान्तिपर्व २९. ५५)
“श्रीरामचन्द्रजी जब राज्यका शासन करते थे, उन दिनों हजार वर्षतक जीनेवाली स्त्रियाँ और सहस्त्रों वर्षतक जीवित रहनेवाले पुरुष थे। किसीको कोई रोग नहीं सताता था, सभीके सारे मनोरथ सिद्ध होते थे।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७०-१७१
राज्याङ्ग

परस्परोकारीदं सप्ताँगं राज्यमुच्यते।।
(अग्निपुराण २३९. १)
“स्वामी (राजा), आमात्य (मन्त्री), राष्ट्र (जनपद), दुर्ग (किला), कोष (खजाना), बल (सेना), सुह्यत् (मित्रादि) — ये राज्यके परस्पर उपकार करनेवाले सात अँग हैं।।”
इनमें पूर्व – पूर्वकी प्रबलता सिद्ध है; अतः राजाका सर्वाधिक महत्त्व है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “राजधर्म” पृष्ठ संख्या ४६
सप्ताङ्गमुच्यते राज्यं तत्र मूर्द्धा नृप: स्मृत:।।
दृगमात्य: सुह्रच्छ्रोत्रं मुखं कोशो बलं मन:।
हस्तौ पादौ दुर्गराष्ट्रौ राज्याङ्गानि स्मृतानि हि।।
(शुक्रनीति १. ६१, ६२)

“नीतिशास्त्रके अनुसार राजा, मन्त्री, मित्र, खजाना, देश (क्षेत्र), दुर्ग तथा सेना — ये राज्यके सात अङ्ग माने गये हैं। इनमें राजाको सिर माना गया है।।”
“मन्त्री नेत्र, मित्र कान, कोष मुख, सेना मन, दुर्ग हाथ और राष्ट्र पैर माने गये हैं।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७२