राज्याङ्ग

परस्परोकारीदं सप्ताँगं राज्यमुच्यते।।
(अग्निपुराण २३९. १)
“स्वामी (राजा), आमात्य (मन्त्री), राष्ट्र (जनपद), दुर्ग (किला), कोष (खजाना), बल (सेना), सुह्यत् (मित्रादि) — ये राज्यके परस्पर उपकार करनेवाले सात अँग हैं।।”
इनमें पूर्व – पूर्वकी प्रबलता सिद्ध है; अतः राजाका सर्वाधिक महत्त्व है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “राजधर्म” पृष्ठ संख्या ४६
सप्ताङ्गमुच्यते राज्यं तत्र मूर्द्धा नृप: स्मृत:।।
दृगमात्य: सुह्रच्छ्रोत्रं मुखं कोशो बलं मन:।
हस्तौ पादौ दुर्गराष्ट्रौ राज्याङ्गानि स्मृतानि हि।।
(शुक्रनीति १. ६१, ६२)

“नीतिशास्त्रके अनुसार राजा, मन्त्री, मित्र, खजाना, देश (क्षेत्र), दुर्ग तथा सेना — ये राज्यके सात अङ्ग माने गये हैं। इनमें राजाको सिर माना गया है।।”
“मन्त्री नेत्र, मित्र कान, कोष मुख, सेना मन, दुर्ग हाथ और राष्ट्र पैर माने गये हैं।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १७२
राजा कालस्य कारणम्
कालो व कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ७९)
“काल राजाका कारण है अथवा राजा कालका, ऐसा संशय तुम्हें नहीं होना चाहिये। यह निश्चित है कि राजा ही कालका कारण होता है।।”
राजा कृतयुगस्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च।
युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६९. ९८)
“राजा ही सत्ययुगकी सृष्टि करनेवाला होता है और राजा ही त्रेता, द्वापर, तथा चौथे युग कलिकी भी सृष्टिका कारण है।।”

यद्यपि काल पुरुषार्थचतुष्टयकी सिद्धि तथा सृष्टिसंरचनादिमें हेतु है, अतः वह राजाका भी कारण है ; तथापि कालज्ञ तथा कालका शुभ कार्योंमें प्रयोक्ता और महाकाल अकालपुरुष सच्चिदानन्दस्वरुप सर्वेश्वरके शरणागत एवम् प्रजाके भोगापवर्गकी सिद्धिमें संलग्न शासक दिव्यताके तारतम्यसे सत्ययुग, त्रेता या द्वापरका संस्थापक सिद्ध होता है; जबकि निद्रा – आलस्य – प्रमाद तथा काम – क्रोध – लोभके वशीभूत मूर्च्छित, व्यथित, अराजक और उन्मत्त शासक कलिका संस्थापक सिद्ध होता है।
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३०-२३१
योग्यस्य राज्ञः अभिषेकः
राष्ट्रस्यैतत् कृत्यतमं राज्ञ एवाभिषेचनम।
अनिन्द्रमबलं राष्ट्रं दस्यवॊऽभिभवन्त्युत।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, २)
“युधिष्ठिर! राष्ट्र अथवा राष्ट्रवासी प्रजावर्गका सबसे प्रधान कार्य यह है कि वह किसी योग्य राजाका अभिषेक करे, क्योंकि बिना राजाका राष्ट्र निर्बल होता है। उसे डाकू और लुटेरे लूटते तथा सताते हैं।।”
अराजकेषु राष्ट्रेषु धर्मॊ न व्यवतिष्ठते।
परस्परं च खादन्ति सर्वथा धिगराजकम।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, ३)
“जिन देशोंमें कोई राजा नहीं होता, वहाँ धर्मकी भी स्थिति नहीं रहती है; अतः वहाँके लोग एक-दूसरेको हड़पने लगते हैं; इसलिये जहाँ अराजकता हो, उस देशको सर्वथा धिक्कार है!।।”
तस्माद् राजैव कर्तव्यः सततं भूतिमिच्छता।
न धनार्थॊ न दारार्थस्तेषां येषामराजकम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, १२)
“अतः सदा उन्नतिकी इच्छा रखनेवाले देशको अपनी रक्षाके लिये किसीको राजा अवश्य बना लेना चाहिये। जिनके देशमें अराजकता है, उनके धन और स्त्रियोंपर उन्हींका अधिकार बना रहे, यह सम्भव नहीं है।।”
राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्यां दण्डधारकः।
जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन् दुर्बलं बलवत्तराः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, १६)
“यदि इस जगत्में भूतलपर दण्डधारी राजा न हो तो जैसे जलमें बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियोंको खा जाती हैं, उसी प्रकार प्रबल मनुष्य दुर्बलोंको लूट खायँ।।”
रक्षा लोकस्य धारिणी
राजानं प्रथमं विन्देत् ततो भार्यां ततो धनम्।
राजन्यसति लोकस्य कुतो भार्या कुतो धनम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ४१)
तद्राज्ये राज्यकामानां नान्यो धर्म: सनातन:।
ऋते रक्षां तु विस्पष्टां रक्षा लोकस्य धारिणी।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ४२)
“मनुष्य पहले राजाको प्राप्त करे। उसके बाद
पत्नीका परिग्रह और धनका संग्रह करे।
लोकरक्षक राजाके न होनेपर कैसे भार्या
सुरक्षित रहेगी और किस तरह धनकी रक्षा हो सकेगी ?।।
राज्य चाहनेवाले राजाओंके लिए राज्यमें
प्रजाओंकी भलीभाँति रक्षाको छोड़कर अन्य
कोई सनातन धर्म नहीं है।
रक्षा ही लोकको धारण करनेवाली है।।”
यदा रक्षति भूमिपः
विवृत्य हि यथाकामं गृहद्वाराणि शेरते।
मनुष्या रक्षिता राज्ञा समन्तादकुतॊभयाः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ३०)
“राजासे रक्षित हुए मनुष्य सब ओरसे निर्भय हो जाते हैं और अपनी इच्छाके अनुसार घरके दरवाजे खोलकर सोते हैं।।”
स्त्रियश्चापुरुषा मार्गं सर्वालंकारभूषिताः।
निर्भयाः प्रतिपद्यन्ते यदा रक्षति भूमिपः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ३२)
“यदि पृथ्वीका पालन करनेवाला राजा अपने राज्यकी रक्षा करता है तो समस्त आभूषणोंसे विभूषित हुई सुन्दरी स्त्रियाँ किसी पुरुषको साथ लिये बिना भी निर्भय होकर मार्गसे आती-जाती हैं।।”
धर्ममेव प्रपद्यन्ते न हिंसन्ति परस्परम्।
अनुगृह्णन्ति चान्यॊन्यं यदा रक्षति भूमिपः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८. ३३)
वार्तामूलॊ ह्ययं लॊकस्त्रय्या वै धार्यते सदा।
तत् सर्वं वर्तते सम्यग् यदा रक्षति भूमिपः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८. ३५)
यदा राजा धुरं श्रेष्ठामादाय वहति प्रजाः।
महता बलयॊगेन तदा लॊकः प्रसीदति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८. ३६)
“जब राजा रक्षा करता है, तब सब लोग धर्मका ही पालन करते हैं, कोई किसीकी हिंसा नहीं करते और सभी एक-दूसरेपर अनुग्रह रखते हैं।।
खेती आदि समुचित जीविकाकी व्यवस्था ही इस जगत्के जीवनका मूल है तथा वृष्टि आदिकी हेतुभूत त्रयी विद्यासे ही सदा जगत्का धारण-पोषण होता है। जब राजा प्रजाकी रक्षा करता है, तभी वह सब कुछ ठीक ढंगसे चलता रहता है।।
जब राजा विशाल सैनिक-शक्तिके सहयोगसे भारी भार उठाकर प्रजाकी रक्षाका भार वहन करता है, तब यह सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न होता है।।”
यदि राजा न पालयेत्
राजमूलॊ महाराज धर्मॊ लॊकस्य लक्ष्यते।
प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ८)
राजा ह्योवाखिलं लॊकं समुदीर्णं समुत्सुकम्।
प्रसादयति धर्मेण प्रसाद्य च विराजते।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ९)
“महाप्राज्ञ! लोकमें जो धर्म देखा जाता है, उसका मूल कारण राजा ही है। राजाके भयसे ही प्रजा एक-दूसरेको हड़प नहीं लेती है। राजा ही मर्यादाका उल्लंघन करनेवाले तथा अनुचित भोगोंमें आसक्त हो उनकी प्राप्तिके लिये उत्कण्ठित रहनेवाले सारे जगत्के लोगोंको धर्मानुकूल शासनद्वारा प्रसन्न रखता है और स्वयं भी प्रसन्नतापूर्वक रहकर अपने तेजसे प्रकाशित होता है।।”
ममेदमिति लॊकेऽसमिन् न भवेत् सम्परिग्रहः।
न दारा न च पुत्र: स्यान्न धनं न परिग्रह:।
विश्वलॊपः प्रवर्तेत यदि राजा न पालयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८. १५)
“यदि राजा रक्षा न करे तो इस जगत् में स्त्री, पुत्र, धन अथवा घरबार कोई भी ऐसा संग्रह सम्भव नहीं हो सकता, जिसके लिये कोई कह सके कि यह मेरा है, सब ओर सबकी सारी सम्पत्तिका लोप हो जाय।”
पतेद् बहुविधं शस्त्रं बहुधा धर्मचारिषु।
अधर्मः प्रगृहीतः स्याद् यदि राजा न पालयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८. १७)
न यज्ञाः सम्प्रवर्तेयूर्विधिवत् स्वाप्तदक्षिणाः।
न विवाहाः समाजो वा यदि राजा न पालयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८. २२)
अनयाः सम्प्रवर्तेरन् भवेद् वै वर्णसंकरः।
दुर्भिक्षमाविशेद् राष्ट्रं यदि राजा न पालयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८. २९)
“यदि राजा रक्षा न करे तो धर्मात्मा पुरुषोंपर बारंबार नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी मार पड़े और विवश होकर लोगोंको अधर्मका मार्ग ग्रहण करना पड़े।।
यदि राजा जगत्की रक्षा न करे तो विधिवत पर्याप्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञोंका अनुष्ठान बंद हो जाय, विवाह न हो और सामाजिक कार्य रुक जायेँ।।
यदि राजा पालन न करे तो सब ओर अन्याय एवं अत्याचार फैल जाय, वर्णसंकर संतानें पैदा होने लगें और समूचे देशमें अकाल पड़ जाय।।”
राज्ञा विहिना न भवन्ति देशा देशैर्विहिना न नृपा भवन्ति
यदा पश्यति चारेण सर्वभूतानि भूमिपः।
क्षेमं च कृत्वा व्रजति तदा भवति भास्करः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४३)
अशुचींश्च यदा क्रुद्धः क्षिणॊति शतशॊ नरान्।
सपुत्रपौत्रान् सामात्यांस्तदा भवति सॊऽन्तकः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४४)
यदा तवधार्मिकान् सर्वांस्तीक्ष्णैर्दण्डैर्नियच्छति।
धार्मिकांश्चानुगृह्णाति भवत्यथ यमस्तदा।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४५)
“जब राजा गुप्तचरोंद्वारा समस्त प्रजाओंकी देख-भाल करता है और उन सबकी रक्षा करता हुआ चलता है, तब वह सूर्यरूप होता है।।
जब राजा कुपित होकर अशुद्धाचारी सैकड़ों मनुष्योंका उनके पुत्र, पौत्र और मन्त्रियोंसहित संहार कर डालता है, तब वह मृत्युरूप होता है।।
जब वह कठोर दण्डके द्वारा समस्त अधार्मिक पुरुषोंको काबूमें करके सन्मार्गपर लाता है और धर्मात्माओंपर अनुग्रह करता है, उस समय वह यमराज माना जाता है।।”
यदा तु धनधाराभिस्तर्पयत्युपकारिणः।
आच्छिनत्ति च रत्नानि विविधान्यपकारिणाम।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४६)
श्रियं ददाति कस्मैचित् कस्माच्चिदपकर्षति।
तदा वैश्रवणॊ राजा लॊके भवति भूमिपः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ४७)
“जब राजा उपकारी पुरुषोंको धनरूपी जलकी धाराओंसे तृप्त करता है और अपकार करनेवाले दुष्टोंके नाना प्रकारके रत्नोंको छीन लेता है, किसी राज्यहितैषीको धन देता है तो किसी (राज्यविद्रोही) के धनका अपहरण कर लेता है, उस समय वह पृथिवीपालक नरेश इस संसारमें कुबेर समझा जाता है।।”
राजा प्रगल्भं कुरुते मनुष्यं राजा कृशं वै कुरुते मनुष्यम्।
राजाभिपन्नस्य कुतः सुखानि राजाभ्युपेतं सुखिनं करॊति।।
(राजा प्रजानां प्रथमं शरीरं प्रजाश्च राज्ञोऽप्रतिमं शरीरम्।
राज्ञा विहिना न भवन्ति देशा देशैर्विहिना न नृपा भवन्ति।।)
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, ५८)
“राजा मनुष्यको धृष्ट एवं सबल बनाता है और राजा ही उसे दुर्बल कर देता है। राजाके रोषका शिकार बने हुए मनुष्यको कैसे सुख मिल सकता है? राजा अपने शरणागतको सुखी बना देता है।।
(राजा प्रजाओंका प्रथम अथवा प्रधान शरीर है। प्रजा भी राजाका अनुपम शरीर है। राजाके बिना देश और वहाँके निवासी नहीं रह सकते और देशों तथा देशवासियोंके बिना राजा भी नहीं रह सकते हैं)।।”
राजा प्रजानां हृदयं गरीयॊ गतिः प्रतिष्ठा सुखमुत्तमं च।
समाश्रिता लॊकमिमं परं च जयन्ति सम्यक् पुरुषा नरेन्द्र।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, ५९)
नराधिपश्चाप्यनुशिष्य मेदिनीं दमेन सत्येन च सौहृदेन।
महद्भिरिष्ट्वा क्रतुभिर्महायशा स्त्रिविष्टपे स्थानमुपैति शाश्वतम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६७, ६०)
“राजा प्रजाका गुरुतर हृदय, गति, प्रतिष्ठा और उत्तम सुख है। नरेन्द्र! राजाका आश्रय लेनेवाले मनुष्य इस लोक और परलोकपर भी पूर्णतः विजय पा लेते हैं।।
राजा भी इन्द्रियसंयम, सत्य और सौहार्दके साथ इस पृथ्वीका भलीभाँति शासन करके बड़े-बड़े यज्ञोंके अनुष्ठानद्वारा महान् यशका भागी हो स्वर्गलोकमें सनातन स्थान प्राप्त कर लेता है।।”
षडेतान पुरूषो जह्यात्
राजधर्मेषु राजेन्द्र ताविहैकमना: शृणु।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ४३)
“राजेन्द्र ! प्रचेतस मनुने राजधर्मके विषयमें ये दो श्लोक कहे हैं। तुम एकाग्रचित होकर उन दोनों श्लोकोंको यहाँ सुनो।।”
षडेतान पुरूषो जह्याद् भिंन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवत्त्कारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ४४)
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपलं वनकामं च नापितम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ५७. ४५)
“जैसे समुद्रकी यात्रामें टूटी हुई नौकाका त्याग कर दिया जाता है, वैसे ही प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि वह उपदेश न देनेवाले आचार्य, वेदमन्त्रोंका उच्चारण न करनेवाले ऋत्विज्, रक्षा न कर सकनेवाले राजा, कटुवचन बोलनेवाली स्त्री, गाँवमें रहनेकी इच्छा करनेवाले ग्वाले और वनमें रहनेकी कामना करनेवाले नाई – इन छःका त्याग कर दे।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या २३२-२३३