राष्ट्र की रक्षा और उन्नति के लिए राजा की आवश्यकता

श्री हरि:
श्रीगणेशाय नमः

श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥


षडेतान पुरूषो जह्यात्


प्राचेतसेन मनुना श्लोकौ चेमावुदा ह्रतौ।
राजधर्मेषु राजेन्द्र ताविहैकमना: शृणु।।
(महाभारत-शान्तिपर्व ५७. ४३)

“राजेन्द्र ! प्रचेतस मनुने राजधर्मके विषयमें ये दो श्लोक कहे हैं। तुम एकाग्रचित होकर उन दोनों श्लोकोंको यहाँ सुनो।।”

षडेतान पुरूषो जह्याद् भिंन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवत्त्कारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्।।
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपलं वनकामं च नापितम्।।
(महाभारत-शान्तिपर्व ५७. ४४-४५)

“जैसे समुद्रकी यात्रामें टूटी हुई नौकाका त्याग कर दिया जाता है, वैसे ही प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि वह उपदेश न देनेवाले आचार्य, वेदमन्त्रोंका उच्चारण न करनेवाले ऋत्विज्, रक्षा न कर सकनेवाले राजा, कटुवचन बोलनेवाली स्त्री, गाँवमें रहनेकी इच्छा करनेवाले ग्वाले और वनमें रहनेकी कामना करनेवाले नाई – इन छःका त्याग कर दे।।”

षडेतान पुरूषो जह्यात्


प्राचेतसेन मनुना श्लोकौ चेमावुदा ह्रतौ।
राजधर्मेषु राजेन्द्र ताविहैकमना: शृणु।।
(महाभारत-शान्तिपर्व ५७. ४३)

“राजेन्द्र ! प्रचेतस मनुने राजधर्मके विषयमें ये दो श्लोक कहे हैं। तुम एकाग्रचित होकर उन दोनों श्लोकोंको यहाँ सुनो।।”

षडेतान पुरूषो जह्याद् भिंन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवत्त्कारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्।।
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपलं वनकामं च नापितम्।।
(महाभारत-शान्तिपर्व ५७. ४४-४५)

“जैसे समुद्रकी यात्रामें टूटी हुई नौकाका त्याग कर दिया जाता है, वैसे ही प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि वह उपदेश न देनेवाले आचार्य, वेदमन्त्रोंका उच्चारण न करनेवाले ऋत्विज्, रक्षा न कर सकनेवाले राजा, कटुवचन बोलनेवाली स्त्री, गाँवमें रहनेकी इच्छा करनेवाले ग्वाले और वनमें रहनेकी कामना करनेवाले नाई – इन छःका त्याग कर दे।।”