
धर्मशास्त्रार्थतत्वज्ञ: संधिविग्रहिकॊ भवेत्।
मतिमान् धृतिमान् ह्रीमान् रहस्यविनिगूहिता।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. ३०)
कुलीनः सत्त्वसंपन्नः शुक्लोऽमात्यः प्रशस्यते।
एतैरेव गुणैर्युक्तस्तथा सेनापतिर्भवेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. ३१)
“सन्धि-विग्रहके अवसरको जाननेवाला, धर्मशास्त्रका तत्त्वज्ञ, बुद्धिमान्, धीर, लज्जावान्, रहस्यको गुप्त रखनेवाला, कुलीन, साहसी तथा शुद्ध हृदयवाला मन्त्री ही उत्तम माना जाता है। सेनापति भी इन्हीं गुणोंसे युक्त होना चाहिये।।”
मतिमान् धृतिमान् ह्रीमान् रहस्यविनिगूहिता।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. ३०)
कुलीनः सत्त्वसंपन्नः शुक्लोऽमात्यः प्रशस्यते।
एतैरेव गुणैर्युक्तस्तथा सेनापतिर्भवेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. ३१)
“सन्धि-विग्रहके अवसरको जाननेवाला, धर्मशास्त्रका तत्त्वज्ञ, बुद्धिमान्, धीर, लज्जावान्, रहस्यको गुप्त रखनेवाला, कुलीन, साहसी तथा शुद्ध हृदयवाला मन्त्री ही उत्तम माना जाता है। सेनापति भी इन्हीं गुणोंसे युक्त होना चाहिये।।”
सेनापति
यथामुख्यान् सन्निपात्य वक्तव्या संशपामहे।
विजयार्थं हि संग्रामे न त्यक्ष्याम: परस्परम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १००. ३२)
“राजा मुख्य – मुख्य वीरोंको एकत्र करके यह प्रतिज्ञा करावे कि हम संग्राममें विजय प्राप्त करनेके लिए प्राण रहते तक एक – दूसरेका साथ नहीं छोड़ेंगे।।”
दृढ़भक्तिं कृतप्रज्ञं धर्मज्ञं संयतेन्द्रियम्।
शूरमक्षुद्रकर्माणं निधिद्धजनमाश्रयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ५७)
“राजा अपने प्रति दृढ़ भक्तिसे सम्पन्न, युद्ध की शिक्षा पाये हुए, बुद्धिमान्, धर्मज्ञ, जितेन्द्रिय, शूरवीर और श्रेष्ठ कर्म करनेवाले ऐसे वीर पुरुषको सेनापति बनावे, जो अपनी सहायताके लिये दूसरोंका आश्रय लेनेवाला न हो।।”
जयं जानीत धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च।
या भीरूणां परा ग्लानि: शूरस्तामधिगच्छति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १००. ४०)
“वीरों! तुम लोग युद्धमें विजयको ही धर्म एवम् सम्पूर्ण सुखोंका मूल समझो। कायरों या डरपोक मनुष्योंको जिससे भारी ग्लानि होती है, वीर पुरुष उसी प्रहार और मृत्युको सहर्ष स्वीकार करता है।।”
ते वयं स्वर्गमिच्छन्तः संग्रामे तयक्तजीविताः।
जयन्तॊ वध्यमाना वा प्राप्नुयाम च सद्गतिम।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १००. ४१)
“अतः तुम लोग यह निश्चय कर लो कि हम स्वर्गकी इच्छा रखकर संग्राममें अपने प्राणोंका मोह त्यागकर युद्ध करेंगे। हम या तो विजय प्राप्त करेंगे या युद्धमें मारे जाकर सद्गति लाभ करेंगे।।”
व्यूहयन्त्रायुधानां च तत्त्वज्ञॊ विक्रमान्वितः।
वर्षशीतॊष्णवातानां सहिष्णुः पररन्ध्रवित:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. ३२)
“सेनापति व्यूहरचना (मोर्चाबंदी), यन्त्रोंके प्रयोग तथा नाना प्रकारके अन्यान्य अस्त्र-शस्त्रोंको चलानेकी कलाका तत्त्वज्ञ अर्थात् विशेषज्ञ हो। वह पराक्रमी हो, सर्दी – गर्मी – आँधी और वर्षाके कष्टको धैर्यपूर्वक सहनेवाला तथा शत्रुओंके छिद्रको समझनेवाला हो।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८५-१८६
विजयार्थं हि संग्रामे न त्यक्ष्याम: परस्परम्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १००. ३२)
“राजा मुख्य – मुख्य वीरोंको एकत्र करके यह प्रतिज्ञा करावे कि हम संग्राममें विजय प्राप्त करनेके लिए प्राण रहते तक एक – दूसरेका साथ नहीं छोड़ेंगे।।”
दृढ़भक्तिं कृतप्रज्ञं धर्मज्ञं संयतेन्द्रियम्।
शूरमक्षुद्रकर्माणं निधिद्धजनमाश्रयेत्।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ६८, ५७)
“राजा अपने प्रति दृढ़ भक्तिसे सम्पन्न, युद्ध की शिक्षा पाये हुए, बुद्धिमान्, धर्मज्ञ, जितेन्द्रिय, शूरवीर और श्रेष्ठ कर्म करनेवाले ऐसे वीर पुरुषको सेनापति बनावे, जो अपनी सहायताके लिये दूसरोंका आश्रय लेनेवाला न हो।।”

जयं जानीत धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च।
या भीरूणां परा ग्लानि: शूरस्तामधिगच्छति।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १००. ४०)
“वीरों! तुम लोग युद्धमें विजयको ही धर्म एवम् सम्पूर्ण सुखोंका मूल समझो। कायरों या डरपोक मनुष्योंको जिससे भारी ग्लानि होती है, वीर पुरुष उसी प्रहार और मृत्युको सहर्ष स्वीकार करता है।।”
ते वयं स्वर्गमिच्छन्तः संग्रामे तयक्तजीविताः।
जयन्तॊ वध्यमाना वा प्राप्नुयाम च सद्गतिम।।
(महाभारत – शान्तिपर्व १००. ४१)
“अतः तुम लोग यह निश्चय कर लो कि हम स्वर्गकी इच्छा रखकर संग्राममें अपने प्राणोंका मोह त्यागकर युद्ध करेंगे। हम या तो विजय प्राप्त करेंगे या युद्धमें मारे जाकर सद्गति लाभ करेंगे।।”
व्यूहयन्त्रायुधानां च तत्त्वज्ञॊ विक्रमान्वितः।
वर्षशीतॊष्णवातानां सहिष्णुः पररन्ध्रवित:।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. ३२)
“सेनापति व्यूहरचना (मोर्चाबंदी), यन्त्रोंके प्रयोग तथा नाना प्रकारके अन्यान्य अस्त्र-शस्त्रोंको चलानेकी कलाका तत्त्वज्ञ अर्थात् विशेषज्ञ हो। वह पराक्रमी हो, सर्दी – गर्मी – आँधी और वर्षाके कष्टको धैर्यपूर्वक सहनेवाला तथा शत्रुओंके छिद्रको समझनेवाला हो।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८५-१८६
राजदूत

कुलीनः शीलसम्पन्नॊ वाग्मी दक्षः प्रियंवदः।
यथॊक्तवादी स्मृतिमान् दूतः स्यात् सप्तभिर्गुणैः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. २८)
“राजदूतको कुलीन, शीलवान्, वाचाल, चतुर, प्रियवचन बोलनेवाला, सन्देशको ज्यों – का – त्यों अर्थात् यथावत् कह देनेवाला तथा स्मरणशक्तिसे सम्पन्न — इस प्रकार सात गुणोंसे युक्त होना चाहिये।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८६-१८७
यथॊक्तवादी स्मृतिमान् दूतः स्यात् सप्तभिर्गुणैः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. २८)
“राजदूतको कुलीन, शीलवान्, वाचाल, चतुर, प्रियवचन बोलनेवाला, सन्देशको ज्यों – का – त्यों अर्थात् यथावत् कह देनेवाला तथा स्मरणशक्तिसे सम्पन्न — इस प्रकार सात गुणोंसे युक्त होना चाहिये।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८६-१८७
राजप्रतिहारी

एतैरेव गुणैर्युक्तः प्रतिहारॊऽसय रक्षिता।
शिरॊरक्षश्च भवति गुणैरेतैः समन्वितः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. २९)
“राजाके द्वारकी रक्षा करनेवाले प्रतिहारी (द्वारपाल) भी इन्हीं गुणोंसे सम्पन्न होने चाहिये। उसका शिरोरक्षक तद्वत् अँगरक्षक भी इन्हीं गुणोंसे सम्पन्न हो।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८७
शिरॊरक्षश्च भवति गुणैरेतैः समन्वितः।।
(महाभारत – शान्तिपर्व ८५. २९)
“राजाके द्वारकी रक्षा करनेवाले प्रतिहारी (द्वारपाल) भी इन्हीं गुणोंसे सम्पन्न होने चाहिये। उसका शिरोरक्षक तद्वत् अँगरक्षक भी इन्हीं गुणोंसे सम्पन्न हो।।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “नीतिनिधि” पृष्ठ संख्या १८७