अधारणेऽमहत्त्वे वाधर्म: स तु निरूच्यते।। (मत्स्यपुराण १४५.२७)
तत्रेष्टप्रापको धर्म आचार्यैरूपदिश्यते।
अधर्मश्चानिष्टफलं आचार्यैर्नोपदिश्यते।। (मत्स्यपुराण १४५.२८)
वृद्धाश्चालोलुपाश्चैव आत्मवन्तो ह्यदाम्भिका:।
सम्यग्विनीता मृदवस्तानाचार्यन् प्रचक्षते।। (मत्स्यपुराण १४५.२९)

“.‘धृ’ – धातु धारण करने तथा महत्त्वके अर्थमें प्रयुक्त होती है। अधारण तथा अमहत्त्वमें प्रयुक्त अधर्म शब्दका अर्थ इसके विपरीत है।।”
“आचार्यवृन्द इष्टकी प्राप्ति करानेवाले धर्मका ही उपदेश करते हैं। अनिष्ट फलप्रद अधर्मका उपदेश आचार्यगण नहीं करते।।”
“जो वृद्ध, निर्लोभ, संयमी तथा आत्मज्ञ, दम्भहीन, परम विनीत, मृदु – स्वभाव होते हैं; उन्हें ‘आचार्य’ कहा जाता है।।”
धर्ममर्यादाके निरन्तर परिपालन और धर्मसेतुके परिरक्षणका मुख्य दायित्व पूज्यभगवत्पाद श्रीशङ्कराचार्यने ब्राह्मणों, श्रीपद्मपाद – हस्तामलक – सुरेश्वर – तोटक संज्ञक चतुराम्नाय चतुष्पीठके मान्य श्रीमज्जगद्गुरुओं एवम् श्रीभट्टपादके द्वारा सुशिक्षित तथा श्रीभगवत्पादके द्वारा अधिष्ठित सुधन्वादि नरेशोंको सौंपा था। –
“सुधन्वा हि महाराजस्तदन्ये च नरेश्वरा:।
धर्म्मपारम्परीमेतां पालयन्तु निरंतरम्।।” (महानुशासनम १७)
ब्राह्मणोचित आचरण
सर्वधर्मॊपपन्नस्य संवृतस्य कृतात्मनः।। (महाभारत – शान्तिपर्व ६२. ६)
ब्राह्मणस्य विशुद्धस्य तपस्यभिरतस्य च।
निराशिषॊ वदान्यस्य लॊका ह्यक्षरसम्मिताः।। (महाभारत – शान्तिपर्व ६२. ७)
“जो ब्राह्मण यज्ञ करना-कराना, विद्या पढ़ना-पढ़ाना तथा दान लेना और देना–इन छ: कर्मोंमें ही प्रवृत्त होता है, चारों आश्रमोंमें स्थित हो उनके सम्पूर्ण धर्मोका पालन करता है, धर्ममय कवचसे सुरक्षित होता है और मनको वशमें किये रहता है, जिसके मनमें कोई कामना नहीं होती, जो बाहर-भीतरसे शुद्ध, तपस्यापरायण और उदार होता है, उसे अविनाशी लोक प्राप्त होते हैं।।”
सेव्यं तु ब्रह्म षट्कर्म गृहस्थेन मनीषिणा।
कृतकृत्यस्य चारण्ये वासॊ विप्रस्य शस्यते।। (महाभारत – शान्तिपर्व ६३. २)
“मनीषी ब्राह्मण यदि गृहस्थ हो तो उसके लिये वेदोंका अभ्यास और यजन-याजन आदि छ:कर्म ही सेवन करने योग्य हैं। गृहस्थ आश्रमका उद्देश्य पूर्ण कर लेनेपर ब्राह्मणके लिये (वानप्रस्थी होकर) वनमें निवास करना उत्तम माना गया है।।”

तस्माद् धर्मॊ विहितॊ ब्राह्मणस्य दमः शौचमार्जवं चापि राजन्।
तथा विप्रस्याश्रमाः सर्व एव पुरा राजन् ब्राह्मणा वै निसृष्टाः।। (महाभारत – शान्तिपर्व ६३. ७)
“अत: नरेश्वर! ब्राह्मणके लिये इन्द्रियसंयम, बाहर-भीतरकी शुद्धि औरसरलताके साथसाथ धर्माचरणका ही विधान है। राजन्! सभी आश्रम ब्राह्मणोंके लिये ही हैं क्योंकि सबसे पहले ब्राह्मणोंकी ही सृष्टि हुई है।।”
यः स्याद् दान्तः सॊमपश्चार्यशीलः सानुक्रॊशः सर्वसहॊ निराशीः।
ऋजुर्मृदुरनृशंसः क्षमावान् स वै विप्रॊ नेतरः पापकर्मा।। (महाभारत – शान्तिपर्व ६३. ८)
“जो मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाला, सोमयाग करके सोमरस पीनेवाला, सदाचारी, दयालु, सब कुछ सहन करनेवाला, निष्काम, सरल, मृदु, क्रूरतारहित और क्षमाशील हो, वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है। उससे भिन्न जो पापाचारी है, उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिये।।”
आचार्य और राजा
“तानाचार्योपदेशांश्च राजदंडाँश्च पालयेत्।
तस्मादाचार्यराजानावनवद्यौ न निन्दयेत्।।”
(महानुशासनम २४)

“शील, संयम तथा वेदार्थविज्ञानसम्पन्न आचार्यके उपदेश और उसका उल्लङ्घन करनेवालोंके लिए अर्थात् उन्मार्गगामी अराजक तत्त्वोंके लिए राजदण्ड प्रजापालक हैं। अत एव आचार्य और राजा माननीय हैं; इनकी निन्दा न करे।।”
विद्या, बल, धन और सेवाबलमें परस्पर समन्वय
“ब्राह्मणोंमें विद्या (सरस्वती)की, क्षत्रियोंमें सैन्य बल (शक्ति)की, वैश्योंमें धन (सम्पत्ति) और शूद्रोंमें सेवाकी प्रतिष्ठा होती है। विद्यासे नियन्त्रित और समन्वित बल, विद्या और बलसे नियन्त्रित और समन्वित धन तथा विद्या, बल और धनसे नियन्त्रित एवम् समन्वित सेवासे सर्वहित सुनिश्चित है।”
“जब विद्यापर बलका वर्चस्व होता है अर्थात् शिक्षातन्त्रमें प्रतिष्ठित विद्यापर शासनतन्त्रमें प्रतिष्ठित शक्तिका आधिपत्य होता है, तब समाजमें विप्लवका वातावरण छा जाता है। जब विद्या और बलपर व्यापारतन्त्रमें प्रतिष्ठित धन-सम्पत्तिका वर्चस्व होता है, तब समाजमें अति विप्लव होने लगता है। जब विद्या, बल, और धनपर श्रमिकवर्गमें सन्निहित सेवाका वर्चस्व (शासन) होता है, तब विश्व विनाशकी विभीषिकासे सन्तप्त होने लगता है।”
— श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती
द्वारा लिखित पुस्तक “नीति और अध्यात्म” पृष्ठ संख्या ३६
वेदवेदांगतत्वज्ञो राजपुरोहित:
वेदे षडंगे निरता: शुचय: सत्यवादिन:।
धर्मात्मन: कृतात्मान: स्युर्नृपाणां पुरोहिता:।।
(महाभारत– आदिपर्व १६९.७५)
“जो छहों अंगोंसहित वेदके स्वाध्यायमें तत्पर, पवित्र, सत्यवादी, धर्मात्मा और संयमी हों, ऐसे ही ब्राह्मण राजाके पुरोहित होने चाहिये।।”
वेदवेदांगतत्वज्ञो जपहोमपरायण:।
आशीर्वादपरो नित्यमेष राजपुरोहित:।।
(प्रसंगाभरणम् १६)
“वेद – वेदांगके तत्वज्ञ, जप तथा होमके परायण, नित्य आशीर्वादमें तत्पर — यह राजपुरोहितका स्वरूप है।।”
जयश्च नियतो राज्ञ: स्वर्गश्च तदनंतरम्।
यस्य स्याद् धर्मविद् वाग्मी पुरोधा: शीलवान् शुचि:।।
(महाभारत– आदिपर्व १६९.७६)
“जिसके यहाँ धर्मज्ञ वक्ता, शीलवान् और शुद्धाचरणसम्पन्न ब्राह्मण पुरोहित हो, उस राजाको इस लोकमें निश्चय ही विजय प्राप्त होती है और देहत्यागके पश्चात् उसे स्वर्ग मिलता है।।”
लाभं लब्धुमलब्धं व लब्धं वा परिरक्षितुम्।
पुरोहितं प्रकुर्वित राजा गुणसमन्वितम्।।
(महाभारत– आदिपर्व १६९.७७)
“राजाको किसी अप्राप्त निधिको प्राप्त करने अथवा उपलब्ध निधिकी रक्षा करनेके लिये गुणवान् ब्राह्मणको पुरोहित बनाना चाहिये।।”
व्यासपीठ और शासनतंत्रका शोधन

“एक ही मूल समस्या है, व्यासपीठ और शासनतंत्र दोनोंका दिशाहीन होना। इस मूल समस्याका हल ना होनेसे विस्फोटक परिणाम सामने आ रहे हैं और इसीलिए इस मूल समस्याको सुधारना अत्यन्त आवश्यक है। इस मूल समस्या का हल है — व्यासपीठ और शासनतंत्रका शोधन और दोनोंमें पारस्परिक सामंजस्य। इसलिए आदर्श राज्य की कामना करने वाले क्षत्रियों को सद्गुरू का आलंबन लेना चाहिये।”